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शनिवार, 18 अप्रैल 2009

कविता

बूढे सपने !

प्रदीप पाठक

(हाल ही मे हुए बम्ब धमाकों से प्रेरित यह रचना उस गाँव का हाल बताती है जिसे खाली करवा दिया गया है क्योंकि वहाँ कभी भी जंग हो सकती है। वो सारे गाँव के लोग हर दम खानाबदोश की ज़िन्दगी जीते हैं। मै सोचता हूँ हम हर बार क्या खो रहे हैं, इसका ज़रा सा भी इल्म नहीं हमको-सं.)

वो देखो !

गाँव की मस्जिद।

आज भी नमाज़ को

तरस रही है।

फूलों के पेड़ -

बच्चों के स्कूल,

सब सूने पड़े हैं।

लगता है-आज फिर

काफिला आया है।

सिपाहियों का दस्ता लाया है।

गाँवों की पखडंडियाँ

फिर से उजाड़ हो गई।

मौलवी की तमन्ना,

फिर हैरान हो गई।

फिर मन को टटोला है।

जंग ने फिर से कचौला है।

दर्द भी पी लिया है।

अपनों से जुदा हुए-

पर अरमानों को सी लिया है।


खामोश आँखों ने-

फिर ढूँढा है सपनों को।

नादान हथेलियों में-

फिर तमन्ना जागी है।


पर क्यों सरफरोश हो गई,

आशायें इस दिल की।

क्यों कपकपी लेती लौ,

मोहताज़ है तिल तिल की।


टिमटिमाते तारे भी,

धूमिल से हैं।

बारूद के धुएँ में जुगनू भी,

ओझल से हैं.
बस करो भाई!

अब घुटन सी हो रही है।

न करो जंग का ऐलान फिर-

चुभन सी हो रही है।


बड़ी मुश्किलों से,

रमजान का महीना आया है।

मेरी तकदीर की

आखिरी ख्वाहिश को,

संग अपने लाया है।


कर लेने दो अजान

फिर अमन की खातिर,

बह लेने दो पुरवाई

बिखरे चमन की खातिर.
यूँ खून न बरसाओ !

अबकी सुबह निराली है।

हर पतझड़ के बाद मैंने-

देखी हरियाली है।

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