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शनिवार, 25 अप्रैल 2009

हिंदी के हित में ‘करो या मरो’

अंग्रेज़ी के विरुद्ध करो या न करो....किंतु

हिंदी के हित में ‘करो या मरो’

सु-समृद्ध संस्कृत की आत्मज – हिंदी की भारतीय जनमानस की वाणी के रूप में गौरवशाली परंपरा रही है । इसी कारण स्वतंत्र भारत के संविधान हिंदी के लिए उचित दर्जा मिला है । हिंदी बोलने, जानने वालों की आबादी के आधार पर भले ही उसके विश्व स्तर पर प्रथम स्थान पर होने के दावे पेश हो रहे हो, किंतु ‘विश्व भाषा’ के रूप में आज तक अपेक्षित मान्यता उसे नहीं मिल पाई है । ऐसी मान्यता दिलाने के लिए तथाकथित हिंदी-प्रेमियों द्वारा मांग किया जाना तथा मान्यता दिलाने की कोशिशें शुरू करने की घोषणाएँ सुनाई पड़ना सुखद समाचार है । ये मांगे भी अपनी जगह सही हैं, किंतु देश में हिंदी की समग्र स्थिति पर चिंतन एवं आत्ममंथन ज़रूरी है ।

हिंदी को अंतर राष्ट्रीय मान्यता दिलाने का जो प्रयास किया जो प्रयास किया जा रहा है, वह एक अर्थहीन पहल साबित हो रहा है । दरअसल भारत के भाल के बिंदी बनने से वंचित हिंदी को विश्व भाषा की संज्ञा देना ही कहीं अटपटा-सा लगता है । संविधान की मूल भावना को समझने, तदनुरूप अग्रसर होने से मुँह मोड़कर महज ‘हिंदी-प्रेम’ के आलाप में हम रुचि लेते रहे हैं । संवैधानिक दायित्व की पूर्ति महज आंकड़ों का मायाजाल साबित हो रहा है । शिक्षा, संचार, प्रशासन, विधि, चिकित्सा, अभियांत्रिकी आदि कई क्षेत्रों में निष्ठा पूर्वक हिंदी की प्रयोग वृद्धि के लिए अनुकूल शासकीय निर्णय लेना इन दिनों संभव होने की स्थिति नज़र नहीं आ रही है । हाँ, ऐसे एकाध निर्णय लिए भी गए हैं, जो या तो लंबित पड़े हैं या ‘धीरे धीरे रे मना.... ’ के अनुसरण में फँस गए हैं । जैसे कि स्पष्ट किया जा चुका है, यह कोई राज़ की बात नहीं है, सर्व विधित अराजकता है ।

लगता है कि तथाकथित हिंदी-प्रेम की उन्मत्तता से भी नेत्रोन्मीलन संभव नहीं हो पाया है । हिंदी संबंधी हमारी मानसिकता के संकुचित दायरों, संवैधानिक दायित्व-बोध से वंचित शासनिक क़दमों के कारण हिंदी की स्थिति आज बहुत ही नाज़ुक है । भूमंडलीकरण, निजीकरण, कंप्यूटरीकरण आदि हिंदी की गति की बुरी ढंग से प्रभावित करनेवाली घटनाएं साबित हो रही हैं ।

दुर्भाग्य से व्यवहार में भारतीय समाज की अधिमानित भाषा भी अंग्रेज़ी ही है । यहाँ किसी भी प्रकार की नौकरी पाने के लिए अंग्रेज़ी में प्रमाणपत्र की ज़रूरत पड़ेगा । पग-पग पर अंग्रज़ी ज्ञान की अपेक्षा करना, सामाजिक स्तर एवं सत्कार के लिए अंग्रेज़ी मोह - - ये सब आज की अनिवार्यताएँ साबित हो रही हैं । भारत में यत्र-तत्र-सर्वत्र अंग्रेज़ी का राज है, ऐसे में हम हिंदी को अंतर राष्ट्रीय मान्यता दिलाने के लिए लालायित हो रहे हैं । यह एक विडंबना है । हिंदी के समक्ष ऐसी कई विडंबनाएँ हैं । हिंदी रोजी-रोटी के साथ एक संकुचित अर्थ में जुड़ी है । संवैधानिक मान्यता मिलने के बावजूद ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित साहित्य हिंदी में आज तक उपलब्ध न हो पाने के बहाने हिंदी उच्च शिक्षा का माध्यम बनने से वंचित है । प्रचार से कतरानेवाली संस्थाओं को हिंदी प्रचार के नाम पर बड़ी मात्रा में अनुदान की राशियाँ मिल रहीं हैं, शायद इसी कारण हिंदी की अपेक्षाएँ भी पूरी नहीं हो रही हैं । हिंदी से कोई सरोकार न रखनेवाले आज हिंदी साम्राज्य के पदाधिकारी बन बैठे हैं । संवैधानिक अपेक्षाओं की खुलेआम की अवहेलना हो रही है ।

इधर एक आशा की किरण भी फूट रही है । आगामी जून, 2003 में सुरीनाम में सप्तम् विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित करने की तैयारियाँ शुरू हो चुकी हैं, जिसका विचाराधीन मुख्य विषय है – ‘विश्व हिंदी : नई शताब्दी की चुनौतियाँ’ । विगत विश्व हिंदी सम्मेलनों के संदर्भ में अध्ययन से यह बात स्पष्ट होती है कि ऐसे सम्मेलनों के बहाने बढ़ रहे भावावेश के अनुपात में हिंदी का हितवर्धन नहीं हो पा रहा है । अंग्रेज़ी का गढ़ ब्रिटेन साम्राज्य की राजधानी लंदन में संपन्न छठे विश्व हिंदी सम्मेलन का पटाक्षेप हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्यता दिलाने की दिशा में प्रयास शुरू करने के निष्कर्ष के साथ हुआ था । लंदन में संपन्न सम्मेलन की तमाम विसंगतियों के संदर्भ में कई गण्य-मान्य हिंदी हितचिंतकों की आलोचनाओं से बचने की दिशा में अवश्य चिंतन करेंगे, ऐसी आशा है । स्वाधीनता प्राप्ति की आधी सदी के बाद भी भाषाई उपनिवेशवाद के शिकार होनेवाले भारत को हिंदीमय बनाने के लिए अपेक्षित भावभूमि तैयार करने की ओर सम्मेलन का ध्यान जाएगा तो अवश्य ही सम्मेलन की प्रासंगिकता बढ़ेगी ।

मौजूदा वास्तविकता को देखते हुए यह कहना अनुचित न होगा कि भारतीय मानसिकता व्यवहार के धरातल पर आज काफ़ी हद तक पराई भाषा के पक्ष में है । देश में अंग्रेज़ी के हित में काफ़ी कुछ किया जा रहा है । अब अंग्रेज़ी के विरुद्ध करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है, किंतु हिंदी के हित में कार्य करने से वंचित रहने से बढ़कर कोई बड़ा ढोंग नहीं रह जाएगा । हिंदी के हित में ‘करो या मरो’ यही मूल भावना मनसा-वाचा-कर्मणा हिंदी के लिए हितवर्धक है ।

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