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मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

लघुकथा सलिला: भिखारी - गुरुनाम सिंह 'रीहल'

मन्दिर के पास ही भिखारी की आवाज़ सुनकर वह रुका...'मालिक! कुछ देते जाइए. दो दिनों का भूखा हूँ. ईश्वर आपकी मुराद जरूर पूरी करेगा.'

'जा, जा बड़ा आया दुआ देनेवाला...पहले खुद खा-पी ले. भला-चंगा है, मुस्टंडा महीन का..क्या तुमसे काम-धाम नहीं होता? इस प्रकार भीख माँगने में शर्म नहीं आती तुमको? -बडबडाते हुए वह मंदिर की ओर बढ़ गया.

भगवान की मूर्ति के सामने उसने सर झुकाया और क़तर स्वर में गिडगिडाया- 'प्रभु! तुम ही मेरे सहारे हो। मैं तुमसे कृपा की भीख मांगता हूँ। मेरा भाग्योदय तुम्हारे ही हाथ में है। इस बार मुझे टिकिट मिल ही जानी चाहिए। पिछले दो चुनाव यूं ही हाथ से निकल गए और मैं अपनी बदकिस्मती पर आँसू बहता रह गया. तुम दाता हो, मैं भिखारी. जब तुम्हारी कृपा से कंगले की लाटरी खुल सकती है तो मैंने तुम्हारा क्या बिगाडा है? तुम्हें पार्टी अध्यक्ष का ह्रदय परिवर्तन करना होगा और विधायक बनाकर मेरी नैया पार लगनी होगी' - यह कहते-कहते वह भगवान की मूर्ति के पैरों से लिपट गया.
भिखारी कौन यह या वह? सोच रही थीं मंदिर की दीवारें.

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