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मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

ग़ज़ल सलिला: मनु बतखल्लुस

जुनूने-गिरिया का ऐसा असर भी, मुझ पे होता है

कि जब तकिया नहीं मिलता, तो दिल कागज़ पे रोता है

अबस आवारगी का लुत्फ़ भी, क्या खूब है यारों,

मगर जो ढूँढते हैं, वो सुकूं बस घर पे होता है

तू बुत है, या खुदा है, क्या बला है, कुछ इशारा दे,

हमेशा क्यूँ मेरा सिजदा, तेरी चौखट पे होता है

अजब अंदाज़ हैं कुदरत, तेरी नेमत-नवाजी के

कोई पानी में बह जाता, कोई बंजर पे रोता है

दखल इतना भी, तेरा न मेरा उसकी खुदाई में

कि दिल कुछ चाहता है, और कुछ इस दिल पे होता है
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