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गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

गीत : पारस मिश्रा

वंश डूबा देंगे कबीर का,
ऐसे लक्षण हैं कमाल में।
उजियारा कम धुआं बहुत है-
इस अवसरवादी मशाल में।

भीड़ तंत्र की नृत्य-मंडली।
टेढी सी लगती अंगनाई।
रह-रह बजे बीन पछुओं की,
लिए मुहर्रम होली आयी।
पात-पात पर टंगी-झूमती, सी -
आकाश-बेल की मस्ती।
मुर्दों के श्रृंगार-साज में-
व्यस्त-त्रस्त जीवन की बस्ती।
अंगारों से प्रश्न दहकते,
टहनी पर उडती गुलाल में...

पनप रही बरगद के नीचे-
नेतागीरी-नौकरशाही।
भाषण, कुर्सी, फाइल, फीते-
छीना-झपटे, हाथा-पायी।
औंधे मुंह बुनियादी ईंटें-
गाती हैं गाथा मुंडेर की।
सारा खेत चारे जाते हैं-
गधे ओढ़कर खाल शेर की।
असली राजहंस लगते हैं-
सारे बगुले चाल-ढाल में...

अब भी देश निरा नंगा है,
जिन्दा है, अभाव रोटी का।
फ़िर भी कर्णधार रखता है-
ज्यादा ध्यान लाल गोटी का।
दूध-धुली मोहक प्रतिश्रुतियाँ-
सिद्धांतों पर जमी मेल है।
आश्वासन की पतिव्रताये-
जाने कितनों की रखैल हैं?

लटके चम्गादड से वादे-
पात-पात में, डाल- डाल में...

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