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मंगलवार, 13 जुलाई 2010

कृति चर्चा: 'कुछ मिश्री कुछ नीम' एक सारगर्भित मुक्तक संग्रह चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

कृति चर्चा:

'कुछ मिश्री कुछ नीम' एक सारगर्भित मुक्तक संग्रह

चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संपादक दिव्य नर्मदा अंतर्जाल हिन्दी पत्रिका
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{कृति विवरण: कुछ मिश्री कुछ नीम, मुक्तक संग्रह, मुक्तककार: चन्द्रसेन 'विराट', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द, पृष्ठ १४४, मूल्य २५० रु., प्रकाशक: समान्तर प्रकाशन तराना उज्जैन, रचनाकार संपर्क: समय, १२१ बैकुंठधाम कोलोनी, इंदौर ४५२०१८, दूरभाष: ०७३१ २५६२५८६, चलभाष: ९३२९८९५५४०.}
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विश्व वाणी हिन्दी को अपनी संस्कृत माँ से विरासत में मिले चांदस कोष अक जाज्वल्यमान रत्न है 'मुक्तक'. श्रव्य काव्य की पद्य शाखा के अंतर्गत मुक्तक काव्य गणनीय है. महापात्र विश्वनाथ (१३ वीं सदी) के अनुसार 'छन्दोंबद्धमयं पद्यं तें मुक्तेन मुक्तकं'  अर्थात जब एक पद अन्य पदों से मुक्त हो तब उसे मुक्तक कहते हैं. मुक्तक का शब्दार्थ ही है 'अन्यै: मुक्तमं इति मुक्तकं' अर्थात जो अन्य श्लोकों या अंशों से मुक्त या स्वतंत्र हो उसे मुक्तक कहते हैं. अन्य छन्दों, पदों ये प्रसंगों के परस्पर निरपेक्ष होने के साथ-साथ जिस काव्यांश को पढने से पाठक के अंत:करण में रस-सलिला प्रवाहित हो वही मुक्तक है- 'मुक्त्मन्यें नालिंगितम.... पूर्वापरनिरपेक्षाणि हि येन रसचर्वणा क्रियते तदैव मुक्तकं'

प्रबंध काव्यों, गीतों आदि में कवि की कल्पनाशीलता को पात्रों तथा घटनाक्रमों के आकाश में उड़ान भरने का अवसर सुलभ होता है किन्तु मुक्तक की संकुचित-लघु पंक्तियों में भावों, रसों, बिम्बों, प्रतीकों आदि का परिपाक कर सकना कवि के रचना कौशल की कड़ी परीक्षा है. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में: 'जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ-साथ भाषा की समास शक्ति जितनी ही अधिक होगी, उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा.'

समकालिक हिन्दी गीति-काव्य के शिखर हस्ताक्षर अभियंता श्री चन्द्रसेन 'विराट' के १३ गीत संग्रहों, १० ग़ज़ल संग्रहों, २ दोहा संग्रहों, ५ मुक्तक संग्रहों पट दृष्टिपात करें तो उनके समृद्ध शब्द-भंडार, कल्पनाप्रवण मानस, रससिक्त हृदय, भाव-बिम्ब-प्रतीक त्रयी के समायोजन की असाधारण क्षमता का लोहा मानना पड़ता है. निपुण अभियंता 'चन्द्रसेन' जिस तरह विविध निर्माण सामग्रियों का सम्यक समायोजन कर सुदृढ़ संरचनाओं को मूर्तित कर भारत को समृद्ध करते रहे ठीक वैसे ही उनके अन्दर विराजित 'विराट' काव्य के विविध उपादानों का सम्यक समन्वय कर विविध विधाओं, विषयों और कथ्यों से हिन्दी के सारस्वत कोष को संपन्न करने में जिउया रहा.

कुछ मिश्री कुछ नीम के मुक्तक जीवन की धूप-छाँव, सुख-दुःख, उन्नति-अवनति, उत्थान-अवसान, आगमन-प्रस्थान के दो पक्षों का प्रतिनिधित्व करने पर भी अथाह विश्वास, अनंत ऊर्जा, असीम क्रियाशीलता, अनादि औत्सुक्य तथा अगणित आयामों के पञ्च अमृतों से परिपूर्ण हैं, उनमें कहीं हताशा, निराशा, कुंठा, घृणा या द्वेष के पञ्च विकारों का स्थान नहीं है. विराट के चिन्तन में वैराट्य और औदार्य निरंतर दृष्टव्य है. वे ऊर्ध्वारोहण के पक्षधर हैं, अधोगमन की चर्चा नितांत आवश्यक हो तो भी इंगित मात्र से संकेतित करते हैं. इस मुक्तक संग्रह के उत्तरार्ध 'कुछ मिश्री' के कुछ मधुर मुक्तकों का आनंद लें:

थोड़ा तुभ की ओर देखो तो
कितना रती विभोर देखो तो
कितनी तीखी है धार हँसिये की
दूकी चन्द्र-कोदेखो तो
*
ज्ञान के घट का उठना बाकी है.
यवनिका-पट का उठना बाकी है
प्रकृति के कितने ही रहस्यों से
अब भी घूँघट का उठना बाकी है.
*
वसर है दृग मिला लेंगे.
प्यार को पने जमा लेंगे.
कोरा कुरता है पना भी
कोरी चूनर पे रंग डालेंगे.
*
क्षिणी, वाम न देखा जाये
ख्याति, पद-ना देखा जाये
ग्रन्थ रखें कि पुरस्कारों हित
न्य याम न देखा जाये.

विराट को अनुप्रास तथा उपमा अलंकारों का सानिंध्य प्रिय है. मुक्तकों में अनुप्रास और उपमा के सभी प्रकार जाने-अनजाने प्रयुक्त हुए हैं. उनके ये मुक्तक १७-१९ मात्राओं में निबद्ध होने पर भी लय वैविध्य से सलिला की चंचल लहरों की सी गतिशीलता की अनुभूति कराते हैं.

संकलन के हर मुक्तक में प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ पंक्ति में अन्त्यानुप्रास (पदांत-तुकांत) को विराट सहजता से साध सके हैं, वह कहीं भी आरोपित प्रतीत नहीं होता. यह अन्त्यानुप्रास एक शब्द से लेकर ४-५ शब्दों तक का है. उक्त मुक्तकों में  क्रमशः 'ओर देखो तो, भोर देखो तो, कोर देखो तो', 'घट का उठना बाकी है, पट का उठना बाकी है, घट का उठना बाकी है', 'ला लेंगे, मा लेंगे, डालेंगे', वाम न देखा जाये, नाम न देखा जाये, याम न देखा जाये'   में अन्त्यानुप्रास अलंकार दृष्टव्य हैं.

छेकानुप्रास किसी पंक्ति में एक या अधिक वर्णों की दुहरी आवृत्ति से होता हैं. छेकानुप्रास की छटा उक्त उदाहरणों में देखिये: त- तु तो, क- कि क, क- कि की, द- दू दे, क- की को, क- के का, क- के कि, अ- आ अ, अ- अ आ, क- को कु, अ- आ अ, द- द दे, न- ना न, प- प पु, अ- अ आ आदि.

वृन्त्यानुप्रास : तुम ही कुम्हलाई हुई लगती हो, खूब सादा हो हज सुन्दर हो, सुख तो घटता है मय के सँग-सँग, क्रूर दुनिया को सुखी रती हो,  साजो-सामान से डर लगता है, दोस्त हों न मगर होने की, जानता हूँ वान जिस्मों की आदि पंक्तियों में रेखांकित शब्दों में वृत्यानुप्रास लगातार शब्दों में भी है और अलग-अलग प्रयुक्त शब्दों में भी.

इन मुक्तकों के सरस और मधुर बनने में श्रुत्यानुप्रास की भी महती भूमिका है:एक उच्चारण-स्थल से उच्चारित होनेवाले वर्ण समूह की आवृत्ति से उत्पन्न श्रुत्यानुप्रास अलंकार की झलक  थोड़ा तुभ की ओर देखो तो, कितनी तीखी है धार हँसिये की, दूज की चन्द्र-कोर देखो तो आदि पंक्तियों में समाहित है.

विराट के मुक्तकों का एक वैशिष्ट्य समान उच्चारण तथा भार के शब्दों का विविध पंक्तियों में एक समान स्थान पर आना है. ऐसे शब्द अर्थवत्ता प्रदान करने के साथ-साथ नाद सौन्दर्य की अभिवृद्धि भी करते हैं. निम्न मुक्तकों में शर्मदा, सर्वदा, नर्मदा तथा तबस्सुम, तलातुम, तरन्नुम ऐसे ही शब्द हैं जिनका प्रयोग विराट ने उसी तरह किया जिस तरह कोई चित्रकार विविध तूलिकाघातों का प्रयोग अभिन्नता में भिन्नता दर्शाने हेतु करता है.

शील की शर्मदा मिली मुझको
सौख्यदा सर्वदा मिली मुझको
भाग्यशाली हूँ तुम सरीखी जो
नेह की नर्मदा मिली मुझको.
*
हर तबस्सुम को तुम समझती हो.
हर तलातुम को तुम समझती हो.
जानता हूँ जवान जिस्मों की -
हर तरन्नुम को तुम समझती हो.

लाटानुप्रास ( एक शब्द की समान अर्थ में एकाधिक आवृत्ति ) रंग ही रंग नज़र आयेंगे, अपना प्यारा करीब होता है / हर सहारा करीब होता है / डूब जाती है नाव तब अक्सर / जब किनारा करीब होता है, प्राकृतिक रूप सलज सुन्दर हो / खूब सादा हो, सहज सुन्दर हो / कुछ न श्रृंगार न सज-धज जैसे / ओस भीगा सा जलज सुन्दर हो,  लिख दूँ किरणों से धूप का मुक्तक / रूपवाले अनूप का मुक्तक / आँख भरकर तुम्हें निहारूं तो / मुझको लिखना है रूप का मुक्तक, फागवाले प्रसंग की कविता / रंग पर है ये रंग की कविता / भीगे वस्त्रों ने स्पष्ट लिख दी है / अंग पर यह अनंग की कविता आदि  में खूबसूरती से प्रयुक्त हुआ है. अंतिम दो मुक्तकों में ३-३ बार लतानुप्रस का प्रयोग विराट जी के भाषा व छंद पर असाधारण अधिकार का साक्षी है.

उपमा अलंकार में विराट के प्राण बसते हैं. वे अपनी प्रेरणा के लिये अछूती और मौलिक उपमाएँ प्रयोग में लाते हैं तो पारंपरिक और प्रचलित उपमाओं से भी उन्हें परहेज़ नहीं है. तुम भी मुझ सी ही काम-काजी हो (७२), एक दर्पण सा चटख जाता मैं (७४) आदि में पूर्णोपमा, फूल के जैसे खिले रहने दो (७७), पूर्ण मुकुलित सा विमल होता है (४६) आदि में लुप्तोपमा की मोहक छवि एक ही पंक्ति में है जबकि 'भाग्यशाली हूँ तुम सरीखी जो / नेह की नर्मदा मिली मुझको' तथा अन्यत्र पूर्णोपमा दो पंक्तियों में है.

संग्रह के 'कुछ मिश्री' तथा 'कुछ नीम' शीर्षकों दो खंडों में क्रमशः १५१ तथा २६२ कुल ४१३ मुक्तक-रत्नों से समृद्ध यह विराटी मंजूषा हर सुरुचिसंपन्न पाठक को लुभाने में समर्थ है. विराट के ये मुक्तक नवोंमेषित उक्तियों के भंडार हैं. 'शब्द का जाप नहीं है कविता (१६३), तुम सचाई को गुन नहीं सकते (१७२), जो गलत हो सही नहीं बनता (१३९), फन ग़ज़ल का है खुदा की नेमत (१३८), रूप पीने से जी नहीं भरता (११८), प्रेम में ब्रम्ह का आनंद मिला (१०७) जैसे मुक्तकांश स्वतंत्र रूप से उक्तियों की तरह जुबान पर चढ़ने में समर्थ हैं.

गुरुत्वाकर्षण तथा बल के नियमों जैसी अनेक महत्वपूर्ण शोधें करनेवाले महान वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन को यह समझने में कठिनाई हुई कि जिस बड़े छेद में से बिल्ली निकल सकती है उसी में से उसका छोटा बच्छा भी निकल सकता है, बच्चे के लिये अलग से छोटा छेद बनाने की ज़रुरत नहीं है. इसका कारण मात्र यह है कि गूढ़ के समाधान में उलझा मस्तिष्क सहज स्तर पर नहीं उतर पाया. ऐसा ही विराट के साथ भी है. वे जिस भाव शिखर पर ध्यानस्थ रहते हैं वहाँ सामान्य भाषिक शुद्धताओं की अनदेखी स्वाभाविक है. 'ब्रम्ह की राह सुझाई देगी' एक अशुद्ध प्रयोग है, 'राह' के साथ 'सुझाई जाती' या 'दिखाई देती' प्रयोग शुद्ध होता.  पिन्हाने, सपन, तिराने (१७४), लंगौटा (१६७), तयारी (२४३), रस्ते (२२३), तयार (२०४) आदि अशुद्ध प्रयोग विराट की संस्कारी हिन्दी के मखमल में टाट का पैबंद लगते हैं. 'जाए' के स्थान पर 'जाये' का अशुद्ध प्रयोग भी एकाधिक स्थान पर है. 'जाए' का अर्थ 'गमन करना' और 'जाये' का अर्थ 'जन्म दिया' होता है. यह मुद्रण त्रुटि है तो भी नए पाठकों/ रचनाकारों को भ्रमित कर गलत प्रयोग बढ़ाएगी. विराम चिन्हों का प्रयोग न किया जाना भी विचारणीय है. विराट जी की कृतियाँ भाषिक प्रयोग के लिए मानकों की तरह देखी जाती हैं इसलिए अधिक सावधानी की अपेक्षा स्वाभाविक है.  

संबंधों को वस्त्रों की तरह बदलने के इस दौर में विराट की सात्विक प्रेमपरक दृष्टि तथा सनातन मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता मुझ जैसे अनुजों और नयी पीढी के रचनाकारों के लिये अनुकरणीय है. विराट दैनंदिन छोटे-छोटे प्रसंगों से गहन सत्यों को उद्घाटित करनें में समर्थ हैं. बानगी देखिये:

मेरी आँखों में चमक तुमसे है
प्यार की खास दमक तुमसे है
तुम न होतीं तो अलोना होता-
मेर जीवन में नमक तुमसे है.  (इस नमक पर दुनिया की सब मधुरता निछावर, अभिनव और अनूठा प्रयोग)
*
लिख दूँ किरणों से धूप का मुक्तक
रूपवाले अनूप का मुक्तक
आँख भार कर तुम्हें निहारूँ तो
मुझको लिखना है रूप का मुक्तक.  (वसनहीनता को प्रगति समझने वाली पीढी के लिये श्रृंगार की शालीनता, मर्यादा और सात्विकता दृष्टव्य)
*
श्रृंगार के कुशल चितेरे विराट की कलम से व्यंग्य कम ही उतरता है पर जब भी उतरता है, मन को छूता है-

चीजें मँहगी हैं आदमी सस्ते
आज बाज़ार से बड़ा क्या है
*
आज-कल शहर की गरिमा-महिमा
उसके बाज़ार से आँकी जाती
*
बिकती है मौत की सुपारी भी
यह भी बाज़ार का तरीका है
*
दीन सरसब्ज़ न हो जाएँ कहीं
फिर शुरू नब्ज़ न हो जाये कहीं
खूब चिंता है निर्धनों की तुम्हें
भूख को कब्ज़ न हो जाये कहीं.*

उक्त मुक्तकों में समय के पदचापों और उन पर कवि की प्रतिक्रिया को महसूस जा सकता है. 'कम लिखे को अधिक समझना' के पारंपरिक पक्षधर विराट शब्दों का तनिक भी अपव्यय नहीं करते.. हर पंक्ति का हर शब्द सटीक हो तो कविता की अनदेखी की ही नहीं जा सकती.

घर की बैठक में पुष्प डाली हो
तुलसी आँगन की दीप वाली हो
अन्नपूर्ण हो तुम रसोई में
सेज पर तुम ही आम्रपाली हो.

अपने मुक्तकों का वैशिष्ट्य उद्घाटित करते हुए विराट कहते हैं:

कल्पनाएँ तो विरल हैं मेरी
मान्यताएँ भी प्रबल हैं मेरी
देवता सुन कि मनुज मैं अब तक
आस्था दृढ़ है अचल है मेरी.

ऐसी दृढ़, अचल आस्था, प्रबल मान्यता और विरल कल्पना हर हिन्दी प्रेमी की हो मा शारदा से यही विनय है.

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
२०४ विजय अपार्टमेन्ट, नेपिअर टाउन. जबलपुर ४८२००१
०७६१ २४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४.

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