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बुधवार, 14 जुलाई 2010

दोहा सलिला: संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

संजीव 'सलिल'
*
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*
दिव्या भव्य बन सकें, हम मन में हो चाह.
'सलिल' नयी मंजिल चुनें, भले कठिन हो राह..
*
प्रेम परिश्रम ज्ञान के, तीन वेद का पाठ.
करे 'सलिल' पंकज बने, तभी सही हो ठाठ..
*
कथनी-करनी में नहीं, 'सलिल' रहा जब भेद.
तब जग हमको दोष दे, क्यों? इसका है खेद..
*
मन में कुछ रख जुबां पर, जो रखते कुछ और.
सफल वही हैं आजकल, 'सलिल' यही है दौर..
*
हिन्दी के शत रूप हैं, क्यों उनमें टकराव?
कमल पंखुड़ियों सम सजें, 'सलिल' न हो बिखराव..
*
जगवाणी हिन्दी हुई, ऊँचा करिए माथ.
जय हिन्दी, जय हिंद कह, 'सलिल' मिलाकर हाथ..
*
छंद शर्करा-नमक है, कविता में रस घोल.
देता नित आनंद नव, कहे अबोले बोल..
*
कर्ता कारक क्रिया का, करिए सही चुनाव.
सहज भाव अभिव्यक्ति हो, तजिए कठिन घुमाव..
*
बिम्ब-प्रतीकों से 'सलिल', अधिक उभरता भाव.
पाठक समझे कथ्य को, मन में लेकर चाव..
*
अलंकार से निखरता, है भाषा का रूप.
बिन आभूषण भिखारी, जैसा लगता भूप..
*
रस शब्दों में घुल-मिले, करे सारा-सम्प्राण.
नीरसता से हो 'सलिल', जग-जीवन निष्प्राण..
*

15 टिप्‍पणियां:

Pankaj Trivedi ने कहा…

सर, किन शब्दों में शुक्रगुजार करूँ? बातें भले ही कम हो, मगर सम्मान और प्यार कभी कम नहीं होता | मेरे लिए आपने कविता लिखी थी, आज भी दिल में है...

Mahaveer Jain ने कहा…

Mahaveer Jain
sunder....

शकुन्तला बहादुर ने कहा…

दोहे सार्थक और रोचक हैं। साधुवाद!!

शकुन्तला बहादुर

Manoshi Chatterjee ने कहा…

प्रेम परिश्रम ज्ञान के, तीन वेद का पाठ.
करे 'सलिल' पंकज बने, तभी सही हो ठाठ..

ये अच्छा लगा।


सादर
मानोशी
www.manoshichatterjee.blogspot.com

बेनामी ने कहा…

: Pratap Singh
आदरणीय आचार्य जी

दोहे बहुत सुन्दर हैं.

कुछ दोहों में मात्रा और विन्यास के कारण प्रवाह बाधित हो रहा है.
एक बार पुनः देखने का कष्ट कीजिये-
दिव्या भव्य बन सकें, हम मन में हो चाह..........पहले चरण में एक मात्रा कम हो रही है.

मन में कुछ रख जुबां पर, जो रखते कुछ और....पहले चरण में विन्यास ठीक नहीं लग रहा है

कर्ता कारक क्रिया का, करिए सही चुनाव......पहले चरण में विन्यास ठीक नहीं लग रहा है

बिन आभूषण भिखारी,........विन्यास ठीक नहीं लग रहा है.

सादर
प्रताप

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

आत्मीय मानोशी जी, प्रताप जी.

वन्दे मातरम.

आपने दोहों को सराहा धन्यवाद.

प्रथम पंक्ति में 'भव्या' था किन्तु टंकण त्रुटि से 'भव्य' हो गया है. शेष टी पंक्तियों पर विन्यास संशोधन में माननीय प्रताप जी से मार्गदर्शन हेतु अनुरोध है.

- ahutee@gmail.com ने कहा…

अति सुन्दर एवं ज्ञानवर्धक दोहे | साधुवाद !
सादर,
कमल

asheesh sahu ने कहा…

बहुत ही बढ़िया लागल आप के दोहा आ ई सिख भी देत बा की अगर केहू कुछ लिखल चाहो त ओके का करे के चाही..

- ahutee@gmail.com ने कहा…

प्रिय वर्मा जी,
आपके विचारों से मैं सहमत हूँ और उनका समर्थन करता हूँ | मेरा मानना है कि
ग़ज़ल और कविता ये दो अलग विधाएं हैं | हिंदी में ग़ज़ल या नज़्म की भाँति
हिंदी की साहित्यिक द्रष्टि से यदि रचना की गई है और उसमें यथासंभव हिंदी
शब्दों का ही प्रयोग किया गया है तो मैं उसे हिंदी काव्य या कविता की एक शाखा
ही कहूँगा | वैसे भी हिंदी कविता अब कई नये नये कलेवर ले कर आ रही है | रचना
का भाव-प्रवाह शब्द-संयोजन और उसकी आत्मा यदि हिंदी साहित्य की परम्पराओं
के अनुरूप है तो विविध शैली वाली ऐसी कृति को हिंदी कविता की तरह ही मान्यता
दी जाय उसे ग़ज़ल या नज़्म न कहा जाय | ग़ज़ल या नज़्म का उद्भव अरबी भाषा
से हुआ और उसका एक कठोर और निर्धारित व्याकरण है | जिन्हें ग़ज़ल कह कर
प्रकाशित किया जा रहा है उस पर अरबी व उर्दू के कई विद्वानों को आपत्ति है | ख़ास
कर ग़ज़ल कहना हर एक के बस की बात नहीं | इसके लिये समुचित अध्ययन ,
प्रशिक्षण और मंजे हुए ग़ज़लकारों के मार्गदर्शन की आवश्यकता है | हिंदी उर्दू की
खिचड़ी में तुकबंदी वाले शेर लिये थोक में झोंकी जा रही तथाकथित ग़ज़लें हिंदी
और अरबी/उर्दू दोनों के ही साहित्य का अपमान हैं | विद्व्द्जन इस पर ध्यान
दें | यह मेरे निजी विचार हैं किसी की कृति पर आक्षेप नहीं |
क्षमाप्रार्थी,
कमल

achal verma ekavita ने कहा…

भाई प्रताप जी, शुक्ल जी,एवं मदन मोहन जी,
आप लोगो के सुझाओं से मैं पूर्णतया सहमत हूँ |
मैं सच्चे मायनों में कवि नहीं , और आप लोगों की कवितायें पढ़कर तो
लगता है मैं कविता का ककहरा भी नहीं जानता | लेकिन सीखना मेरा ध्येय है,
और इसमें मैं आप सभी का धन्यबाद करना चाहता हूँ , जो प्रोत्साहित करते हैं |
लेकिन मैं हताश अवश्य हूँ की हमारे दिलों में हिंदी के लिए कोई सम्मान नहीं बचा है|
उर्दू से मुझे कोई झगड़ा नहीं , पर हमारी मातृभाषा तो हिंदी ही हो सकती है और है |
यह हमारी राष्ट्र भाषा भी नहीं हो पा रही है , अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तो इसे क्या ही प्रतिष्ठा मिलेगी |
हमारी कोशिश होनी चाहिए इसका उत्थान हो , हम कर सकते हैं , पर हम अपना पथ भूल गए हैं और आने वाली पीढीयों के लिए हम अक्षम्य अपराध कर रहे हैं | संस्कृत का ह्रास हुआ , संस्कृति भी अवनति के पथ पर है, और हम बढ़ावा दे रहे हैं अन्य भाषाओं को |
इस मंच से बहुत आशाएं हैं, क्योंकी इसमें राकेश जी, प्रतिभा जी, कमल जी, शकुन्तला जी, आचार्य सलिल, खलिश जी जैसी हस्तियाँ मौजूद हैं | गज़ले लिखें, पर क्या हिंदी के शब्द नहीं ढूंढ पाते आप, की शब्दार्थ बताना पड़ता है| जहां चाह वहां राह |
बुरा न माने कोई भी , इसी प्रार्थना के साथ ,

भवदीय अचल का सादर नमन|

achal verma ekavita ने कहा…

भाई प्रताप जी, शुक्ल जी,एवं मदन मोहन जी,
आप लोगो के सुझाओं से मैं पूर्णतया सहमत हूँ |
मैं सच्चे मायनों में कवि नहीं , और आप लोगों की कवितायें पढ़कर तो
लगता है मैं कविता का ककहरा भी नहीं जानता | लेकिन सीखना मेरा ध्येय है,
और इसमें मैं आप सभी का धन्यबाद करना चाहता हूँ , जो प्रोत्साहित करते हैं |
लेकिन मैं हताश अवश्य हूँ की हमारे दिलों में हिंदी के लिए कोई सम्मान नहीं बचा है|
उर्दू से मुझे कोई झगड़ा नहीं , पर हमारी मातृभाषा तो हिंदी ही हो सकती है और है |
यह हमारी राष्ट्र भाषा भी नहीं हो पा रही है , अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तो इसे क्या ही प्रतिष्ठा मिलेगी |
हमारी कोशिश होनी चाहिए इसका उत्थान हो , हम कर सकते हैं , पर हम अपना पथ भूल गए हैं और आने वाली पीढीयों के लिए हम अक्षम्य अपराध कर रहे हैं | संस्कृत का ह्रास हुआ , संस्कृति भी अवनति के पथ पर है, और हम बढ़ावा दे रहे हैं अन्य भाषाओं को |
इस मंच से बहुत आशाएं हैं, क्योंकी इसमें राकेश जी, प्रतिभा जी, कमल जी, शकुन्तला जी, आचार्य सलिल, खलिश जी जैसी हस्तियाँ मौजूद हैं | गज़ले लिखें, पर क्या हिंदी के शब्द नहीं ढूंढ पाते आप, की शब्दार्थ बताना पड़ता है| जहां चाह वहां राह |
बुरा न माने कोई भी , इसी प्रार्थना के साथ ,

भवदीय अचल का सादर नमन|

pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी

दोहे बहुत सुन्दर हैं.

कुछ दोहों में मात्रा और विन्यास के कारण प्रवाह बाधित हो रहा है.
एक बार पुनः देखने का कष्ट कीजिये-
दिव्या भव्य बन सकें, हम मन में हो चाह..........पहले चरण में एक मात्रा कम हो रही है.

मन में कुछ रख जुबां पर, जो रखते कुछ और....पहले चरण में विन्यास ठीक नहीं लग रहा है

कर्ता कारक क्रिया का, करिए सही चुनाव......पहले चरण में विन्यास ठीक नहीं लग रहा है

बिन आभूषण भिखारी,........विन्यास ठीक नहीं लग रहा है.

सादर
प्रताप

pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी

दोहा के जो नियम लिखित रुप में सर्वत्र उपलब्ध हैं वे बहुत ही सीमित हैं. प्रायः यह बात दोहा के नियमों में लिखित रुप में प्रायः नहीं मिलती है. किन्तु दोहे के सारे २३ प्रकारों में इस नियम का पालन किया जाता है. यह है "स्वतंत्र अनिवार्य लघु" का नियम. दोहे के हर चरण में एक स्वतंत्र अनिवार्य लघु होता है. यह लघु हर चरण में ११वी मात्रा होती है. यह लघु किसी भी दूसरे लघु के साथ कोई युग्म नहीं बनाता है. यदि दोहे के सबसे मानक रुप "भ्रमर" को देखा जाय तो यह बात अधिक स्पष्ट होती है. भ्रमर दोहे में २२ दीर्घ और ४ लघु होते हैं-

कोई कैसे क्या करे, क्यों पावे आनन्द ।
२ २ २ २ २ १ २ २ २ २ २ २ १
आंसू डूबी सृष्टि में, हैं कष्टों के छंद
२ २ २ २ २ १ २ २ २ २ २ २१

ये चारो लघु स्वतंत्र अनिवार्य लघु हैं. ये सदैव यहीं पर आएँगे. ये कभी भी विस्थापित नहीं होंगे. दोहे के बाकी रुप इसी रुप से विकसित हुए हैं. जिनमे एक दीर्घ मात्रा को २ लघु की तरह या फिर ३ दीर्घ मात्राओं को १ लघु-१ दीर्घ के युग्म की तरह प्रयोग किया जाता है.

देखिये-
रे नृप बालक काल वश बोलत तुहि न संभार
२ १ १ २ १ १ २ १ १ १ २ ११ १ १ १ १ २ १
मेरी भव बाधा हरो राधा नागरि सोइ
२ २ १ १ २ २ १ २ २ २ २ १ १ २ १
यहाँ सारी लघु मात्राए दूसरे लघु के साथ मिलकर दीर्घ बना रही हैं. किन्तु ग्यारहवीं मात्रा (लाल रंग में ) स्वतंत्र लघु है.

अब इन्हे देखिये --

चरन धरत चिंता करत
१ १ १ १ १ १ २ २ १ १ १
१ २ १ २ २ २ १ २

पतिनु राति चादर चुरी
१ १ १ २ १ २ १ १ १ २
१ २ २ १ २ २ १ २

यहाँ पहले तो २ लघु मिलकर दीर्घ बना रहे हैं. फिर १ लघु और १ दीर्घ , दूसरे लघु और दीर्घ के साथ मिलकर युग्म बना रहे हैं. किन्तु स्वतंत्र अनिवार्य लघु सदैव अपने स्थान पर रहता है. वह किसी के साथ कोई युग्म नहीं बनाता है.

आपके इन दोहों में स्वतंत्र लघु ११ वीं की जगह ९ वीं मात्रा पर आ रहा है, जिससे प्रवाह बाधित हो रहा है.

मन में कुछ रख जुबां पर,

कर्ता कारक क्रिया का,

बिन आभूषण भिखारी,..

सादर

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

प्रताप जी,
दोहा विधा की सूक्ष्मताओं से परिचय करने के लिए धन्यवाद!
सादर
अमित

Divya Narmada ने कहा…

girish pankaj said...

dohe parh kar aapke,milaa nayaa utsah,
kuchh mai bhi aisa likhoon, log kar uthen vaah..
badhai