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सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

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बापू का एक पाप
DSCN1502एक दिन बापू शाम की प्रार्थना सभा में बोलते-बोलते बहुत ही व्यथित हो गए। उन्होंने कहा, “जो ग़लती मुझसे हुई है, वह असाधरण और अक्षम्य है। कई बरस पहले मुझे इसका पता लगा, पर तभी मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया। इस कारण से कई वर्ष नष्ट हो गए। मुझसे बहुत बड़ा पाप हो गया है। अपनी गफ़लत से मैंने अपनी उस ग़लती को देख कर भी नहीं देखा। उससे फ़ायदा नहीं उठाया। दरिद्रनारायण की सेवा का जिसने व्रत ले रखा हो, उससे इस प्रकार की ग़फ़लत और लापरवाही किसी तरह भी नहीं होनी चाहिए। अगर उस दिन ही मैंने यह ग़लती सुधार लिया होता, तो इन बीते सालों में दरिद्रनारायण की जो क्षति उस ग़फ़लत के कारण हुई है, वह न हो पाती।”
सभा में सब लोग सन्न होकर बापू के व्यथित स्वर और आत्मग्लानि से भरे हुए शब्दों को सुन रहे थे। लोगों के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक था कि कौन-सी वह बात है जिसके लिए बापू को इतनी लम्बी और कठोर भूमिका बांधनी पड़ रही है। बापू ने कौन-सा ऐसा काम कर डाला कि उसे वे पाप की संज्ञा दे रहे हैं।
बापू ने अपना पाप बताया। लोग रोज़ जो दातून इस्तेमाल करके फेंक देते हैं, उनको भी काम में लाया जा सकता है। यह विचार कुछ साल पहले उनके मन में आया था। पर उस विचार को कार्य रूप में परिणत करना वे भूल गए थे। यह उनकी दृष्टि में अक्षम्य अपराध था। एक भयंकर पाप था! उस दिन अचानक उनका ध्यान उस ओर गया। बापू साधारण से साधारण कामों में यह देखते थे कि किस तरह से कम से कम ख़र्च जो। कैसे अधिक से अधिक बचत हो। ताकि दरिद्र ग्रामवासी उस आदर्श को अपना कर अपनी ग़रीबी का बोझ कुछ कम कर सकें।
उस दिन उन्होंने इस्तेमाल की गई दातून का सदुपयोग करने का आदेश आश्रमवासियों को दिया। उन्होंने बताया कि इस्तेमाल की हुई दातून को धोकर साफ़ कर लिया जाय और फिर उसे धूप में सुखा कर रख दिया जाए। इस तरह सुखाई हुई दातून मज़े में ईंधन के काम आ सकती है।
बापू ने कुछ लोगों के चेहरे पर शंका मिश्रित आश्चर्य को पढ़ लिया। शंका का समाधान करते हुए उन्होंने कहा, “यह सोचना ग़लत है कि फेंकी हुई दातून का ईंधन एकदम नगण्य होगा। यहां के कुछ दिन के ही प्रवास में मेरे और दल के चार-पांच लोगों ने अपनी-अपनी दातूनों को सुखा कर जितना ईंधन इकट्ठा किया था, उसी से मेरे लिए स्नान के लिए एक लोटा पानी गरम हो गया। अब यदि यहां रहने वाले सभी भाई-बहन साल भर की दातून इकट्ठा कर लें तो कुछ दिनों की रसोई पकाने लायक़ ईंधन तो इकट्ठा हो ही जाएगी। और अगर साल में एक दिन के ईंधन की भी इस तरह से बचत हो जाए तो क्या वह कुछ भी नहीं?”
बापू ने आगे कहा, “गांव वाले की ग़रीबी के बोझ को थोड़ा-थोड़ा भी अगर कम किया जाय, बेकार समझ कर फेंक दी जाने वाली चीज़ों का भी अगर सोच-समझ कर कुछ न कुछ उपयोग निकाला जाय, तो धीरे-धीरे उनका बोझ बहुत कम हो जाएगा, और वे कूड़े को भी सोने में बदलने लगेंगे।”
उसी दिन से कुएँ के पास एक बाल्टी टांग दी गई और उसमें सभी लोग अपनी-अपनी इस्तेमाल की गई दातून अच्छी तरह धोकर डाल देते। उसे धूप में सुखा दिया जाता।

बुंदेली लघुकथा

उड़ा उड़ौवल 

- प्रभुदयाल श्रीवास्तव


बच्चों में बच्चा बनकें खेलबे में कित्तो आनंद जोतो उनईं खों पता होत जोन बच्चों के संगे खेलत हैं|हमाई रोज की आदत है के खाना खाओ औरबच्चा घेर लेत हैं"दादाजी आओ उड़ा उड़ौवल खेलें"बच्चों ने जैसै कई सो हम खेलबे बैठ गये|ई खेल में सबरे बच्चा पाल्थी मार कें बैठ जात हैं और हाथों के पंजा जमीन पर घर देत हैं| एक बच्चा पारी की शुरुवाद करत है और केत है "तोता उड़"और सबरे बच्चा अपनों एक हाथ ऊपर कर देत हैं|बच्चा फिर केत है कौआ उड़ और बच्चे फिर अपनों एक हाथ ऊपर खों तान देत हैं|बच्चा फिर कैत है के घोड़ा उड़,अब जोन के दिमाग के स्क्रू टाइट रेत हैं उनके हाथ ऊपर नईं उठत, कहूं घोड़ा सोई उड़त....|पे जोन अकल के दुश्मन रेत हैं उनके हाथ ऊपर उठ जात हैं| बच्चा चिल्लान लगत............ हो हो हार गये और हारबे वारे खों घूंसा खाने परत|घोड़ा उड़ है तो पेनाल्टी में घूंसा तो खानेई पर हे|

आज कौआ उड़ावे के बाद बच्चों ने कई गधा उड़, और गलती से हमाओ हाथ ऊपर उठ गओ| हम हार चुके ते|बच्चा चिल्लान लगे " दादाजी ने गधा उड़ा दओ दादाजी हार गये हॊ हो ही ही हू हू,"सब जोर सें हँस रये ते|छोटू जोन हमाये सामने बैठो तो हमें चिड़ा रओ तो"दादाजी गधा कैसें उड़ हे ऊके तो पंखई नईं होत|" और हम सोच रयेते के आजकाल गधई तो उड़ रये आसमान में|छुटपन में हमाये संगे जित्ते गधा पड़तते सबई तो उड़ रए आसमान में||कौनऊं भौत बड़ो अफसर बन गओ,कौनऊं विधायक बन गओ और कौनऊं तो मंत्री तक हैं|और इते जो हाल है के हम कौआ बनकें फुदक रये कबऊं ई मुडेर पे कबऊं ऊ मुडेर पे|
 
आभार: साहत्य शिल्पी
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रविवार, 30 अक्तूबर 2011

दोहा सलिला: घुले-मिले दोहा-यमक संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
धूप-छाँव दोहा-यमक
संजीव 'सलिल'
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ताना-बाना यदि अधिक, ताना जाए टूट.
बाना भी व्यक्तित्व का, होता अंग अटूट..
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तंग सोच से तंग मत, हो- रख सोच उदार.
तंग हाथ हो तो 'सलिल', मत बनना दिलदार..
*
पान अमिय या गरल का, करिए सोच-विचार.
पान मान का खाइए, तब जब हो मनुहार..
*
सु-मन सुमन सम सुगंधित, महकाये घर-बाग़.
अमन अ-मन से हो नहीं, चमन चहे अनुराग..
*
करे शब्द-आराधना, कलम न होती मूक.
कलम लगाती बाग़ में, हरियाली की हूक..
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आई ना वह देख पथ, आईना भी गया थक.
अब तो मिलने आइए, थका देख पथ अथक..
*
कर कढ़ाइ घर पलटीं, किन्तु न मानें मात.
खा कढ़ाइ में पाइए, शादी में बरसात..
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कर पढ़ाइ फिर गह 'सलिल', सब विषयों का सार.
जब पढ़ाइ कंठस्थ हो, करती बेडा पार..
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पार कर रहा सड़क तो, दायें-बायें देख.
पार न कर दे पर्स यह, साथ-साथ ले लेख..
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कड़ा-प्रसाद ग्रहण करें, कड़ा पहनकर आप.
पंच ककार न त्यागी, कड़ा नर्म दिल आप.
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सदा सदा देते रहें, नाज़-अदा के साथ.
फ़िदा हुए हम वे नहीं, रहे कभी भी साथ..
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



विशेष आलेख छत्तीसगढ़ में दशहरा की विचित्र परंपराएं - प्रो. अश्विनी केशरवानी

विशेष आलेख

छत्तीसगढ़ में दशहरा की विचित्र परंपराएं

- प्रो. अश्विनी केशरवानी

दशहरा भारत का एक प्रमुख लोकप्रिय त्योहार है। इसे देश के कोने कोने में हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। वास्तव में यह त्योहार असत्य के उपर सत्य का और अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। श्रीराम सत्य के प्रतीक हैं। रावण असत्य के प्रतीक हैं। विजय प्राप्त करने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है और हमें शक्ति मां भवानी की पूजा-अर्चना से मिलती है। इसके लिए अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमीं तक मां दुर्गा की पूजा-अर्चना करते हैं और दसमीं को दस सिर वाले रावण के उपर विजय प्राप्त करते हैं। कदाचित् इसी कारण दशहरा को ‘‘विजयादशमी‘‘ कहा जाता है। वास्तव में रावण अजेय योद्धा के साथ साथ प्रकांड विद्वान भी थे। उन्होंने अपने बाहुबल से देवताओं, किन्नरों, किरातों और ब्रह्मांड के समस्त राजाओं को जीतकर अपना दास बना लिया था। मगर वे अपनी इंद्रियों कों नहीं जीत सके तभी तो वे काम, क्रोध, मद और लोभ के वशीभूत होकर कार्य करते थे। यही उन्हें असत्य के मार्ग में चलने को मजबूर करते थे। इसी के वशीभूत होकर उन्होंने माता सीता का हरण किया और श्रीराम के हाथों मारे गये। श्रीराम की विजय की खुशी में ही लोग इस दिन को ‘‘दशहरा‘‘ कहने लगे और प्रतिवर्ष रावण के प्रतिरूप को मारकर दशहरा मनाने लगे।

यहां यह बात विचारणीय है कि आज हम गांव गांव और शहर में इस दिन रावण की आदमकद प्रतिमा बनाकर जलाकर दशहरा मनाते हैं। इस दिन रावण की प्रतिमा को जलाकर घर लौटने पर मां अपने पति, बेटे और नाती-पोतों तथा रिश्तेदारों की आरती उतारकर दही और चांवल का तिलक लगाती है और मिष्ठान खाने के लिए पैसे देती है। कई घरों में नारियल देकर पान-सुपारी खिलाने का रिवाज है। इस दिन अपने मित्रों, बड़े बुजुर्गों, छोटे भाई-बहनों, माताओं आदि सबको ‘‘सोनपत्ति‘‘ देकर यथास्थिति आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। लोग अपने मित्रों से गले मिलकर रावण मारने की बधाई देते हैं। कहीं कहीं दशहरा के पहले ‘रामलीला‘ का मंचन होता है और रामराज्य की कल्पना की जाती है। रायगढ़ में मथुरा की नाटक मंडली आकर रामलीला का मंचन करती थी। छत्तीसगढ़ में रामलीला के लिए अकलतरा और कोसा बहुत प्रसिद्ध था। इसी प्रकार रासलीला के लिए नरियरा और नाटक के लिए शिवरीनारायण बहुत प्रसिद्ध था। टी.बी. की चकाचौंध ने रामलीला, रासलीला और नाटकों के मंचन को प्रभावित ही नहीं किया बल्कि समाप्त ही कर दिया है। यह एक विचारणीय प्रश्न है।

दशहरा के पूर्व शक्ति की साधना की जाती है। विभिन्न स्थानों में मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की जाती है। आज दुर्गा की झांकियों के लिए बिलासपुर का नाम कलकत्ता के बाद आने लगा है। नवरात्रि में पूरा बिलासपुर दुर्गामय हो जाता है। राजे-रजवाड़े के समय मां दुर्गा की प्रतिमा स्ािापित नहीं किये जाते थे बल्कि देवी मंदिरों में जंवारा बोया जाता था और विशेष पूजा-अर्चना की जाती थी। देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि दी जाती थी। छत्तीसगढ़ के प्रायः सभी रियासतों और जमींदारी में कोई न कोई देवी प्रतिष्ठित हैं जो उनकी ‘कुलदेवी‘ हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि देवियों की पूजा से राजा जहां शक्ति संपन्न होता था वहीं रियाया की सुरक्षा के शक्ति संचय आवश्यक भी था। वे अपनी मान्यता के अनुसार देवी के नाम पर अपनी राजधानी का नामकरण किये हैं। चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी, दंतेवाड़ा की दंतेश्वरी देवी, सारंगढ़ की सारंगढ़हीन देवी और संबलपुर की समलेश्वरी देवी आदि।

छत्तीसगढ़ में प्रमुख रूप से महामाया और समलेश्वरी देवी प्रतिष्ठित हैं। वास्तव में ये दोनों देवी दो प्रमुख रियासत क्रमशः रत्नपुर और संबलपुर की कुलदेवी हैं। छत्तीसगढ़ की रियासतें और जमींदारी या तो रत्नपुर से जुड़ी थी या फिर संबलपुर रियासत से। यहां के सामंत मित्रतावश वहां की देवियों को अपनी राजधानी में स्थापित करके उन्हें अपनी कुलदेवी मान लिए। इसके अलावा यहां अनेक देवियां क्षेत्रीयता का बोध कराती हैं, जैसे- सरगुजा की सरगुजहीन दाई, चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी, डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी देवी, अड़भार की अष्टभुजी देवी, कोरबा की सर्वमंगला देवी, दंतेवाड़ा की दंतेश्वरी देवी, जशपुर की कालीमाई आदि। इन देवियों की प्राण प्रतिष्ठा कई रियासतों और जमींदारी के निर्माण की गाथा से जुड़ी हैं। यहां नवरात्रि में देवियों की विशेष पूजा-अर्चना और दशहरा मनाने की विशिष्ट परंपरा रही है जो आज काल कवलित होती जा रही है। कहीं कहीं इसके अवशेष देखे जा सकते हैं।

सक्ती रियासत में आज भी होती है लकड़ी के तलवार की पूजा:-

इतिहास के पन्नों को उलटने से पता चलता है कि सक्ती रियासत यहां के शासक के शौर्य के प्रदर्शन के फलस्वरूप निर्मित हुआ था। पूर्व में यह क्षेत्र संबलपुरराज के अंतर्गत था। यहां के शासक संबलपुर रियासत की सेना में महत्वपूर्ण ओहदेदार थे और अपनी शूर वीरता के लिए बहुत चर्चित थे। यह दो जुड़वा भाई हरि और गुजर की कहानी है जो लकड़ी के तलवार को अपना हथियार बनाये थे। उसी तलवार से शिकार भी करते थे। जब संबलपुर के राजा कल्याणसाय को पता चला कि उनकी विशाल सेना में दो अधिकारी ऐसे हैं जो लकड़ी की तलवार से लड़ते हैं। तब उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ था। वे विचार करने लगे कि कहीं हमारी सेना का यह तौहीन तो नहीं है ? उन्होंने तत्काल आदेश दिया कि इस वर्ष विजयादशमी पर्व में मां समलेश्वरी में भैंस की बलि उन्हीं जुड़वा भाईयों की तलवार से दी जायेगी। शर्त यह होगी कि भैंस का सिर लकड़ी के तलवार के एक ही वार से कटना चाहिये अन्यथा दोनों भाईयों का सिर कलम कर दिया जायेगा...?

दशहरा के दिन संबलपुर में विशाल जन समुदाय के बीच राजा कल्याणसाय ने देखा कि हरि और गुजर ने अपने लकड़ी के तलवार से एक ही वार से भैंस की सिर काट डाला, अविश्वसनीय किंतु सत्य। विशाल जन समुदाय ने करतल ध्वनि से दोनों भाईयों का स्वागत किया। राजा उनके शौर्य से प्रसन्न होकर घोषणा की कि ‘तुम दोनों एक ऐसे क्षेत्र का विस्तार करो जो शक्ति का प्रतीक हो और जिसके तुम दोनों जमींदार होगे।‘ तब दोनों भाईयों ने एक ऐसा करतब दिखाया जो सबको पुनः आश्चर्य में डाल दिया। उन्होंने राजा बहादुर से निवेदन किया कि ‘हम दोनों सूर्योदय से सूर्यास्त तक पैदल जितनी भूमि नाप सकेंगे, हम उसी भूमि के अधिकारी होंगे।‘ उनकी बात राजा ने मान ली। शर्त के मुताबिक हरि और गुजर दिन भर में 138 वर्ग मील का क्षेत्र पैदल चलकर तय किया और शौर्य के प्रतीक ‘‘सक्ती रियासत‘‘ की स्थापना की। उनके शौर्य गाथा में एक जनश्रुति और प्रचलित है जिसके अनुसार दोनों भाई एक बार निहत्थे एक आदमखोर शेर से लड़े थे। रियासत बनने के बाद सक्ती जमींदारी में प्रजा बड़ी सुखी थी। आगे चलकर यहां के जमींदार रूपनारायण सिंह को अंग्रेजों ने सन् 1892 में ‘‘राजा बहादुर‘‘ का सनद प्रदान किया। आज भी यहां दशहरा पर्व में देवी की पूजा-अर्चना और लकड़ी के तलवार की पूजा की जाती है।

सारंगढ़ में गढ़ भेदन की विचित्र परंपरा:-

वर्तमान सारंगढ़ पूर्व में सारंगपुर कहलाता था। सारंग का शाब्दिक अर्थ है-बांस। अर्थात् यहां प्राचीन काल में बांसों का विशाल जंगल था। कहा तो यहां तक जाता है कि यहां के सैनिकों के हथियार भी बांस के हुआ करते थे। यहां के राजा के पूर्वज बालाघाट जिलान्तर्गत लांजी से पहले फूलझर आये। यहां के जमींदार उनके रिश्तेदार थे। बाद में श्री नरेन्द्रसाय को संबलपुर के राजा ने सैन्य सेवा के बदले सारंगढ़ परगना पुरस्कार में दिया था। आगे चलकर वे सारंगढ़ के जमींदार बने थे। यहां के राजा कल्याणसाय (सन् 1736 से 1777) हुये, जिन्हें मराठा शासक ने ‘‘राजा‘‘ की पदवी प्रदान की थी। यहां के राजा संग्रामसिंह (सन् 1830 से 1872) को अंग्रेजों ने ‘‘फ्यूडेटरी चीफ‘‘ बनाया था।


यहां के राजा की कुलदेवी ‘‘सम्लाई देवी‘‘ है, जो गिरि विलास पैलेस परिसर में आज भी प्रतिष्ठित है। प्राप्त जानकारी के अनुसार समलेश्वरी देवी की स्थापना सन् 1692 में की गयी थी। सारंगढ़ छत्तीसगढ़ का उड़ीसा प्रांत से लगा सीमांत तहसील मुख्यालय है। यहां छत्तीसगढ़ी और उड़िया परंपरा आज भी देखने को मिलती है। यहां के प्रमुख त्योहारों मंे रथयात्रा और दशहरा है। रथयात्रा में जहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी सवारी पूरे नगर में बड़े उल्लास और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है वहीं दशहरा में गढ़ भेदन की परंपरा यहां के मुख्य आकर्षक हैं। शिवरीनारायण रोड में नगर से 4 कि.मी. की दूरी पर खेलभाठा में गढ़ भेदन किया जाता है। यहां चिकनी मिट्ठी का प्रतीकात्मक गढ़ (मिट्ठी का ऊंचा टीला) बनाया जाता है और उसके चारों ओर पानी भरा होता है। गढ़ के सामने राजा, उसके सामंत और अतिथियों के बैठने के लिए स्टेज बनाया जाता था, जिसके अवशेष यहां आज भी मौजूद है। विभिन्न ग्रामों से दशहरा मनाने आये ग्रामीण जन इस गढ़ भेदन में प्रतियोगी होते थे। वे इस मिट्ठी के गढ़ में चढ़ने का प्रयास करते और फिसल कर पानी में गिर जाते हैं। पानी में भीगकर पुनः गढ़ में चढ़ने के प्रयास में गढ़ में फिसलन हो जाता था। बहुत प्रयत्न के बाद ही कोई गढ़ के शिखर में पहुंच पाता था और विजय स्वरूप गढ़ की ध्वज को लाकर राजा को सौंपता था। करतल ध्वनि के बीच राजा उस विजयी प्रतियोगी को तिलक लगाकर नारियल और धोती देकर सम्मानित करते थे। फिर राजा की सवारी राजमहल में आकर दरबारेआम में बदल जाती थी जहां दशहरा मिलन होता था। ग्रामीणजन अपने राजा को इतने करीब से देखकर और उन्हें सोनपत्ती देकर, उनके चरण वंदन कर आल्हादित हो उठते थे। सहयोगी सामंत, जमींदार और गौटिया नजराना पेश कर अपने को धन्य मानते थे। अंत में मां समलेश्वरी देवी की पूजा अर्चना करके खुशी खुशी घर को लौटते थे। राजा नरेशचंद्र सिंह ने यहां के दशहरा उत्सव को अधिक आकर्षक बनाने के लिए मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्रियों को आमंत्रित किया करते थे जो गढ़ भेदन के समय स्टेज में राजा के बगल में बैठते थे। यहां के दशहरा उत्सव में भाग लेने वाले मुख्य मंत्रियों में डॉ. कैलासनाथ काटजू, श्री भगवंतराव मंडलोई, श्री द्वारिकाप्रसाद मिश्र, राजा गोविंदनारायण सिंह और पंडित श्यामाचरण शुक्ल प्रमुख थे। यहां भी बांस के हथियारों की पूजा की जाती है।



चंद्रपुर में नवमीं को दशहरा:-

उड़ीसा के संबलपुर रियासत के अंतर्गत चंद्रपुर एक छोटी जमींदारी थी। जब मध्यप्रदेश बना तब चंद्रपुर को बिलासपुर जिलान्तर्गत जांजगीर तहसील में सम्मिलित किया गया था जो महानदी और मांड नदी के तट पर स्थित है। यहां की अधिष्ठात्री चंद्रसेनी देवी हैं। इस मंदिर की स्थापना के बारे में एक किंवदंति प्रचलित है। जिसके अनुसार चंद्रसेनी देवी, सरगुजा की सरगुजहीन दाई और संबलपुर की समलेश्वरी देवी की छोटी बहन है। समलेश्वरी देवी रायगढ़ और सारंगढ़ में भी विराजमान हैं। एक बार किसी बात को लेकर चंद्रसेनी देवी नाराज होकर सरगुजा को छोड़कर निकल जाती हैं। सरगुजा की सीमा को पार करके उदयपुर (वर्तमान धरमजयगढ़) होते हुए रायगढ़ आ जाती है। यहां समलेश्वरी देवी उन्हें रोकने का बहुत प्रयास करती है लेकिन चंद्रसेनी देवी यहां भी नहीं रूकती और दक्षिण दिशा में आगे बढ़ जाती है। रास्ते में वह सोचने लगती है कि अगर सारंगढ़ में समलेश्वरी दीदी पुनः रोकेगी तो मैं क्या करूंगी..? इस प्रकार सोचते हुए वह महानदी के तट में पहुंच गई और वहां विश्राम करने लगी। सफर की थकान से उन्हें गहरी नींद आ गई। एक बार संबलपुर के राजा की सवारी महानदी पार करते समय और अनजाने में राजा के पैर की ठोकर मिट्ठी से दबी चंद्रसेनी देवी की लग गई जिससे उनकी निद्रा खुल गई। उन्होंने राजा को स्वप्न में निर्देश दिया कि तुमने मेरा अपमान किया है अगर तुमने महानदी के तट पर एक मंदिर निर्माण कराकर मेरी स्थापना नहीं करायी तो तुम्हारा सर्वनाश हो जायेगा..? तत्काल राजा ने मूर्ति को निकलवाकर महानदी के तट पर टीले के उपर एक मंदिर बनवाकर चंद्रसेनी देवी की स्थापना विधिवत करायी। आगे चलकर उनके नाम पर चंद्रपुर नगर बसा। आज चंद्रसेनी देवी छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की अधिष्ठात्री देवी हैं। यहां प्रतिवर्ष बड़ी धूमधाम से नवरात्र पर्व में पूजा-अर्चना की जाती है। यहां ‘‘जेवरहा परिवार‘‘ को पूजा करने का अधिकार मिला है। अष्टमी के दिन यहां बलि देने की परंपरा है। यहां शुरू से ही भैंसा की बलि दी जाती है। और नवमी को विजय खुशी मनाते हुए विजयादशमीं (दशहरा) मनाया जाता है।

पूजा उत्सव सरगुजा रियासत का प्रमुख आकर्षण:-

सरगुजा रियासत में दशहरा उत्सव वास्तव में सरगुजहीन और महामाया देवी की पूजा-अर्चना का पर्व होता है। यहां दो देवियों-सरगुहीन (समलेश्वरी) और महामाया देवी की पूजा एक साथ होती है। इस प्रकार दो देवियों की पूजा एक साथ कहीं देखने को नहीं मिलता। शक्ति संचय का यह नवरात्र पर्व बड़ी श्रद्धा से यहां मनाया जाता है। अश्विन शुक्ल परवा के दिन महामाया देवी के मंदिर में कलश स्थापना का कार्य पूरा होता है। इसे ‘‘पहली पूजा‘‘ कहा जाता है। इसी दिन से सरगुजा रियासत के अंतर्गत आने वाले राजा, जमींदार, गौंटिया, किसान और ग्रामीण जन यहां इकठ्ठा होने लगते हैं। अष्टमी के दिन राजा की सवारी का विशाल जुलूस ‘‘बलि पूजा‘‘ के लिए नगर भ्रमण के बाद महामाया मंदिर पहुंचती थी। महामाया देवी को प्राचीन काल में नरबलि देने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में मिलता है। बाद में उसे बंद कर दिया गया और पशु बलि दी जाने लगी। इस दिन को ‘‘महामार‘‘ कहा जाता था। फिर दशहरा को राजा की सवारी पुनः देवी दर्शन कर नगर भ्रमण करती हुई राजमहल परिसर में पहुंचकर ‘‘मिलन समारोह‘‘ में परिवर्तित हो जाता था। उस समय राज परिवार के सभी सदस्य, अन्य सामंत, जमींदार, ओहदेदार विराजमान होते थे। ग्रामीणजन सोनपत्ती देकर उन्हें बधाई देते थे। उस दिन सरगुजा के लिए अविस्मरणीय होता था जिसका स्मरण कर आज भी वहां के लोग रोमांचित हो उठते हैं। सरगुजा में देवी पूजा का वर्णन सुप्रसिद्ध कवि पंडित शुकलाल पांडेय ने ‘‘छत्तीसगढ़ गौरव‘‘ में की है:-
लखना हो शक्ति उपासना तो चले सिरगुजा जाईये।।

रत्नपुर जहां नरबलि दी जाती थी:-

रत्नपुर कलपुरी राजाओं की वैभवशाली राजधानी थी। यह नगर महामाया देवी की उपस्थिति के कारण ‘‘शक्तिपीठ‘‘ कहलाता है। रत्नपुर का राजधानी के रूप में निर्माण महामाया देवी के आदेश-आशीष का ही प्रतिफल है। तत्कालीन साहित्य में उपलब्ध जानकारी के अनुसार रत्नपुर में महामाया देवी की मूर्ति को मराठा सैनिकों ने बंगाल अभियान से लौटते समय सरगुजा से लाकर प्रतिष्ठित किया था। राजा की सरगुजा में महामाया देवी की पूर्ति बहुत अच्छी लगी और वे उन्हें अपने साथ नागपुर ले जाना चाहते थे। इसी उद्देश्य से वे उस मूर्ति को वहां से उठाना चाहे लेकिन मूर्ति टस से मस नहीं हुई। हारकर राजा देवी के सिर को ही काटकर अपने साथ ले आये लेकिन उसे रत्नपुर से आगे नहीं ले जा सके और रत्नपुर में ही स्थापित कर दिये। सरगुजा में आज भी सिरकटी महामाया देवी की मूर्ति है जिसमें प्रतिवर्ष मोम (अथवा मिट्टी) का सिर बनाया जाता है। रत्नपुर में नवरात्र बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यहां आज भी हजारों मनोकामना ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती है। एक अन्य किंवदंति में राजा रत्नदेव शिकार करते रास्ता भटककर यहां के जंगल में आ गये और एक पेड़ की टहनी में रात गुजारी। रात्रि में उन्हें पेड़ के नीचे महामाया देवी का दरबार देखने को मिला। बाद में उन्हें स्वप्नादेश हुआ कि यहां अपनी राजधानी बनाओ। तब राजा रत्नदेव से यहां अपनी राजधानी बसायी और रत्नपुर नाम दिया। प्राचीन काल में यहां नरबलि देने की प्रथा थी जिसे राजा बहरसाय ने बंद करा दिया। लेकिन पशुबलि आज भी दी जाती है।

बस्तर में दंतेश्वरी देवी की शोभायात्रा:-

बस्तर का दशहरा अन्य स्थानों से भिन्न होता है क्योंकि यहां दशहरा में दशानन रावण का वध नहीं बल्कि बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी माई की विशाल शोभायात्रा निकलती है। दशहरा आमतौर पर अयोध्यापति राजा राम की रावण के उपर विजय का पर्व के रूप में मनाया जाता है लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं होता। वास्तव में बस्तर का ऐतिहासिक दशहरा यहां के राजवंश की गौरवगाथा का जीवन्त दस्तावेज है। ऐतिहासिक दस्तावेज से पता चलता है कि यहां का दशहरा राजधानी का आयोजन रहा है। इस राज्योत्सव का उल्लेख प्रथम काकतीय नरेश अन्नमदेव (1313 ई.) से ही मिलता है। राजा अन्नमदेव अपनी विजययात्रा के दौरान चक्रकोट (बस्तर का प्राचीन नाम) की नलवंशीय राजकुमारी चमेली बाबी पर मुग्ध हो गये। उन्होंने राजकुमारी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे राजकुमारी ने अस्वीकार कर दिया, यही नहीं बल्कि राजा अन्नमदेव के विरूद्ध सैन्य संचालन करतेी हुई वीरगति को प्राप्त हुई। इस घटना का राजा के उपर गहरा प्रभाव पड़ा...और उन्होंने चमेली बाबी की स्मृति में नारंगी नदी के जल में पुष्प प्रवाहित करने की परंपरा शुरू की। कालान्तर में यह दशहरा की एक अनिवार्य परंपरा बन गयी। आज भी इसका निर्वहन किया जाता है। राजाओं के साथ जहां उनकी राजधानियां बदलीं वही दशहरा उत्सव के स्वरूप में भी परिवर्तन आता गया।

बस्तर की अराध्य दंतेश्वरी माई आज अवश्य है लेकिन वास्तव में वह राजा की ईष्ट देवी के रूप में पूजित होती रहीं हैं। नवरात्र में बस्तर के राजा दंतेश्वरी माई के मंदिर में पुजारी के रूप में नौ दिन रहकर शक्ति साधना किया करते थे। जो देवी राजा की ईष्ट हो वह बस्तरांचल में पूजित न हो ऐसा कदापि नहीं हो सकता। यही कारण है कि आज दंतेश्वरी माई का बस्तरांचल में विशेष स्थान है। बस्तर की ग्राम देवियों में मावली देवी, हिंगलाजिन, परदेसिन, तेलिन, करनकोटिन, बंजारिन, डोंगरी माता और पाट देवी प्रमुख हैं।

बस्तर जिला मुख्यालय जगदलपुर नगर की परिक्रमा करने वाला विशाल रथ का परिचालन बस्तर दशहरा का प्रमुख आकर्षण होता है। प्राचीन काल में यह रथ 12 पहियों का हुआ करता था लेकिन आगे चलकर इसके परिचालन में असुविधा होने लगी जिससे राजा वीरनारायण के शासनकाल (1538-1553 ई.) में इसे आठ तथा चार पहिये वाले दो रथ में निकाला जाने लगा। दशहरा उत्सव में रथयात्रा की शुरूवात राजा पुरूषोत्तमदेव के शासनकाल (1407-39 ई.) में हुई। उन्होंने लोट मारते हुए जगन्नाथ पुरी की यात्रा पूरी की थी जिससे प्रसन्न होकर भगवान जगन्नाथ के आदेशानुसार वहां के पुजारी ने राजा को एक रथचक्र प्रदान कर उसे रथपति की उपाधि प्रदान की थी। उन्होंने अपने राज्य में रथयात्रा का आयोजन इसी रथचक्र प्राप्ति के बाद शुरू की थी। जगन्नाथपुरी की रथयात्रा की तर्ज में उन्होंने बस्तर में गोंचा परब और नवरात्र के बाद दशहरा की उत्सव शुरू की। दशहरा की शुरूवात अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से हो जाती है। इस दिन ब्राह्मणों को बुलाकर देवी देवताओं की पूजा कराये जाते हैं। यह सप्तशती पाठ, बगलामुखी पाठ, हनुमान चालीसा पाठ, विष्णु पाठ के रूप में पूरे नवरात्र में चलता है। सीरसार चौंक में जोगी बिठाई की रस्म होती है। हलबा जाति का आमाबाल गांव का एक व्यक्ति जोगी के रूप में बैठता है। लगभग दस दिनों तक यह व्यक्ति फलाहार करके उत्सव की निर्विघ्न समाप्ति के लिए कामना करता रहता है। नवमीं को जोगी उठाई होती है। जोगी बिठाई के दूसरे दिन से फूलरथ परिक्रमा प्रारंभ करता है। फूलों से अलंकृत होने के कारण यह फूलरथ कहलाता है। भतरा जाति के लोग इस रथ को चुराकर कुम्हड़ाकोट ले जाते हैं। यहीं राजा नवाखाई की शुरूवात करता है। 1898 ई. में इस प्रथा को बंद कर दिया गया।

फूल रथ में राजा बैठकर राजा मावलीगुड़ी से जगन्नाथ गुड़ी तक जाता था। अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से षष्ठी तक राजा कभी नीला पीताम्बर और गले में दुपट्टा डालकर और कभी पूरे शरीर में चंदन लगाकर और हाथ, गला तथा सिर में फूलों की माला डालता था लेकिन इस दौरान वे आभूषण धारण नहीं करते थे। राजा सरस्वती पूजा करते थे। प्रातःकाल राजा ब्राह्मणों के पास देवपाठ सुनने के लिये बैठते थे। फिर मावली डोली अथवा दंतेश्वरी डोली रात्रि नौ बजे आती थी जिसे दंतेवाड़ा से लाया जाता था। माता की सवारी का स्वागत राजा स्वयं अपने कर्मचारियों और सेनाओं के साथ करते थे। इस अवसर पर प्रजा अपनी कला का प्रदर्शन करके पुरस्कृत होते थे। जब तक दंतेश्वरी माई जगदलपुर में रहते थे, राजा स्वयं उनकी पूजा-अर्चना करते थे। प्रतिदिन बकरा, भैंसा, मुर्गा आदि की बलि दी जाती थी। इस अवसर पर राजा अपनी तलवार की भी पूजा किया करता था। अंतिम क्रिया के रूप में दशहरा पर्व सम्पन्न होता था जिसमें दंतेश्वरी माई की विशाल शोभायात्रा निकाली जाती थी। समूचे बस्तर के ग्रामीण, जमीदार और अन्य ओहदेदार शामिल होते थे। सभी दंतेश्वरी माई की रथ को खींचकर पुण्य के भागीदार बनने को लालायित रहते थे। महिलाएं सुंदर वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर अपने अपने घरों की छतों से इस दृश्य को देखकर आनंदित होती थीं। अन्यान्य महिलाएं इस शोभायात्रा में शामिल भी होती थीं।

काछन गादी, बस्तर दशहरा की एक प्रमुख रस्म है। यह दशहरा का एक प्रारंभिक विधान है। इसके द्वारा युद्ध की देवी काछन माता को तांत्रिक अनुष्ठान के द्वारा जगाया जाता है। कांटों की सेज पर एक महार कन्या को बिठाया जाता है। यहीं पर से वह कन्या दशहरा उत्सव मनाने की घोषणा करती है। पथरागुड़ा के पास जेल परिसर से लगा काछन देवी की गुड़ी है। यहीं पर यह उत्सव होता है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार लाला जगदलपुरी के अनुसार हरिजनों की देवी काछन देवी को बस्तर के राजाओं द्वारा सम्मान देना इस बात की पुष्टि करता है कि वे इस राज्य में अपृश्य नहीं थे। इसी प्रकार आपसी सहयोग से विशाल रथ का निर्माण, उसके लिए लकड़ी काटकर संवरा जाति के लोग जंगलों से लाकर करते हैं। इससे उनकी राजा और इस उत्सव के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित होती है।

दशहरा का प्रमुख आकर्षण मुरिया दरबार होता था। कदाचित मुरिया जाति की दरबार में ऊंचा स्थान था। दरबार का मुखिया राजा होता था। इस दरबार में राजा अनेक विषयों पर चर्चा करके आदेश जारी करता था और मुरिया इस आदेश को लेकर साल भर के लिए दंतेश्वरी माई से वर्ष भर राज्य में खुशहाली के लिए प्रार्थना कर नई उमंग, नई जागृति और आत्म विश्वास लिए आदिवासी जन अपने गांवों को लौटते हैं।

शिवरीनारायण में गादी पूजा:-

छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक और धार्मिक तीर्थ शिवरीनारायण में दो प्रकार का दशहरा मनाया जाता है। नगर के उत्साही नवयुवकों के द्वारा मेला ग्राउंड में जहां रावण की मूर्ति की स्थापना कर श्रीराम लक्ष्मण और हनुमान की शोभायात्रा निकालकर रावण का वध किया जाता है, वहीं मठ के महंत की बाजे-गाजे के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है। इस शोभायात्रा में तलवारबाजी और आतिशबाजी की धूम होती है जो जनकपुर जाकर सोनपत्ती के पेड़ की पूजा-अर्चना करके मठ लौट आती है और मठ के बाहर स्थित गादी चौरा में महंत के द्वारा हवन-पूजन की जाती है। इस अवसर पर मठ के साधु संत और नगर के गणमान्य नागरिक उपस्थित होते हैं। हवन पूजन के उपरांत महंत गादी चौरा में विराजमान होते हैं। उस समय सभी उन्हें यथा शक्ति भेंट देते हैं। ऐसी किंवदंति है कि यह प्राचीन काल में दक्षिणापथ और जगन्नाथ पुरी जाने का मार्ग था। लोग इसी मार्ग से जगन्नाथ पुरी और दक्षिण दिशा में तीर्थ यात्रा करने जाते थे। उस समय यहां नाथ संप्रदाय के तांत्रिक रहते थे और यात्रियों को लूटा करते थे। एक बार आदि गुरू दयाराम दास तीर्थाटन के लिए ग्वालियर से रत्नपुर आए। उनकी विद्वता से रत्नपुर के राजा बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरू बनाकर अपने राज्य में रहने के लिए निवेदन किया। रत्नपुर के राजा शिवरीनारायण में तांत्रिकों के प्रभाव और लूटमार से परिचित थे। उन्होंने स्वामी दयाराम दास से तांत्रिकों से मुक्ति दिलाने का अनुरोध किया। आदि स्वामी दयाराम दास जी शिवरीनारायण गये। वहां उन्हें भी तांत्रिकों ने लूटने का प्रयास किया मगर वे सफल नहीं हुए, उनकी तांत्रिक सिद्धि स्वामी जी के उपर काम नहीं की।


तांत्रिकों ने स्वामी दयाराम दास को शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और फिर दोनों के बीच शास्त्रार्थ हुआ जिसमें तांत्रिकों की पराजय हुई और जमीन के भीतर एक चूहे के बिल में प्रवेश कर अपनी जान की भीख मांगने लगे। स्वामी जी ने उन्हें जमीन के भीतर ही रहने की आज्ञा दी और उनकी तांत्रिक प्रभाव की शांति के लिए प्रतिवर्ष माघ शुक्ल त्रयोदस और विजयादशमी (दशहरा) को पूजन और हवन करने का विधान बनाया। आज भी शिवरीनारायण में शबरीनारायण मंदिर परिसर में दक्षिण द्वार के पास स्थित एक गुफानुमा मंदिर में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिक गुरू कनफड़ा और नगफड़ा बाबा की पगड़ी धारी मूर्ति स्थित है। साथ ही बस्ती के बाहर एक नाथ गुफा भी है। शिवरीनारायण में 9वीं शताब्दी में निर्मित और नाथ सम्प्रदाय के कब्जे में बरसों से रहे मठ में वैष्णव परंपरा की नींव डाली। शिवरीनारायण के इस मठ के स्वामी दयाराम दास पहले महंत हुए। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं और 15 वें महंत राजेश्री रामसुंदरदास जी वर्तमान में हैं। इस मठ के महंत रामानंदी सम्प्रदाय के हैं।


जिस स्थान में दोनों के बीच शास्त्रार्थ हुआ था वहां पर एक चबुतरा और छतरी बनवा गया। बरसों से प्रचलित इस पूजन परंपरा को ‘‘गादी पूजा‘‘ कहा गया। क्योंकि पूजन और हवन के बाद महंत उसके उपर विराजमान होते हैं और नागरिक गणों द्वारा गादी पर विराजित होने पर महंत को श्री फल और भेंट देकर उनका सम्मान किया जाता है। इस परंपरा के बारे में कोई लिखित दस्तावेज नहीं है मगर महंती सौंपते समय उन्हें मठ की परंपराओं के बारे में जो गुरू मंत्र दिया जाता है उनमें यह भी शामिल होता है। इस मठ में जितने भी महंत हुए सबने इस परंपरा का बखूबी निर्वाह किया है।
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रचना, लेखन, फोटो एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, 
चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)

मुक्तिका: देखो -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

देखो

संजीव 'सलिल'
*
रात के गर्भसे, सूरज को उगा कर देखो.
प्यास प्यासे की 'सलिल' आज बुझा कर देखो.

हौसलों को कभी आफत में पजा कर देखो.
मुश्किलें आयें तो आदाब बजा कर देखो..

मंजिलें चूमने कदमों को खुद ही आयेंगी.
आबलों से कभी पैरों को सजा कर देखो..

दौलते-दिल को लुटा देंगे विहँस पल भर में.
नाजो-अंदाज़ से जो आज लजा कर देखो..

बात दिल की करी पूरी तो किया क्या तुमने.
गैर की बात 'सलिल' खुद की रजा कर देखो..

बंदगी क्या है ये दुनिया न बता पायेगी.
जिंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो.

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एक कविता: कौन हूँ मैं?... संजीव 'सलिल'

एक कविता:

कौन हूँ मैं?...

संजीव 'सलिल'
*
क्या बताऊँ, कौन हूँ मैं?
नाद अनहद मौन हूँ मैं.
दूरियों को नापता हूँ.
दिशाओं में व्यापता हूँ.
काल हूँ कलकल निनादित
कँपाता हूँ, काँपता हूँ. 
जलधि हूँ, नभ हूँ, धरा हूँ.
पवन, पावक, अक्षरा हूँ.
निर्जरा हूँ, निर्भरा हूँ.
तार हर पातक, तरा हूँ..
आदि अर्णव सूर्य हूँ मैं.
शौर्य हूँ मैं, तूर्य हूँ मैं.
अगम पर्वत कदम चूमें.
साथ मेरे सृष्टि झूमे.
ॐ हूँ मैं, व्योम हूँ मैं.
इडा-पिंगला, सोम हूँ मैं.
किरण-सोनल साधना हूँ.
मेघना आराधना हूँ.
कामना हूँ, भावना हूँ.
सकल देना-पावना हूँ.
'गुप्त' मेरा 'चित्र' जानो. 
'चित्त' में मैं 'गुप्त' मानो.
अर्चना हूँ, अर्पिता हूँ.
लोक वन्दित चर्चिता हूँ.
प्रार्थना हूँ, वंदना हूँ.
नेह-निष्ठा चंदना हूँ. 
ज्ञात हूँ, अज्ञात हूँ मैं.
उषा, रजनी, प्रात हूँ मैं.
शुद्ध हूँ मैं, बुद्ध हूँ मैं.
रुद्ध हूँ, अनिरुद्ध हूँ मैं.
शांति-सुषमा नवल आशा.
परिश्रम-कोशिश तराशा.
स्वार्थमय सर्वार्थ हूँ मैं.
पुरुषार्थी परमार्थ हूँ मैं.
केंद्र, त्रिज्या हूँ, परिधि हूँ.
सुमन पुष्पा हूँ, सुरभि हूँ.
जलद हूँ, जल हूँ, जलज हूँ.
ग्रीष्म, पावस हूँ, शरद हूँ. 
साज, सुर, सरगम सरस हूँ.
लौह को पारस परस हूँ.
भाव जैसा तुम रखोगे
चित्र वैसा ही लखोगे. 
स्वप्न हूँ, साकार हूँ मैं.
शून्य हूँ, आकार हूँ मैं.
संकुचन-विस्तार हूँ मैं.
सृष्टि का व्यापार हूँ मैं.
चाहते हो देख पाओ.
सृष्ट में हो लीन जाओ.
रागिनी जग में गुंजाओ.
द्वेष, हिंसा भूल जाओ.
विश्व को अपना बनाओ.
स्नेह-सलिला में नहाओ..
 ४-५ दिसंबर २००७ 
*******


शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

श्रृद्धांजलि:  
  स्मृति शेष श्रीलाल शुक्ल                                                               shrilal-shukla.jpg
                                                  महेश चन्द्र द्विवेदी
              कल श्रीलाल शुक्ल जी के पार्थिव शरीर को अग्नि में समाते देखा- ३५ वर्ष पूर्व उनसे  प्रथम बार एक विभागीय  डिनर में मिला था, हम दोनों के उत्तर प्रदेश प्रशासन में होने के कारण ऐसा अवसर आया था - सौम्य स्वाभाव , सुन्दर मुख एवं सुलझा व्यक्तित्व-. तब मै लिखता नहीं था और तब तक मैंने राग-दरबारी पढ़ी भी नहीं थी, परन्तु उसके पश्चात् शीघ्र ही पढ़ी- और पढ़ी क्या? हंसी कहना अधिक पयुक्त होगा, क्योंकि प्रत्येक वाक्य के उपरांत हंसी रोकना कठिन होता था- इतना तीखा और नियंतरणहीन हास्योत्पादक व्यंग्य पहले नहीं पढ़ा था- फिर यदा-कदा मिलना होता रहा - १९९५ में जब मेरा पहला उपन्यास 'उर्मि' छपा, तब मैंने श्रीलाल जी को एक प्रति पढने को भेजी- उनकी टिपपनी थी ' अत्यंत रुचिकर  कहानी एवं शैली है परन्तु  कथानक को अबोर्ट कर दिया गया है, इस उपन्यास को सौ पृष्ठ के बजाय ४०० पृष्ठ में लिखना चाहिए था'-  १० वर्ष पश्चात् जब मैंने अपने व्यंग्यात्मक संस्मरण 'प्रशासनिक प्रसंग' उनके पास भेजे , तो चार घंटे पश्चात् ही फ़ोन आया कि मैंने पूरी पुस्तक पढ़ ली है. मैंने आश्चर्य से कहा इतनी जल्दी, तो बोले कि इतनी रुचिकर है कि प्रारंभ करने के पश्चात् छोड़ ही ना सका.'. मै धन्य हो गया- हाल में, जब वह अस्वस्थ रहने लगे थे, तब मिलने जाने पर मैंने अपना व्यंग्य संग्रह 'भज्जी का जूता ' उन्हें दिया , वह पढने की दशा में तो नहीं थे, परन्तु उन्होंने अपनी दो पुस्तकें मुझे दी, जिन्हें मै धरोहर के रूप में रखकर अपने को सौभाग्यशाली समझूंगा. 
               चार दिन पूर्व उन्हें सहारा अस्पताल में आई. सी. यू. में देखकर बड़ा बुरा लगा था- अत्यंत कृशकाय एवं निष्प्राण दिखने वाला शारीर - इतना  जीवंत व्यक्ति इस दशा में - उन्होंने ऐसे  शरीर का त्याग कर दिया है, परन्तु  मेरा विश्वास है कि वह आने वाली  सदियों तक हमारे बीच रहेंगे .
mcdewedy@gmail.com
श्रीलाल शुक्‍ल जन्म ३१ दिसंबर १९२५ - निधन २८ अक्टूबर २०११
विख्यात हिंदी व्यंग्यकार होने के पूर्व वे उत्तर प्रदेश राज्य लोक सेवा योग तथा भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे. उन्होंने २५ पुस्तकें लिखीं जिनमें मकान, सूनी घाती का सूरज, पहला पड़ाव, बीसरामपुर का संत आदि प्रमुख हैं. उन्होंने स्वतंत्रता पश्चात् भारतीय जन मानस के गिरते जीवन मूल्यों को अपनी विशिष्ट व्यंग्यात्मक शैली के माध्यम से उद्घाटित किया. उनकी सर्वाधिक सम्मानित तथा चर्चित कृति राग दरबारी अंग्रेजी सहित २५ भाषाओँ में अनूदित हुई. १०८० के दशक में उनकी कृति पर दूरदर्शन में धारावाहिक भी र्पसरित हुआ था.उनके जासूसी उपन्यास आदमी का ज़हर साप्ताहिक हिंदुस्तान में धारावाहिक प्रकाशित हुआ था.

श्री लाल शुक्ल को राग दरबारी पर १९६९ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९९९ में उपन्यास बीसरामपुर का संत पर व्यास सम्मान से तथा २००९ में ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित किया गया था. भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण अवदान हेतु राष्ट्रपति द्वारा उन्हें २००८ में पद्मभूषण से अलंकृत किया गया. सन २००५ में उनकी ८० वीं जन्म ग्रंथि पर दिल्ली में शानदार और जानदार कार्यक्रम का आयोजन उनके मित्रों द्वारा किया गया था तथा 'जीवन ही जीवन' शीर्षक स्मारिका का प्रकाशन किया गया था.

संक्षिप्त जीवन वृत्त:

  • १९२५ - अतरौली लखनऊ उत्तर प्रदेश में जन्म.
  • १९४७ - इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक.
  • १९४९ - प्रादेशिक सिविल सेवा में प्रविष्ट.
  • १९५७ - प्रथम उपन्यास सूनी घाती का सूरज प्रकाशित.
  • १९५८ - प्रथम व्यंग्य लेख संकलन अंगद का पैर प्रकाशित.
  • १९७० - राग दरबारी १९६९ के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार.
  • १९७८  - मकान के लिये मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य अकादमी पुरस्कार. 
  • १९७९-८० - निदेशक भारतेंदु नाट्य अकादमी उत्तर प्रदेश.
  • १९८१ - अंतर्राष्ट्रीय लेखक सम्मेलन बेलग्रेड में भारत का प्रतिनिधित्व.
  • १९८२-८६ - सदस्य साहित्य अकादमी परामर्श मंडल.
  • १९८३ - भारतीय प्रशासनिक सेवा से सेवा निवृत्त.
  • १९८७-९० - आई.सी.सी.आर. भारत शासन द्वारा एमिरितस फेलोशिप.
  • १९८८ - उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण पुरस्कार.
  • १९९१ - कुरुक्षेत्र विश्व-विद्यालय द्वारा गोयल साहित्य पुरस्कार.
  • १९९४ -उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा लोहिया सम्मान.
  • १९९६ - मध्य प्रदेश शासन द्वारा शरद जोशी सम्मान.
  • १९९७ - मध्य प्रदेश शासन द्वारा मैथिली शरण गुप्ता सम्मान.
  • १९९९ - बिरला फ़ौंडेशन द्वारा व्यास सम्मान.
  • २००५ - उत्तर प्रदेश स्शासन द्वारा यश भारती सम्मान.
  • २००८ - भारत के राष्ट्रपति द्वारा पद्म भूषण.
  • २०११ - २००९ का ज्ञानपीठ सम्मान.
साहित्यिक अवदान:  उपन्यास 
  • सूनी घाती का सूरज - १९५७ 
  • अज्ञातवास - १९६२ 
  • राग दरबारी (उपन्यास) - १९६८ - मूलतः हिंदी में; पेंग्विन बुक्स द्वारा इसी नाम से अंग्रेजी अनुवाद १९९३; नॅशनल बुक्स ट्रस्ट द्वारा १५ भारतीय भाषाओँ में अनुवाद प्रकाशित.
  • आदमी का ज़हर - १९७२ 
  • सीमाएं टूटती हैं - १९७३ 
  • मकान - १९७६ - मूलतः हिंदी में; बांगला अनुवाद १९७० .
  • पहला पड़ाव - १९८७ - मूलतः हिंदी में; पेंग्विन इंटरनॅशनल द्वारा अंग्रेजी अनुवाद १९९३.
  • बिश्रामपुर का संत - १९९८ 
  • बब्बर सिंह और उसके साथी - १९९९ - मूलतः हिंदी में; स्कोलोस्टिक इं. न्यूयार्क द्वारा अंग्रेजी अनुवाद बब्बर सिंह एंड हिस फ्रिएंड्स  २००० में.
  • राग विराग - २००१ 
व्यंग्य:

  • अंगद का पाँव - १९५८ 
  • यहाँ से वहाँ - १९७० 
  • मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें - १९७९ 
  • उमरावनगर में कुछ दिन - १९८६
  • कुछ ज़मीन में कुछ हवा में - १९९० 
  • आओ बैठ लें कुछ देर - १९९५ 
  • अगली शताब्दी का शहर - १९९६
  • जहालत के पचास साल - २००३ 
  • ख़बरों की जुगाली - २००५ 
लघु कथा संग्रह:
  • यह घर मेरा नहीं - १९७९ 
  • सुरक्षा तथा अन्य कहानियाँ - १९९१ 
  • इस उम्र में - २००३ 
  • दस प्रतिनिधि कहानियाँ - २००३ 
संस्मरण:
  • मेरे साक्षात्कार - २००२ 
  • कुछ साहित्य चर्चा भी - २००८ 
साहित्यिक समालोचना:

  • भगवती चरण वर्मा - १९८९ 
  • अमृतलाल नागर - १९९४ 
  • अज्ञेय: कुछ रंग कुछ राग - १९९९ 
संपादित कार्य:
  • हिंदी हास्य-व्यंग्य  संकलन - २०००
  • साहित्यिक यात्रायें:

    युगोस्लाविया, गेरमन्य, इंग्लैंड, पोलैंड, सूरीनाम, चीन. 

Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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नवगीत: सड़क पर.... संजीव 'सलिल'

नवगीत:
                                                                                       
सड़क पर

संजीव 'सलिल'
*
सड़क पर
सतत ज़िंदगी चल रही है.....
*
उषा की किरण का
सड़क पर बसेरा.
दुपहरी में श्रम के
परिंदे का फेरा.
संझा-संदेसा
प्रिया-घर ने टेरा.
रजनी को नयनों में
सपनों का डेरा.
श्वासा में आशा
विहँस पल रही है.
सड़क पर हताशा
सुलग-जल रही है. ....
*
कशिश कोशिशों की
सड़क पर मिलेगी.
कली मेहनतों की
सड़क पर खिलेगी.
चीथड़ों में लिपटी
नवाशा मिलेगी.
कचरा उठा
जिंदगी हँस पलेगी.
महल में दुपहरी
खिली, ढल रही है.
सड़क पर सड़क से
सड़क मिल रही है....
*
अथक दौड़ते पग
सड़क के हैं संगी.
सड़क को न भाती
हैं चालें दुरंगी.
सड़क पर न करिए
सियासत फिरंगी.
'सलिल'-साधना से
सड़क स्वास्थ्य-चंगी.
मंहगाई जन-गण को
नित छल रही है.
सड़क पर जवानी
मचल-फल रही है.....

कुण्डलियाँ: -- संजीव 'सलिल'


कुण्डलियाँ:                                       

संजीव 'सलिल'
*
भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल.

फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल..

तज भेदों के, शूल अनवरत, रहें सृजनरत.

मिलें अंगुलिका, बनें मुष्टिका, दुश्मन गारत..

तरसें लेनें. जन्म देवता, विमल विनयरत.

'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत..

*

कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान.

हुए पराजित पलों में, कोटि-कोटि विद्वान..

कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर.

तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर..

जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर.

'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर..

*

सुंदरियाँ घातक; सलिल' पल में लें दिल जीत.

घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत.

जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर.

बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर.

असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ.

नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ..

*


मुक्तिका: देखो -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
देखो
-- संजीव 'सलिल'
*
ज़िंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो.
चाँद पाना है तो तारों को सजा कर देखो..

बंदगी पूजा इबादत या प्रार्थना प्रेयर
क़ुबूल होगी जो रोते को हँसा कर देखो..

चाहिए नज़रे-इनायत हुस्न की जो तुम्हें
हौसलों को जवां होने दो, खुदा कर देखो..

ढाई आखर का पढ़ो व्याकरण बिना हारे.
और फिर ज्यों की त्यों चादर को बिछा कर देखो..

ठोकरें जब भी लगें गिर पड़ो, उठो, चल दो.
मंजिलों पर नयी मंजिल को उठा कर देखो..

आग नफरत की लगा हुक्मरां बने नीरो.
बाँसुरी छीन सियासत की, गिरा कर देखो..

कौन कहता है कि पत्थर पिघल नहीं सकता?
नर्मदा नेह की पर्वत से बहा कर देखो..

संग आया न 'सलिल' के, न कुछ भी जाएगा.
जहां है गैर, इसे अपना बना कर देखो..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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हिंदीहिंदी.इन 

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

सामयिक चर्चा: मुन्नी की बदनामी में छिपा मनोविज्ञान -- अश्विनी कुमार

सामयिक चर्चा:

मुन्नी की बदनामी में छिपा मनोविज्ञान

 अश्विनी कुमार                                                                                 
*

‘मुन्नी बदनाम हुई, डार्लिंग तेरे लिए’ – पहली पंक्ति बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. हमारे कई बुद्धिजीवी मित्र इसे एक छिछोरे गीत की एक भोंडी पंक्ति कहकर इसका तिरस्कार करना चाहेंगे. परन्तु वो यह भूल रहे हैं कि इस छोटी पंक्ति में मुन्नी के मनोविज्ञान का सार-तत्त्व छुपा है, पूरी श्रीमद् भागवत गीता जितना ज्ञान छुपा है. श्रोता अगर ध्यान दें तो पायेंगे कि मुन्नी अपनी बदनामी से बिलकुल भी दुखी नहीं है. अब ज़ाहिर बात है कि कोई भी स्त्री अपना दुःख छोटे कपडे़ पहनकर और दर्जनों शराबी मित्रों के साथ नाचकर व्यक्त नहीं करेगी. दरअसल मुन्नी अपनी बदनामी का उत्सव मना रही है. पर अपनी बदनामी का उत्तरदायित्त्व अपने प्रेमी अर्थात डार्लिंग पर मढ़ रही है.

गौरमतलब यह कि मुन्नी बदनाम तो होना चाहती है पर इसका दोष खुद पर लेना नहीं चाहती. आपने कई बार समाचार-पत्रों में पढ़ा होगा कि कुछ लड़कियां अपने पुरुष मित्रों के साथ यौन संसर्ग का आनंद उठाकर बाद में यह बयान देती हैं कि पुरुष ने ही उन्हें बहलाया फुसलाया और कुमार्ग पर प्रेरित किया. ये सारी घटनाएं उसी मनोविज्ञान का रहस्य उजागर करती हैं. कई स्त्रियाँ समाज द्वारा प्रतिबंधित सुखों का अनुभव तो करना चाहती हैं, पर जिम्मेवारी स्वीकार नहीं करना चाहतीं. जैसे मधुमेह (डायबिटीज) का मरीज यह शिकायत करे कि मिठाई उसके मुंह में जबरदस्ती डाल दी गयी है.

‘मुन्नी के गाल गुलाबी, नैन शराबी, चाल नवाबी रे’ — अब मुन्नी अपनी शारीरिक दशा का चित्रण करती है. ‘मुन्नी के गाल गुलाबी’ – ध्यान रहे उसके गाल बदनामी से आई शर्म से गुलाबी नहीं हो रहे. यह तो गर्व और आत्म-सम्मान की प्रचुरता से ऐसा रंग दिखा रहे हैं. ‘नैन शराबी’ – बदनामी से मिल रही लोकप्रियता से उसकी आँखों में अहंकार का नशा आ गया है. ‘चाल नवाबी’ – अब स्पष्ट है कि चलने-फिरने में राजाओं जैसी शान तो आ ही जायेगी जब दर्जनों प्रेमी प्रेम की अभिलाषा लिए चारों ओर स्वामिभक्त कुत्तों की तरह चक्कर लगा रहे हों.
”ले झंडू बाम हुई, डार्लिंग तेरे लिए’ – फिर से एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पंक्ति. हमारे मार्केटिंग और सेल्स प्रोमोशन के मित्र इस पंक्ति को यह कहकर खारिज करेंगे कि मुन्नी सिरदर्द की औषधि का विज्ञापन कर रही है. पर हम यदि इस वाक्य की गहराई में जायेंगे तो समझेंगे कि मुन्नी कुछ और ही कहना चाह रही है. हम सभी जानते हैं कि झंडू बाम से सिरदर्द दूर नहीं भागता. दरअसल बाम हमारी त्वचा पर इतनी तीव्र संवेदना उत्पन्न करता है कि हमें सिरदर्द का अहसास नहीं होता. ठीक इसी तरह मुन्नी का यौवन मर्दों के दिलों में इतनी तीव्र वासना उत्पन्न करता है कि वो घर-परिवार, बीवी, बच्चे, नौकरी आदि सभी के प्रति जिम्मेवारी भूल जाते हैं.

आभार: जनोक्ति 

मुक्तिका: रोज रोजे किये... -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

रोज रोजे किये...

संजीव 'सलिल'
*
रोज रोजे किये अब चाट चटा कर देखो.
खूब जुल्फों को सँवारा है, जटा कर देखो..

चादरें सिलते रहे, अब तो फटा कर देखो..
ढाई आखर के लिये, खुद को डटा कर देखो..

घास डाली नहीं जिसने, न कभी बात करी.
बात तब है जो उसे, आज पटा कर देखो..

रूप को पूज सको, तो अरूप खुश होगा.
हुस्न को चाह सको, उसकी छटा कर देखो..

हामी भरती ही नहीं, चाह कर भी चाहत तो-
छोड़ इज़हार, उसे आज नटा कर देखो..

जोड़ कर हार गये, जोड़ कुछ नहीं पाये.
आओ, अब पूर्ण में से पूर्ण घटा कर देखो..

फेल होता जो पढ़े, पास हो नकल कर के.
ज़िंदगी क्या है?, किताबों को हटा कर देखो..

जाग मतदाता उठो, देश के नेताओं को-
श्रम का, ईमान का अब पाठ रटा कर देखो..

खोद मुश्किल के पहाड़ों को 'सलिल' कर कंकर.
मेघ कोशिश के, सफलता को घटा कर देखो..

जान को जान सको, जां पे जां निसार करो.
जान के साथ 'सलिल', जान सटा कर देखो..

पाओगे जो भी खुशी उसको घात कर लेना.
जो भी दु:ख-दर्द 'सलिल', काश बटा कर देखो..
*
http://divyanarmada.hindihindi.com

भय हरण कालिका -- कुसुम ठाकुर

भय हरण कालिका


"भय हरण कालिका"

जय जय जग जननि देवी
सुर नर मुनि असुर सेवी
भुक्ति मुक्ति दायिनी भय हरण कालिका।
जय जय जग जननि देवी।

मुंडमाल तिलक भाल 
शोणित मुख लगे विशाल 
श्याम वर्ण शोभित, भय हरण कालिका।
जय जय जग जननि देवी ।

हर लो तुम सारे क्लेश 
मांगूं नित कह अशेष 
आयी शरणों में तेरी, भय हरण कालिका ।
जय जय जग जननि देवी ।

माँ मैं तो गई हूँ हारी 
 माँगूं कबसे विचारी 
करो अब तो उद्धार तुम, भय हरण कालिका ।  
जय जय जग जननि देवी ।

-*****- 

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

तिब्बत मसले पर सरदार पटेल का ऐतिहासिक पत्र

तिब्बत मसले पर सरदार पटेल का ऐतिहासिक पत्र


नई दिल्ली
७ नवंबर, १९५०

मेरे प्रिय जवाहरलाल,
चीन सरकार ने हमें अपने शांतिपूर्ण उद्देश्यों के आंडबर में उलझाने का प्रयास किया है। मेरा यह मानना है कि वह हमारे राजदूत के मन में यह झूठ विश्वास कायम करने में सफल रहे कि चीन तिब्बत की समस्या को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाना चाहता है। चीन की अंतिम चाल, मेरे विचार से कपट और विश्र्वासघात जैसा ही है। दुखद बात यह है कि तिब्बतियों ने हम पर विश्र्वास किया है, हम ही उनका मार्गदर्शन भी करते रहे हैं और अब हम ही उन्हें चीनी कूटनीति या चीनी दुर्भाव के जाल से बचाने में असमर्थ हैं। ताजा प्राप्त सूचनाओं से ऐसा लग रहा है कि हम दलाई लामा को भी नहीं निकाल पाएंगे । यह असंभव ही है कि कोई भी संवेदनशील व्यक्ति तिब्बत में एंग्लो-अमेरिकन दुरभिसंधि से चीन के समक्ष उत्पन्न तथाकथित खतरे के बारे में विश्र्वास करेगा।


पिछले कई महीनों से रूसी गुट से परे हम ही केवल अकेले थे जिन्होंने चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलवाने की कोशिश की तथा फारमोसा के प्रश्न पर अमेरिका से कुछ न करने का आश्र्वासन भी लिया।

मुझे इसमें संदेह हैं कि चीन को अपनी सदिच्छाओं, मैत्रीपूर्ण उद्देश्यों और निष्कपट भावनाओं के बारे में बताने के लिए हम जितना कुछ कर चुके हैं, उसमें आगे भी कुछ किया जा सकता है। हमें भेजा गया उनका अंतिम टेलिग्राम घोर अशिष्टता का नमूना है। इसमें न केवल तिब्बत में चीनी सेनाओं के घुसने के प्रति हमारे विरोध को खारिज किया गया है बल्कि परोक्ष रूप से यह गंभीर संकेत भी किया गया है कि हम विदेशी प्रभाव में आकर यह रवैया अपना रहे हैं। उनके टेलिग्राम की भाषा साफ बताती है कि यह किसी दोस्त की नहीं बल्कि भावी शत्रु की भाषा हैं। इस सबके पटाक्षेप में हमें इस नई स्थिति को देखना और संभालना होगा जिसमें तिब्बत के गायब हो जाने के बाद जिसका हमें पता था चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है। इतिहास में कभी भी हमें अपनी उत्तर-पूर्वी सीमा की चिंता नहीं हुई है। हिमालय श्रृंखला उत्तर से आने वाले किसी भी खतरे के प्रति एक अभेद्य अवरोध की भूमिका निभाती रही है। तिब्बत हमारे एक मित्र के रूप में था इसलिए हमें कभी समस्या नहीं हुई। हमने तिब्बत के साथ एक स्वतंत्र संधि कर उसकी स्वायत्तता का सम्मान किया है। उत्तर-पूर्वी सीमा के अस्पष्ट सीमा वाले राज्य और हमारे देश में चीन के प्रति लगाव रखने वाले लोग कभी भी समस्या का कारण बन सकते हैं।

चीन की कुदृष्टि हमारी तरफ वाले हिमालयी इलाकों तक सीमित नहीं है, वह असम के कुछ महत्वपूर्ण हिस्सों पर भी नजर गड़ाए हुए है। बर्मा पर भी उसकी नजर है। बर्मा के साथ और भी समस्या है क्योकि उसकी सीमा को निर्धारित करने वाली कोई रेखा नहीं है जिसके आधार पर वह कोई समझौता कर सके। हमारे उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम के आदिवासी क्षेत्र आते हैं। संचार की दृष्टि से उधर हमारे साधन बड़े ही कमजोर व अपर्याप्त है; सो यह क्षेत्र 'कमजोर' है। उधर कोई स्थायी मोर्चे भी नहीं हैं
इसलिए घुसपैठ के अनेकों रास्ते हैं। मेरे विचार से अब ऐसी स्थिति आ गई है कि हमारे पास आतुमसंतुष्ट रहने या आगे-पीछे सोचने का समय नहीं है। हमारे मन में यह स्पष्ट धारणा होनी चाहिए कि हमें क्या प्राप्त करना है और किन साधनों से प्राप्त करना है।

इन खतरों के अलावा हमे गंभीर आंतरिक संकटों का भी सामना करना पड़ सकता है। मैने (एच०वी०आर०) आयंगर को पहले ही कह दिया है कि वह इन मामलों की गुप्तचर रिपोर्टों की एक प्रति विदेश मंत्रालय भेज दें। निश्चित रूप से सभी समस्याओं को बता पाना मेरे लिए थकाऊ और लगभग असंभव होगा। लेकिन नीचे मैं कुछ समस्याओं का उल्लेख कर रहा हू जिनका मेरे विचार में तत्काल समाधान करना होगा और जिन्हें दृष्टिगत रखते हुए ही हमें अपनी प्रशासनिक या सैन्य नीतियां बनानी होंगी तथा उन्हें लागू करने का उपाय करना होगा :
१ सीमा व आंतरिक सुरक्षा दोनों मोर्चों पर भारत के समक्ष उत्पन्न चीनी खतरे का सैन्य व गुप्तचर मूल्यांकन।
२ हमारी सैन्य स्थिति का एक परीक्षण।
३ रक्षा क्षेत्र की दीर्घकालिक आवशयकताओं पर विचार.
४ हमारे सैन्य बलों के ताकत का एक मूल्यांकन.
५ संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रवेश का प्रश्न.
६ उत्तरी व उत्तरी-पूर्वी सीमा को मजबूत करने के लिए हमें कौन से राजनीतिक व प्रशसनिक कदम उठाने होंगे?
७ चीन की सीमा के करीब स्थित राज्यों जैसे यू०पी०, बिहार, बंगाल, व असम के सीमावर्ती क्षेत्रों में आंतरिक सुरक्षा के उपाय.
८ इन क्षेत्रों और सीमावर्ती चौकियों पर संचार, सड़क, रेल, वायु और बेहतर सुविधाओं में सुधार.
९ ल्हासा में हमारे दूतावास और गयांगत्से व यातुंग में हमारी व्यापार चौकियों तथा उन सुरक्षा बलों का भविष्य जो हमने तिब्बत में व्यापार मार्गो की सुरक्षा के लिए तैनात कर रखी हैं.
१० मैकमोहन रेखा के संदर्भ में हमारी नीति.



आपका
वल्लभभाई पटेल
(www.visfot.com से साभार)

दोहा सलिला: दोहों की दीपावली, अलंकार के संग..... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:                                                                        

दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.....

संजीव 'सलिल'
*
दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.
बिम्ब भाव रस कथ्य के, पंचतत्व नवरंग..
*
दिया दिया लेकिन नहीं, दी बाती औ' तेल.
तोड़ न उजियारा सका, अंधकार की जेल..   -यमक
*
गृहलक्ष्मी का रूप तज, हुई पटाखा नार.     -अपन्हुति
लोग पटाखा खरीदें, तो क्यों हो  बेजार?.    -यमक,
*
मुस्कानों की फुलझड़ी, मदिर नयन के बाण.  -अपन्हुति
जला फुलझड़ी चलाती, प्रिय कैसे हो तरण?.   -यमक
*
दीप जले या धरा पर, तारे जुड़े अनेक.
तम की कारा काटने, जाग्रत किये विवेक..      -संदेह
*
गृहलक्ष्मी का रूप लख, मैया आतीं याद.
वही करधनी चाबियाँ, परंपरा मर्याद..            -स्मरण
*
मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज.          -भ्रांतिमान 
लगे चाँद सा प्रियामुख, दिल पर करता राज..  -उपमा
*
दीप-दीप्ति दीपित द्युति, दीपशिखा दो देख. -वृत्यानुप्रास
जला पतंगा जान दी, पर न हुआ कुछ लेख.. -छेकानुप्रास
*
दिननाथ ने शुचि साँझ को, फिर प्रीत का उपहार.
दीपक दिया जो झलक रवि की, ले हरे अंधियार.. -श्रुत्यानुप्रास
अन्त्यानुप्रास हर दोहे के समपदांत में स्वयमेव होता है.
*
लक्ष्मी को लक्ष्मी मिली, नर-नारायण दूर.  -लाटानुप्रास
जो जन ऐसा देखते, आँखें रहते सूर..      
*
घर-घर में आनंद है, द्वार-द्वार पर हर्ष.      -पुनरुक्तिप्रकाश
प्रभु दीवाली ही रहे, वर दो पूरे वर्ष..
*
दीप जला ज्योतित हुए, अंतर्मन गृह-द्वार.   -श्लेष
चेहरे-चेहरे पर 'सलिल', आया नवल निखार..
*
रमा उमा से पूछतीं, भिक्षुक है किस द्वार?
उमा कहें बलि-द्वार पर, पहुंचा रहा गुहार..   -श्लेष वक्रोक्ति 
*
रमा रमा में मन मगर, रमा न देतीं दर्श.
रमा रमा में मन मगर, रमा न देतीं दर्श?  - काकु वक्रोक्ति 
*
मिले सुनार सुनार से, अलंकार के साथ.
चिंता की रेखाएँ शत, हैं स्वामी के माथ..  -पुनरुक्तवदाभास  

******************



जातक रामायण में रामकथा :

राम के संदेह - " नहीं जानता रावण इसको ले भागा कैसे.
                     कौन कहे यह नहीं गयी थी साथ,
                     जानकर? इसके कहने से भागा था मैं 
                     पीछे मारीच के, और बाद में भेज दिया 
                     इसने लक्ष्मण को, वापस आ कर देखा          
                     हम ने: नहीं पता था कहीं किसी का,
                     कौन कहे वह छल था रावण का,
                     या दोंनों का? "
लंका पर आक्रमण - रामचन्द्र जी कहते हैं -
                   " ... लेकिन था कब मैं ने       
                     मारा रावण को सीता की खातिर?
                     था मेरा, मेरे पौरुष का अपमान, हरण
                     सीता का- लेना ही था अपना बदला,
                    मनवाना था अपना पौरुष, और आर्य 
                    गणों का फैलाना था दस्यु देश पर,
                    सीता का था नाम, बहाना सीता 
                    का था......" 
राम के ढोंग- कविता की विवादास्पद पंक्तियाँ यों हैं-
                 " .....  सीता को 
                   वनवास दिलाऊँ, और न्याय का ढोंग रचाऊँ 
                   कितने ढोंग, रचे जीवन में, एक और से 
                  क्या  बिगड़ेगा? सीता का था नाम चढा
                   जब मैं लंका पर, था किया कौन सा न्याय,
                  किया जब मैं ने छल से वध बालि का?
                  और विभीषण को फुसला कर जब रावण
                  का भेद निकाला- वही कौन सा न्याय राम का?
                  तो आज बहाना धोबी का लूं, ऊंची
                  ऊंची बात बनाऊं, प्रजा धर्म का, रामराज का
                 नया नमूना करूँ उपस्थित, भला इसी में
                  है अब मेरा, मेरी मर्यादा, का सीता का. "
 
अँधेरे से प्रकाश की ओर - रामायण के संदर्भ पढ़ें और 
इन विद्वानों से प्रश्न करके  सत्य की खोज करें |
१. रामायण की कथा " दशरथ जातक"
२. "रामकथा: उदभव और विकास" - डॉ. कामिल बुल्के
    ( राजकीय महाविधालय, रांची के हिंदी विभागाध्यक्ष )
३. "उत्तर पुराण"- रामायण का प्राचीन रूप 
      ( गुणभद्रकृत, तृतीय संस्करण )
४. "वाल्मीकि रामायण" - उत्तरकांड सर्ग-४२, श्लोक १८-२२
५. "तुलसी रामायण" छंद २३०-२३१
६. "हिन्दी साहित्य का इतिहास" - आचार्य राम चन्द्र शुक्ल 
      ( श्री रामायण भजन तरंगिणी से )
७. "ए स्टडी ऑफ़ दा रामायण ऑफ़ कंबन" 
     (तमिल विद्वान स्व.वी.वी.एस अय्यर  द्वारा- कंबन रामायण)
८. "रामायण" श्री सी. राजगोपालाचारी
     ( भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित )
९. " हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास"
      ( डॉ. रामकुमार वर्मा )
१०. "तुलसीदास" पुस्तक डॉ. माता प्रसाद गुप्त द्वारा
     तुलसीदास कला, प्रष्ठ.२७७, संस्करण पहला १९४२,
  ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष)
११. "कथा सरितसागर"  तिब्बती रामायण
१२. "किरत्तिवास रामायण" बँगला रामायण
१३. "नर्मदकृत" गुजराती रामायण
१४. "सेरीराम" मलाया रामायण
१५. " कश्मीरी रामायण"
१६. "सेरतकांड" जावा रामायण |

व्यंग्य रचना: दीवाली : कुछ शब्द चित्र: --संजीव 'सलिल'

व्यंग्य रचना:
दीवाली : कुछ शब्द चित्र:
संजीव 'सलिल'
*
माँ-बाप को
ठेंगा दिखायें.
सास-ससुर पर
बलि-बलि जायें.
अधिकारी को
तेल लगायें.
गृह-लक्ष्मी के
चरण दबायें.
दिवाली मनाएँ..
*
लक्ष्मी पूजन के
महापर्व को
सार्थक बनायें.
ससुरे से मांगें
नगद-नारायण.
न मिले लक्ष्मी
तो गृह-लक्ष्मी को
होलिका बनायें.
दूसरी को खोजकर,
दीवाली मनायें..
*
बहुमत न मिले
तो खरीदें.
नैतिकता को
लगायें पलीते.
कुर्सी पर
येन-केन-प्रकारेण
डट जाए.
झूम-झूमकर
दीवाली मनायें..
*
बोरी में भरकर
धन ले जाएँ.
मुट्ठी में समान
खरीदकर लायें.
मँहगाई मैया की
जट-जयकार गुंजायें
दीवाली मनायें..
*
बेरोजगारों के लिये
बिना पूंजी का धंधा,
न कोई उतार-चढ़ाव,
न कभी पड़ता मंदा.
समूह बनायें,
चंदा जुटायें,
बेईमानी का माल
ईमानदारी से पचायें.
दीवाली मनायें..
*
लक्ष्मीपतियों और
लक्ष्मीपुत्रों की
दासों उँगलियाँ घी में
और सिर कढ़ाई में.
शारदासुतों  की बदहाली,
शब्दपुत्रों की फटेहाली,
निकल रहा है दीवाला,
मना रहे हैं दीवाली..
*
राजनीति और प्रशासन,
अनाचार और दुशासन.
साध रहे स्वार्थ,
तजकर परमार्थ.
सच के मुँह पर ताला.
बहुत मजबूत
अलीगढ़वाला.
माना रहे दीवाली,
देश का दीवाला..
*
ईमानदार की जेब
हमेशा खाली.
कैसे मनाये होली?
ख़ाक मनाये दीवाली..
*
अंतहीन शोषण,
स्वार्थों का पोषण,
पीर, व्यथा, दर्द दुःख,
कथ्य कहें या आमुख?
लालच की लंका में
कैद संयम की सीता.
दिशाहीन धोबी सा
जनमत हिरनी भीता.
अफसरों के करतब देख
बजा रहा है ताली.
हो रहे धमाके
तुम कहते हो दीवाली??
*
अरमानों की मिठाई,
सपनों के वस्त्र,
ख़्वाबों में खिलौने
आम लोग त्रस्त.
पाते ही चुक गई
तनखा हरजाई.
मुँह फाड़े मँहगाई
जैसे सुरसा आई.
फिर भी ना हारेंगे.
कोशिश से हौसलों की
आरती उतारेंगे.
दिया एक जलाएंगे
दिवाली मनाएंगे..
*

बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

II श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र II मूल पाठ-तद्रिन, हिंदी काव्यानुवाद-संजीव 'सलिल'

 II  ॐ II

***********************************II श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र II

( मूल पाठ-तद्रिन हिंदी काव्यानुवाद-संजीव 'सलिल' )

नमस्तेस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते I
शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोsस्तुते II१II

सुरपूजित श्रीपीठ विराजित, नमन महामाया शत-शत.
शंख चक्र कर-गदा सुशोभित, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

नमस्ते गरुड़ारूढ़े कोलासुर भयंकरी I
सर्व पापहरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II२II

कोलाsसुरमर्दिनी भवानी, गरुड़ासीना नम्र नमन.
सरे पाप-ताप की हर्ता,  नमन महालक्ष्मी शत-शत..

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्ट भयंकरी I
सर्व दु:ख हरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II३II

सर्वज्ञा वरदायिनी मैया, अरि-दुष्टों को भयकारी.
सब दुःखहरनेवाली, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

सिद्धि-बुद्धिप्रदे देवी भुक्ति-मुक्ति प्रदायनी I
मन्त्रमूर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II४II

भुक्ति-मुक्तिदात्री माँ कमला, सिद्धि-बुद्धिदात्री मैया.
सदा मन्त्र में मूर्तित हो माँ, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

आद्यांतर हिते देवी आदिशक्ति महेश्वरी I
योगजे योगसंभूते महालक्ष्मी नमोsस्तुते II५II

हे महेश्वरी! आदिशक्ति हे!, अंतर्मन में बसो सदा.
योग्जनित संभूत योग से, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

स्थूल-सूक्ष्म महारौद्रे महाशक्ति महोsदरे I
महापापहरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II६II

महाशक्ति हे! महोदरा हे!, महारुद्रा  सूक्ष्म-स्थूल.
महापापहारी श्री देवी, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

पद्मासनस्थिते देवी परब्रम्ह स्वरूपिणी I
परमेशीजगन्मातर्महालक्ष्मी नमोsस्तुते II७II

कमलासन पर सदा सुशोभित, परमब्रम्ह का रूप शुभे.
जगज्जननि परमेशी माता, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

श्वेताम्बरधरे देवी नानालंकारभूषिते I
जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मी नमोsस्तुते II८II

दिव्य विविध आभूषणभूषित, श्वेतवसनधारे मैया.
जग में स्थित हे जगमाता!, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

महा लक्ष्यमष्टकस्तोत्रं य: पठेद्भक्तिमान्नर: I
सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यंप्राप्नोति सर्वदा II९II

जो नर पढ़ते भक्ति-भाव से, महालक्ष्मी का स्तोत्र.
पाते सुख धन राज्य सिद्धियाँ, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

एककालं पठेन्नित्यं महापाप विनाशनं I
द्विकालं य: पठेन्नित्यं धन-धान्यसमन्वित: II१०II

एक समय जो पाठ करें नित, उनके मिटते पाप सकल.
पढ़ें दो समय मिले धान्य-धन, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

त्रिकालं य: पठेन्नित्यं महाशत्रु विनाशनं I
महालक्ष्मीर्भवैन्नित्यं प्रसन्नावरदाशुभा II११II

तीन समय नित अष्टक पढ़िये, महाशत्रुओं का हो नाश.
हो प्रसन्न वर देती मैया, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

 II तद्रिन्कृत: श्री महालक्ष्यमष्टकस्तोत्रं संपूर्णं  II

तद्रिंरचित, सलिल-अनुवादित, महालक्ष्मी अष्टक पूर्ण.
नित पढ़ श्री समृद्धि यश सुख लें, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

*********

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

दोहा सलिला : दोहों की दीपावली: --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला :
दोहों की दीपावली: 
--संजीव 'सलिल'

दोहों की दीपावली, रमा भाव-रस खान.
श्री गणेश के बिम्ब को, अलंकार अनुमान..

दीप सदृश जलते रहें, करें तिमिर का पान.
सुख समृद्धि यश पा बनें, आप चन्द्र-दिनमान..

अँधियारे का पान कर करे उजाला दान.
माटी का दीपक 'सलिल', सर्वाधिक गुणवान..

मन का दीपक लो जला, तन की बाती डाल.
इच्छाओं का घृत जले, मन नाचे दे ताल..

दीप अलग सबके मगर, उजियारा है एक.
राह अलग हर पन्थ की, ईश्वर सबका एक..

बुझ जाती बाती 'सलिल', मिट जाता है दीप.
यही सूर्य का वंशधर, प्रभु के रहे समीप..

दीप अलग सबके मगर, उजियारा है एक.
राह अलग हर पन्थ की, लेकिन एक विवेक..

दीपक बाती ज्योति को, सदा संग रख नाथ!
रहें हाथ जिस पथिक के, होगा वही सनाथ..

मृण्मय दीपक ने दिया, सारा जग उजियार.
तभी रहा जब परस्पर, आपस में सहकार..

राजमहल को रौशनी, दे कुटिया का दीप.
जैसे मोती भेंट दे, खुद मिट नन्हीं सीप..

दीप ब्रम्ह है, दीप हरी, दीप काल सच मान.
सत-शिव-सुन्दर है यही, सत-चित-आनंद गान..

मिले दीप से दीप तो, बने रात भी प्रात.
मिला हाथ से हाथ लो, दो शह भूलो मात..

ढली सांझ तो निशा को, दीप हुआ उपहार.
अँधियारे के द्वार पर, जगमग बन्दनवार..

रहा रमा में मन रमा, किसको याद गणेश.
बलिहारी है समय की, दिया जलाये दिनेश..

लीप-पोतकर कर लिया, जगमग सब घर-द्वार.
तनिक न सोचा मिट सके, मन की कभी दरार..

सरहद पर रौशन किये, शत चराग दे जान.
लक्ष्मी नहीं शहीद का, कर दीपक गुणगान..

दीवाली का दीप हर, जगमग करे प्रकाश.
दे संतोष समृद्धि सुख, अब मन का आकाश..

कुटिया में पाया जनम, राजमहल में मौत.
आशा-श्वासा बहन हैं, या आपस में सौत?.

पर उन्नति लख जल मरी, आप ईर्ष्या-डाह.
पर उन्नति हित जल मरी, बाती पाई वाह..

तूफानों से लड़-जला, अमर हो गया दीप.
तूफानों में पल जिया, मोती पाले सीप..

तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस..

जीते की जय बोलना, दुनिया का दस्तूर.
जलते दीपक को नमन, बुझते से जग दूर..

मातु-पिता दोनों गए, भू को तज सुरधाम.
स्मृति-दीपक बालकर, करता 'सलिल' प्रणाम..

जननि-जनक की याद है, जीवन का पाथेय.
दीप-ज्योति में बस हुए, जीवन-ज्योति विधेय..

नन्हें दीपक की लगन, तूफां को दे मात.
तिमिर रात का मिटाकर, 'सलिल' उगा दे प्रात..

दीप-ज्योति तन-मन 'सलिल', आत्मा दिव्य प्रकाश.
तेल कामना को जला, तू छू ले आकाश..


***********************
एक कविता:
बदलेगा परिवेश....
 संजीव 'सलिल'
*
बहुत कुछ बाकी अभी है
मत हों आप निराश.
उगता है सूरज तभी
जब हो उषा हताश.
किरण आशा की कई हैं
जो जलती दीप.
जैसे मोती पालती 
निज गर्भ में चुप सीप.
*
आइये देखें झलक 
है जबलपुर की बात
शहर बावन ताल का
इतिहास में विख्यात..
पुर गए कुछ आज लेकिन
जुटे हैं फिर लोग.
अब अधिक पुरने न देंगे
मिटाना है रोग.
रोज आते लोग 
खुद ही उठाते कचरा.
नीर में या तीर पर
जब जो मिला बिखरा.
भास्कर ने एक
दूजा पत्रिका ने गोद
लिया है तालाब
जनगण को मिला आमोद.
*   
झलक देखें दूसरी
यह नर्मदा का तीर.
गन्दगी है यहाँ भी
भक्तों को है यह पीर.
नहाते हैं भक्त ही,
धो रहे कपड़े भी.
चढ़ाते हैं फूल-दीपक
करें झगड़े भी.
बैठकें की, बात की,
समझाइशें भी दीं.
चित्र-कविता पाठकर
नुमाइशें भी की.
अंतत: कुछ असर
हमको दिख रहा है आज.
जो चढ़ाते फूल थे वे
लाज करते आज.
संत, नेता, स्त्रियाँ भी
करें कचरा दूर.
ज्यों बढ़ाकर हाथ आगे
बढ़ रहा हो सूर.
*
इसलिए कहता:
बहुत कुछ अभी भी है शेष
आप लें संकल्प,
बदलेगा तभी परिवेश.
*
प्रीतम जिसके साथ हो, उसे सभी कुछ साध्य.
बिन प्रीतम कैसे मिले, कहिये तो आराध्य?.

गीत प्रीत का लिखें मिल, रीत बने नव मीत.
जहाँ जीत में हार हो, और हार में जीत..

अफसर नेता कर रहे, मक्कारी दिन-रात.
जनगण जागे, बदल दे, मजबूरी-हालात..

मन को छूते
सार्थक हैं हाइकु
सन्देश देते..


लिखते रहें
तम में दिया बाले
दिखते रहें..

हमारी देश भक्ति भावना का कीजिये दर्शन.
यहाँ जो हैं न उनसे पूछिए 

Forward this mail to every Indian, let every body know that these are our leaders.......
Shameless people....... Fit for Nothing....
Have a look at two of the leaders we have chosen to rule us.... sitting and having a leisure time when our
 
National Anthem is being played.....




To:


All Indians
(Please send this to every1 in ur chain)  



Disrespect - WHO THE HELL IS SHE ????


 

Pls forward this to few of our news channels











Hello Everyone,
These pictures I am sending you all shows the gross disrespect and insult to
the Indian National flag by this so called 'spiritual leader' and self
proclaimed 'GOD' Mataji Nirmala Devi. This disrespect to our country'sflag
shows that she has definitely no respect or love for the country thatgave
her so much and her husband who was an IAS officer and chief of the SCI  
(he is seated next to her in the pics). Such a shame.
I do urge and plead with all Indians who deeply love their country to
forward the photos to as many people as possible so that it does catchthe
eye of someone higher up in the Indian Govt who can really take someaction
against this cult.

 Pls dont keep this mail in your mail box as I feel keeping this in mail box itself is an insult to our country.