कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

चंद चौपदे: --संजीव 'सलिल'

चंद चौपदे
संजीव 'सलिल'
*
ज़िन्दगी है कि जिए जाते हैं.
अश्क अमृत सा पिए जाते हैं.
आह भरना भी ज़माने को गवारा न हुआ
इसलिए होंठ चुपचाप सिये जाते हैं..
*
नेट ने जेट को था मार दिया.
हमने भी दिल को तभी हार दिया.
नेट अब हो गया जां का बैरी.
फिर भी हमने उसे स्वीकार किया..
*
ज़िन्दगी हमेशा बेदाम मिली.
काम होते हुए बेकाम मिली.
मंजिलें कितनी ही सर की इसने-
फिर भी हमेशा नाकाम मिली..
*
छोड़कर छोड़ कहाँ कुछ पाया.
जो भी छोड़ा वही ज्यादा भाया.
जिसको छोड़ा उसी ने जकड़ा है-
दूर होकर न हुआ सरमाया..
*
हाथ हमदम का पकड़ना आसां
साथ हमदम के मटकना आसां
छोड़ना कहिये नहीं मुश्किल क्या?
माथ हमदम के चमकना आसां..
*
महानगर में खो जाता है अपनापन.
सूनापन भी बो जाता है अपनापन.
कभी परायापन गैरों से मिलता है-
देख-देखकर रो जाता है अपनापन..
*
फायर न हो सके मिसफायर ही हो गये.
नेट ना हुए तो वायर ही हो गये.
सारे फटीचरों की यही ज़िंदगी रही-
कुछ और न हुए तो शायर ही हो गये..
*
हाय अब तक न कुछ भी लिख पाया.
खुद को भी खुद ही नहीं दिख पाया.
जो हुआ, हुआ खुदा खैर करे.
खुद को सबसे अधिक नासिख पाया..
*
अब न दम और न ख़म बाकी है.
नहीं मैखाना है, न साकी है.
जिसने सबसे अधिक गुनाह किये-
उसका दावा है वही पाकी है..
*
चाहा सम्हले मगर बहकती है.
भ्रमर के संग कली चहकती है.
आस अंगार, साँस की भट्टी-
फूँक कोशिश की पा दहकती है..
*
हमने खुद को भले गुमनाम किया.
जगने हमको सदा बदनाम किया.
लोग छिपकर गुनाहकर पुजते-
 हम पिटे, पुण्य सरेआम किया..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



कोई टिप्पणी नहीं: