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रविवार, 8 जनवरी 2012

रचना-प्रति रचना: महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश-संजीव वर्मा

रचना-प्रति रचना
ताबीर जिस की कुछ नहीं, बेकार का वो ख़्वाब हूँ 

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश

ताबीर जिसकी कुछ नहीं, बेकार का वो ख़्वाब हूँ
कोई जिसे समझा नहीं मैं वो अजब किताब हूँ
 
न रंग है न रूप है, मैं फूल हूँ खिजाओं का
मीज़ान जिसका है सिफ़र वो ना-असर हिसाब हूँ
 
जो आँसुओं को सोख कर भीतर ही भीतर रहे नम
बाहर से दिखे मखमली वो रेशमी हिजाब हूँ
 
हस्ती मेरी किस काम की जीवन ही मेरा घुट गया
जो उम्र-कैद पा चुकी, बोतल की वो शराब हूँ
 
लिखता तो हूँ गज़ल ख़लिश, न शायरों में नाम है
जिस की रियासत न कोई वो नाम का नवाब हूँ.
 
ताबीर = स्वप्नफल
खिजा = पतझड़
मीज़ान = जोड़, कुल जमा
 *
मुक्तिका: संजीव वर्मा
*
ताबीर चाहे हो न हो हसीन एक ख्वाब हूँ.
पढ़ रहे सभी जिसे वो प्यार की किताब हूँ..


अनादि हूँ, अनंत हूँ, दिशाएँ हूँ, दिगंत हूँ.
शून्य हूँ ये जान लो, हिसाब बेहिसाब हूँ..

मुस्कुराता अश्रु हूँ, रो रही हँसी हूँ मैं..
दिख रहा  हिजाब सा, लग रहा खिजाब हूँ..
 
दिख रहा अतीत किन्तु आज भी नवीन हूँ.
दे रहा मजा अधिक-अधिक कि ज्यों शराब हूँ..
 
ले मिला मैं कुछ नहीं, दे चला मैं कुछ नहीं.
खाली हाथ फिर रहा दिल का मैं नवाब हूँ..

'सलिल' खलिश बटोरता, लुटा रहा गुलाब हूँ.
जवाब की तलाश में, सवाल लाजवाब हूँ..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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