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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

क्या द्रौपदी मनस्विनी बन पाई है? -डॉ. सुमित्रा अग्रवाल


क्या द्रौपदी मनस्विनी बन पाई है?
डॉ. सुमित्रा अग्रवाल

जन्म: 13 सितंबर 1947, को कराची पाकिस्तान। 
महाभारत की द्रौपदी और आधुनिक रूप विषय पर राजस्थान यूनिवर्सिटी से 2007 में डी.लिट् के लिए थीसिस जमा किया गया‌।
1992 में एस.एन.डी.टी. यूनिवर्सिटी, मुंबई से नरेश मेहता के काव्य में मिथकीय चेतना विषय पर पीएच-डी. जिसके लिए 3 वर्ष तक जीआरएस प्राप्त।
मुंबई यूनिवर्सिटी के स्नातकोत्तर विभाग में व्याख़्याता तथा सोफिया कॉलेज में व्याख्याता के रूप में अध्यापन।
प्रकाशन :
नरेश मेहता के काव्य में मिथकीय चेतना शीर्षक से आनंद प्रकाशन द्वारा 1994 में पुस्तक प्रकाशितविभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में 15 रिसर्च पेपर तथा 50 से अधिक समीक्षाएँ तथा लेख प्रकाशित।
संप्रति :
बहुपतित्व : एक तुलनात्मक अध्ययन – खस आदिवासी समाज तथा महाभारत की द्रौपदी के विशेष संदर्भ में
संपर्क : बी/604, वास्तु टावर, एवरशाइन नगर, मलाड (पश्चिम) पिन : 400 064 मो. 98921 38846
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``मैंने जब कहानी लिखने के लिये कलम पकड़ी तो यह मेरे जेहन का तकाजा था कि मेरी कहानी की किरदार वह औरत होगी जो द्रौपदी की तरह भरी सभा में कोई सवाल पूछने की जुर्रत रखती हो.... इसलिये कह सकती हूँ कि मेरी कहानियों में जो भी किरदार हैं, उन औरतों के किरदान जिन्दगी से ही लिये हुये हैं, लेकिन उन औरतों के जो यथार्थ और यथार्थ का फासला तय करना जानती है - यथार्थ जो है, और यथार्थ जो होना चाहिये - और वह जो द्रौपदी की तरह भरी सभा में वक्त के निजाम से कोई सवाल पूछने की जुर्रत रखती है।''1
अमृता प्रीतम का उपर्युक्त मंतव्य यह सोचने के लिये प्रेरित करता है कि ऐसा क्या है इस प्राचीना द्रौपदी में जो आज की अति आधुनिक और स्वतंत्रचेता लेखिका के लिये भी वह रोलमॉडल बनकर उसके मानस में विराज रही है और इसी के साथ नित नये रूप धारणकर, नये सवालों के साथ काल के समान खड़ी हो रही है। उसके सवालों की धार पहले भी बड़ी पैनी थी, आज भी वह उतनी ही पैनी है। कहाँ से पाई उसने यह धार? कब तक उसका सवाल हवा में यों ही खड़ा रहेगा? भविष्य की नारी भी क्या उसके सवालों की ध्वनि में अपने सवालों के बीज देखेगी?
कैसी है यह द्रौपदी? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिये जब समुद्र के समान विशाल, वहन और गंभीर महाभारत खोलते हैं तो यज्ञ की अग्नि से बाहर आती पूर्णयौवना, सर्वांगसुंदरी, नित्ययौवना द्रौपदी दिखाई देती है। उसका प्रादुर्भाव और अधिक असाधारण बनाने के लिये कवि ने एक चमत्कार की सृष्टि की है जो द्रौपदी की महानता और शक्तिमत्ता को प्रकर्ष तक पहुँचाता है। यज्ञ की ज्वालाओं से अपनी मानसपुत्री द्रौपदी को आविर्भूत होते दर्शाकर महामुनी व्यास ने लौकिकता पर अलौकिकता का दर्शन देते हुये उसे एक अभिनव व्यक्तित्व प्रदान किया है। महाभारत के पटल पर उसका अविर्भाव देवों, यक्षों और मानवों द्वारा समान रूप से काम्य स्त्री के रूप में हुआ है। युधिष्ठिर के शब्दों में एक पुरूष जैसी स्त्री की कामना करता है - द्रौपदी वैसी ही है। आकर्षण उसका दुनिर्वार है, कमनीयता लुब्ध करनेवाली है, बुद्धिमत्ता चमत्कृत करनेवाली है, धैर्य अभिभूत करनेवाला है और तेजस्विता प्रखर है। उसका गतिशील उर्जासंपन्न स्त्रीत्व, परिवेश से समायोजन की उसकी अद्भुत क्षमता, जागृत विवेक, समर्थ मनस्विता, सहज मनःपूत व्यक्तित्व सभी मिलकर उसे एक ऐसे तेजोवलय में स्थापित करते हैं जो उसके जन्मना तेजराशि रूप के अनुरूप ही है। वह मानो सीता, मैत्रेयी और रति का सम्मिलित नारी विग्रह है। महाभारत में उसका स्त्रीत्व इतना प्रभावशाली है कि उसके समक्ष द्रौपदी के स्त्री-जीवन की विविध भूमिकायें नेपथ्य में चली जाती हैं और केवल उसका सचेतन स्त्रीत्व सम्मुख रह जाता है।
भारतीय स्त्रीत्व के समस्त आदर्शों का मूर्त रूप होने पर भी वह लौकिक ही है। हिमालयी बहुपतित्वयुक्त प्रदेशों में वह देवी की स्थानापन्न है। उसके नाम पर बलि दी जाती है, पूर्वकाल में वहाँ पांडवनृत्य में उसकी भूमिका का निर्वाह करनेवाली अभिनेत्री उसके नाम पर बलि दी गई बकरी का खून पीती थी और द्रौपदी की आत्मा द्वारा अविष्ट होकर अपनी भूमिका का निर्वषन पूर्ण जीवंतता के साथ करती थी। इसीलिये प्रत्येक स्त्री के अंदर द्रौपदी सांस लेती है - अपनी ही तरह से। यही उसके सार्वकालिक आधुनिक व्यक्तित्व का केंद्रबिंदु है।
द्रौपदी मे एक सनसनाता चैतन्य है, एक ऐसी उर्मि है कि अपने स्थान और काल को लांघकर अपने युग के विभूतिपुरूष श्रीकृष्ण से वह सख्य स्थापित कर पाती है। यह सख्य उसके व्यक्तित्व का पूरक बनकर उसे समृद्ध करता है। यह उर्मि उसे नित नवीना बनाये रखती है और यह पूर्णता, यह समृद्धि, यह संपन्नता, उसके आकर्षण में एक दीप्ति उत्पन्न करती है। जीवन के अन्य सभी रूढ़, सम्बन्ध व्यक्ति को पूर्ण करते हैं पर उस पूर्णता के पश्चात् भी कुछ ऐसा रह जाता है जो उसमें समा नहीं पाता। उसी कुछ को द्रौपदी ने इस सख्य में समो दिया है।
एक आधुनिक स्त्री का मानस स्वकेन्द्रित होता है। उसी स्वकेन्द्रित मानस के द्वारा लिये गये निर्णय को वह सुविधा के अनुसार भिन्न-भिन्न व्यक्तियों से पूर्ण कराती है और इस सारे आयोजन के केन्द्र में स्वयं स्थित रहती है। द्रौपदी का आधुनिक मानस भी स्वयं केन्द्र में स्थित रहकर अपने द्वारा लिये निर्णयों को अन्य शक्तियों की सहायता से पूर्ण करता है। महाभारत की नायिका द्रौपदी अपने समय से भिन्न या विपरीत व्यक्तित्व अर्जित कर सकी है। उसकी विशिष्ट आनुवंशिक तथा पारिवेशिक शक्तियाँ इस संदर्भ में उसकी सहायक हुई हैं। `स्व' से निर्मित स्वातंत्र्यचेतना का विकास वह इस सीमा तक करती है कि उसके प्रकाश में एक स्वतंत्र जीवनस्वप्न वह न केवल देखती है अपितु उसके आधार पर अपने जीवन और परिवेश का मूल्यांकन भी करती है, विदुषी, पंडिता, महाप्राज्ञा द्रौपदी इसी विशिष्ट संदर्भ में `मनस्विनी' है। यह मनस्विनी युधिष्ठिर द्वारा हारे गये तेरह वर्षों के काल को मुट्ठी से सरकने नहीं देती - उसे बांधे रखती है।
महाभारतकालीन समाज में स्त्री का स्थान पतनोन्मुख था उसके गौरव की दीप्ति धुंधली पड़ती जा रही थी। पर स्त्री के इस दासत्वकाल में द्रौपदी एक प्रज्वलित दीपशिखा के रूप में महाभारत के पटल पर उभरती है। वह अदम्य स्वातंत्र्यचेतना द्वारा परिचालित है। अपने स्वयंवर को यह मनस्विनी अपने अपार मनोबल से वास्तविक `स्वयं-वर' बना देती है। विवाह के पश्चात् उसका बहुपतित्व उसे कुंठित नहीं बनाता - उसकी प्रभा में और भी दीप्ति ला देता है। पांडवों सदृश्य अमित तेजस्वी वीरों की पत्नी के रूप में वह अपने गौरव का स्मरण महाभारत में अनेक स्थलों पर करती है जिससे स्पष्ट है कि यह बहुपतित्व द्रौपदी की सामर्थ्य में श्रीवृद्धि कर उसे और अधिक गौरवशालिनी और अधिक समर्थ तथा और अधिक आकर्षक बनाता है। भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व से युक्त अपने पांचों पतियों को एकसूत्र में आबद्ध रखने में समर्थ द्रौपदी की प्रशंसा महाभारत के अनेक प्रमुख व्यक्तियों ने की है, अपने सफल बहुपतित्व से समर्थ बनी द्रौपदी युगपुरूष कृष्ण की सखी बनती है। सखी बनकर इस सख्य को वह केवल भावात्मक आयाम तक सीमित नहीं रखती अपितु जीवन के प्रत्येक आयाम में वह इस सख्य को मूर्त रूप प्रदान कर सखा कृष्ण का आवाहन करती है।
द्रौपदी का बहुपतित्व उसकी सामर्थ्य में किस प्रकार वृद्धि कर उसे भारतीय इतिहास पुराण की सर्वश्रेष्ठ स्त्री के रूप में प्रतिष्ठित करता है - इस तथ्य की स्थापना के क्रम में एक अन्य सत्य उद्घाटित हुआ कि आदिवासी स्त्री की मूल्य संकल्पना, प्रखर स्वातंत्र्यचेतना और बहुपतित्व के निर्वाह की अद्भुत सहज क्षमता महाभारत की द्रौपदी में उसी रूप और मात्रा में विद्यमान है। यह सत्य इस तथ्य का संकेतन है कि द्रौपदी की आनुवांशिकता का घनिष्ठ सम्बन्ध इस स्वतंत्र समर्थ आदिवासी स्त्री से है और उसका अग्नि से जन्म उसके व्यक्तित्व के अग्निसंस्कार का संकेतक है। परिस्थिति जन्य प्रमाण इस अवधारणा का समर्थन करते हैं।
द्रौपदी को देखकर प्रतीत होता है कि द्रौपदी यानि व्यास महामुनि के मन की स्त्री विषयक कल्पना तो नहीं है? महामुनि को अभिप्रेत वास्तविक स्त्री संभवतः द्रौपदी के रूप में उन्होंने साकार की है। इसलिये वह `है' `जैसी ही है' - बनती नहीं गई है। स्त्रीत्व के सारे सौन्दर्य, सारे माधुर्य, सारी शालीनता, स्त्री में निहित स्त्रीत्व की धारदार अस्मिता, स्वत्व का प्रचंड भान अखंड सेवावृत्ति - इन सबका प्रतीक है द्रौपदी। द्रौपदी जो भारतीय बहुपतित्व की आनंदप्रद देवी भी है। 
द्रौपदी की प्रासंगिकता और आधुनिकता की दृष्टी से मृणाल कुलकर्णी के विचार महत्त्वपूर्ण है जिन्होने दूरदर्शन के धारावाहिक `द्रौपदी' में द्रौपदी के पात्र को जीवन्त किया है। उनकी दृष्टी में, ``पूरे विश्व में वह अपने हक के लिये अकेली लड़ती है। वास्तव में द्रौपदी के अन्दर सीता, गार्गी और क्लियोपेट्रा का अद्भुत संगम नजर आता है। द्रौपदी ही महाभारत की धुरी है। उसी के चारों और महाभारत की समूची कहानी घूमती है। वह पांडवों की शक्ति और प्रेरणा है। द्रौपदी अपने समय से बहुत आगे थी वास्तव में वह हर समय की महिला का प्रतिनिधित्व करती है। यही वजह है कि द्रौपदी का पात्र आज भी प्रासंगिक है।''2
स्त्री की बदलती तस्वीर की बात उठने पर संदर्भित किया गया है द्रौपदी को। कुरूसभा में द्रौपदी ने जो प्रश्न उठाया है वह आज भी उठाया जा रहा है - नये संदर्भों में, नये रूपों में। इस विषय में मृदुला गर्ग सदृश विचारशील लेखिका का मंतव्य दृष्टव्य है - ``मुझे लगता है, द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर हमें मध्यवर्ग की औरत के बजाय श्रमिकवर्ग की औरत ही दे सकती है। वह जानती है कि उसका मूल्य उसकी कल्याणकारी शक्ति में निहित है। उसे अपने प्रभाव का दायरा बढ़ाना होगा, जिसमें घर-गृहस्थी से आगे बढ़कर वह परिवेश और पर्यावरण को भी समेट सके। उसके लिये जरूरी है कि सरकार स्थानीय पर्यावरण के रखरखाव, प्रबंध और नवीनीकरण का अधिकार महिलाओं को दे दें।''3
अपनी इसी आधुनिकता के कारण महाभारत की बीजस्वरूपा प्राचीना द्रौपदी आधुनिक भारतीय साहित्य में अनेक रंगों में, अनेक रूपों में स्वयं को अभिव्यक्त कर रही है। यह उसके व्यक्तित्व की शक्ति है कि अनेक प्रतिष्ठित मनस्वी सर्जकों ने उसके बहुआयामी व्यक्तित्व को अनेक नवीन आयामों में देखा है। ये सभी नवीन आयाम मिलकर जिस प्रतिमा का निर्माण करते हैं वह प्रतिमा अत्यंत अनूठी है। आधुनिक भारतीय भाषाओं में द्रौपदी के मिथकीय पुनःसर्जन में उसके व्यक्तित्व की जिस विशिष्टता को प्रमुखता से रेखांकित किया गया है वह है उसकी शक्तिमत्ता, उसकी तेजस्विता, उसकी सनातन आधुनिकता। असमिया महाभारत से लेकर अति नवीन सृजनों तक उसकी यह विशिष्टता बनी रही है। कहीं वह पांडवों की विजयिनी सेना का नेतृत्व कर रही है, कहीं भारतमाता के रूप में अन्याय के प्रतिकार की शपथ ले रही है, कहीं पांडवों की गांडीव शक्ति है और कहीं वीरांगना क्षत्राणीरूप होकर युद्धकथाओं को सुनकर पुलकित हो रही है। सभी स्थानों पर वह पांडवों को चैतन्य करनेवाली ऊर्जा है। वह कृष्णप्रीति के रंग में रंगी है पर साथ ही मनस्विनी स्वयंसिद्धा है। उसका मनःपूत व्यक्तित्व अपनी ही पवित्रता से शुचितासंपन्न है।
आधुनिक स्त्री-विमर्श जिस शक्तिस्वरूपा, स्वयंसिद्धा, मनस्विनी नारी की प्रतिमा सामने रखकर अपनी बात कह रहा है वह प्रतिमा महामुनि व्यास ने महाभारत में हजारों वर्षों पूर्व ही गढ़कर लोकमानस में प्रस्थापित कर दी थी। यह द्रौपदी निरंतर मेरे मन में बसी रही, नित्य नवीन रूपों में मन के आकाश में उदित होती रही और इसी क्रम में पुनः अमृता प्रीतम की द्रौपदी मन के आकाश में आ खड़ी होती है-
``मैं जन्म जन्म की द्रौपदी हूँ
 मैं पाँच तत्व की काया....
 किसी एक तत्व से ब्याही हूँ....
 जुए की वस्तु की तरह
 राजसभा में आई थी
 इस जन्म में भी वह कौरव हैं
 वही चेहरे, वही मोहरें,
 और उन्होंने वही बिसात बिछायी है
 मैं वही पांच तत्व की काया
 मैं वही नारी द्रौपदी...
 आज जुए की वस्तु नहीं हूँ
 मैं जुआ खेलने आयी हूँ....
 मैं जन्म-जन्म की द्रौपदी हूँ।
 पूरा समाज कौरवों ने जीत लिया
 और नया दांव खेलने लगे
 तो पूरी सियासत दांव पर लगा दी।
 मैंने दाएँ हाथ से समाज हार दिया
 बायें हाथ से सियासत हार दी
 लेकिन कौरव दुहाई देते हैं-
 कि पांच तत्व... मेरे पांच पांडव हैं
 मैं भरी सभा से उठी हूँ
 और पाँचों जीतकर लायी हूँ...
 मैं जन्म जन्म की द्रौपदी हूँ।''4
1. द्रौपदी से द्रौपदी तक - अमृता : एक नजरिया/इमरोज
2. नवभारत टाइम्स, मृणाल कुलकर्णी 15/10/2001
3. मृदुला गर्ग, नवभारत टाइम्स 15/10/2001
4. द्रौपदी से द्रौपदी तक - अमृता : एक नजरिया/इमरोज
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आभार: रचना समय 

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