कुल पेज दृश्य

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

धरोहर: दोहा दुनिया

धरोहर:

दोहा दुनिया


रसखान

प्रेम प्रेम सब ही कहें, प्रेम न जानत कोय।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोय॥

काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्सर्य।
इन सबहीं ते प्रेम है - परे, कहत मुनिवर्य॥

बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।
सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥
 

बिहारी

नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।
अली कली में ही बिंध्यो, आगे कौन हवाल।।
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥
कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।
नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।।
 

रहीम

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुस, चून॥
अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम।
साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम॥

 

कबीर

तिनका कबहुँ न निंदिये, पाँव तले भलि होय ।
कबहूँ उड़ आँखन पड़े, पीर घनेरी होय ॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर ॥

वृन्द

कुल सपूत जान्यौ परै लखि सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के होत चीकने पात॥

क्यों कीजै ऐसो जतन जाते काज न होय।
परवत पर खोदी कुआँ कैसे निकसे तोय॥

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान॥
 
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खइयो मास
दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस
[इस दोहे के रचयिता के बारे में संदेह है]
 
केशवदास
केशव केसन असि करी जस अरि हु न कराय
चन्द्र वदन मृग लोचनी बाबा कह कें जाय
 
 
चंदबरदाई
चार बास चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान
ता ऊपर सुल्तान है मत चूकै चौहान
 
रसलीन
कुमति चंद प्रति द्यौस बढ़ि मास मास कढ़ि आय।
तुव मुख मधुराई लखे फीको परि घटि जाय
 
***
 

कोई टिप्पणी नहीं: