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गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

विमर्श: नारी प्रताड़ना का दंड? संजीव 'सलिल'

विचार-विमर्श नारी प्रताड़ना का दंड? संजीव 'सलिल'

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दिल्ली ही नहीं अन्यत्र भी भारत हो या अन्य विकसित, विकासशील या पिछड़े देश, भाषा-भूषा, धर्म, मजहब, आर्थिक स्तर, शैक्षणिक स्तर, वैज्ञानिक उन्नति या अवनति सभी जगह नारी उत्पीडन एक सा है. कहीं चर्चा में आता है, कहीं नहीं किन्तु इस समस्या से मुक्त कोई देश या समाज नहीं है.

फतवा हो या धर्मादेश अथवा कानून नारी से अपेक्षाएं और उस पर प्रतिबन्ध नर की तुलना में अधिक है. एक दृष्टिकोण 'जवान हो या बुढ़िया या नन्हीं सी गुडिया, कुछ भी हो औरत ज़हर की है पुड़िया' कहकर भड़ास निकलता है तो दूसरा नारी संबंधों को लेकर गाली देता है.

यही समाज नारी को देवी कहकर पूजता है यही उसे भोगना अपना अधिकार मानता है.  

'नारी ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया' यदि मात्र यही सच है तो 'एक नहीं दो-दो मात्राएँ नर से भारी नारी' कहनेवाला पुरुष आजीवन माँ, बहन, भाभी, बीबी या कन्या के स्नेहानुशासन में इतना क्यों बंध जाता है 'जोरू का गुलाम कहलाने लगता है.

स्त्री-पीड़ित पुरुषों की व्यथा-कथा भी विचारणीय है.

घर में स्त्री को सम्मान की दृष्टि से देखनेवाला युअव अकेली स्त्री को देखते ही भोगने के लिए लालायित क्यों हो जाता है?

ऐसे घटनाओं के अपराधी को दंड क्या और कैसे दिया जाए. इन बिन्दुओं पर विचार-विमर्श आवश्यक प्रतीत होता है. आपका स्वागत है.

5 टिप्‍पणियां:

seema agrawal ने कहा…

seema agrawal
जब तक महिलाओं के प्रति मूलभूत सोच नहीं बदलती ...सिर्फ एक अपराधी को दंड मिल जाने से कुछ भी नहीं बदलेगा | अपराधी के साथ साथ वो सम्पूर्ण तंत्र ज़िम्मेदार है और अपराधी है जिसको सुरक्षा व्यवस्था की चिंता करनी चाहिए | एक दिन के बाद आज तुरंत ही खबर आयी बंगाल से ....वहाँ भी दरंदिगी की इंतिहा कर दी ....नॉएडा में बेहोश पडी युवती मिली ... उफ़ ..कुछ दिन पहले ही)जुलाई माह ) कलकत्ते की सड़क पर गुंडों ने सरेआम लड़की को बुरी तरह प्रताड़ित किया था |
जब तक बीमार मानसिकता को सांगोपांग सुधार नहीं मिलता ये अपराध बंद नहीं होंगे स्त्रियों की स्वतन्त्रता पक्ष में झंडा उठा कर घूमने वाले समूह ऐसे समय पर और अधिक सक्रिय हो उठते हैं और दोचार दिन बाद झंडे लपेट कर रख दिए जाते हैं जनता का भी आक्रोश तभी तक घुमड़ता है जब तक समाचार सुखियों में में समाचार breaking news की तरह सुनाया जाता रहता है ...कवियों और आलेख कार अपनी तरफ से एक एक समिधा विरोध के हवन कुंड में डाल कर कर्तव्य की इत्तिश्री कर लेंगे
पर एक सवाल यह भी है इससे अधिक हम और क्या कर सकते हैं
जरूरत तो मानसिक प्रगति की है इस प्रगति की स्वीकार्यता की है महिलायें जिस तेजी से आगे बढ़ रही हैं परुष मानसिकता उतनी तेजी से नहीं बदल रही उसकी चाल धीमी ही नहीं अवरुद्द है ...जब महिलाओं पर पहनावे,बाहर निकालने संबंधी ,व्यवहार संबंधी प्रतिबन्ध हुआ करते थे उस समय ये मौके उन्हें चोरी छिपे सिर्फ घरों में मिला करते थे (इस विषय पर भी कई शोध हो चुके हैं ) अब तो मिलने वाले अवसरों का विस्तार हो चूका है |....
कठोर से कठोर दण्ड के साथ साथ, इस प्रकार के मामलों का निपटारा भी त्वरित रूप से होना चाहिए ...दिल्ली में ५
fast track courts की बात घोषित कर दी गयी है दूसरे और राज्यों को इंतज़ार है अभी इस प्रकार की घटनाओं का ......

Dr.Prachi Singh ने कहा…

Dr.Prachi Singh

महिला किसी भी देश की, वर्ग की, उम्र की हो आज सुरक्षित नहीं.

विकृत मानसिकता के अपराधियों की गाज कब कहाँ कैसे किस रूप में गिरे एक डर मन-मस्तिष्क में प्रायःव्याप्त रहता है. नन्ही नन्ही बच्चियां भी हमारे समाज में सुरक्षित नहीं.

इस घृणित अपराध को अंजाम देने के पीछे के कारणों पर चर्चा की जानी बहुत ज़रूरी है क्योंकि ये हमारे समाज में परिवारों में हम किस तरह की परवरिश दे रहे हैं इस से जुडी है...

अनजाने ही बचपन से हर पुरुष को ये सिखा दिया जाता है कि वो नारी से श्रेष्ठ है...

जैसे..

१. क्या लड़कियों की तरह रो रहा है?...और ऐसी कई कई बातें ..

२. घर में माताओं को निर्णय ना लेते देख पिता के प्रभुत्व को देखना..

३. लड़कियों पर कई कई तरह के प्रतिबंधों को देखना

उनके मनों में यह समा जाता है कि लडकियों को तो जैसे चाहे वो दबा सकते हैं ....और अपने लड़का होने पर दंभ होता है उन्हें. और वो मौक़ा पा कर ऐसे अपराधों को करने की हिम्मत करते हैं.

वहीं हमारी सुरक्षा व्यस्था की ढील भी उत्तरदायी है ऐसे अपराधों के लिए.

जहां तक ऐसे अपराधियों को दंड दिए जाने की बात है, तो दंड इतना कडा होना चाहिए की उनकी मन आत्मा छलनी हो जाए, न की फांसी की सजा. क्योंकि फांसी कितने अपराधियों को दी जा सकती है , और न्याय व्यस्था की सुस्ती एक लंबा समय लेती है..

ऐसे अपराधियों का सामाजिक बहिष्कार पूरी दृढ़ता के साथ किया जाना चाहिए, उन्हें किसी जगह नौकरी नहीं मिलनी चाहिए, किसी सामजिक आयोजन में जाने की इजाज़त नहीं होनी चाहिए, उनकी सारी डिग्री कैंसल कर दी जानी चाहिए, धार्मिक संस्थानों में उनके प्रवेश पर प्रतिबन्ध होना चाहिए, अगर कोई विद्यार्थी है तो उसे ब्लैक लिस्ट कर दिया जाना चाहिए, और जिन परिवारों के सदस्य ऐसे अपराधी है, यदि वो ऐसे सदस्यों को घर में आश्रय देते हैं तो उन परिवारों को बहिष्कार किया जाना चाहिए, ताकि सामाजिक दबाव के चलते ऐसे लोग बेघर हो जाएं. उनके बड़े बड़े पोस्टर पूरे शहर भर में लगवा देने चाहिए ताकि उन्हें असहनीय जिल्लत महसूस हो.

क्यों कोइ लडकी पूरी ज़िंदगी बिना किसी गलती के अपराधी होने की सजा भोगे ? क्यों वो इतनी बहिष्कृत हो कि आत्महत्या कर ले , इस कुप्रवाह को उलटना होगा.

rajesh kumari ने कहा…

rajesh kumari

इस तरह के आलेख की आवश्यकता अभी तो है ही ,हमेशा से थी और इस समाज को जागरूक करने के लिए एक वातावरण तैयार करने के लिए हमेशा रहेगी इस के लिए सर्वप्रथम तो आदरणीय सलिल जी आपका आभार प्रकट करती हूँ ।आज हर जगह हर क्षेत्र में स्त्री की स्थिति इतनी असुरक्षित हो गई है की उसका अस्तित्व ही ख़त्म होने की कगार पर है पहले सिर्फ कन्या भ्रूण हत्या का मुख्य कारण दहेज़ ही माना जाता रहा है अब लगता है ये कारण /स्त्री सुरक्षा मुख्य कारण बनता जा रहा है,रोज आये दिन ऐसी घटनाएं हो रही हैं ,इनका कारण ,और उनका निवारण दोनों सोचने के विषय हैं।जब तक क़ानून का भय नहीं होगा ये घटनाएं होती रहेंगी स्थिति हाथों से निकल चुकी है शरीर का जब कोई अंग सड़ जाता है उसे भी काटना पड़ता है तथा दुसरे अंग में जहर ना फैले उसके लिए औषधि भी जरूरी है वो औषधि हमें अपने बच्चों को जन्म से देनी होगी नैतिक शिक्षा अनिवार्य विषय करना होगा स्कूलों में शुरू से ही ,माता पिता को बेटो को शुरू से ही बहन माता और सभी बाहरी नारियों की इज्जत करने की शिक्षा देनी होगी,ये तो हमारा उत्तरदायित्व है जो हमें निभाना चाहिए फिर प्रशासन को नए कदम उठाने चाहिए क़ानून सक्षम और कड़े हों यदि क़ानून कुछ नहीं कर सकता तो स्त्रियों को अस्त्र रखने की स्वीकृति दें जिससे वो अपनी सुरक्षा एकांत में भी कर सके बहुत कुछ सोचने की जरूरत है अब नहीं जागेंगे तो लड़कियों का अस्तित्व ही ख़त्म हो जाएगा ,देखते हैं प्रशासन फास्ट ट्रेक बनाकर क्या तीर मारने वाली है वेट एंड वाच !!!

sanjiv salil ने कहा…

सीमा जी!
अपने रोग की सही पहचान की है... सोच में बदलाव... किन्तु कैसे, यही यक्ष प्रश्न है? स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं. पुत्र-पुत्री में भेद का आरंभ करने, कन्या को कम महत्त्व देने, बहू को प्रताड़ित करने आदि में स्त्री की भूमिका पुरुष से अधिक ही है, कम नहीं. बच्चे में जन्म से ही पुरुष होने का दंभ भरनेवाली स्त्री ही अंत में उससे प्रताड़ित होती है.

दिल्ली में अनाचार हो तो राष्ट्रीय चर्चा का विषय... गाँव में हो तो पुलिस रिपोर्ट तक नहीं लिखती अपितु अनाचारी पूरे परिवार का जीना मुश्किल कर देता है. क्या गरीबी-अमीरी, गाँव-शहर, पढ़े-अनपढ़ के आधार पर नारी की अस्मिता भी मूल्यवान या मूल्यहीन हो?

क्या इस सिर्फ इसलिए कि टी.आर.पी, बढ़ाना है अपराध या दुर्घटना को सप्ताहों तक नमक-मिर्च लगाकर प्रदर्शित किया जाना उचित है? क्या इससे लोगों में अनावश्यक भय नहीं उपजता? इसी तरह इससे अन्य लोगों को अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए समान कार्य करने की प्रेरणा नहीं मिलती. जानकारी, सजगता या बचाव की प्रवृत्ति जगाने के लिए दुर्घटना या अपराध को सामान्य रूप से शांति के साथ सम्बंधित विधिक प्रावधानों या कार्यवाही की जानकारी दी जा सकती है किन्तु समाचार प्रस्तोता की वाणी में अति उत्तेजना, डराने, उकसाने या भड़कानेवाली शब्दावली का प्रयोग साथ में वीभत्स चित्र आदि का प्रयोग उचित है? क्या इसे भी रोकने की जरूरत नहीं है. ऐसे अवसरों पर जनता को बरगला कर कानून को हाथ में लेने की बातें कहलवाना क्या ठीक है? यह सब सिर्फ नारी अत्याचार के समय नहीं होता... कश्मीर के आतंकवाद या संसद पर हमले के समय भी प्रेस का रवैया ऐसा ही था... क्या प्रेस पर ऐसे समाचारों को भुनाने से रोकने की प्रक्रिया नहीं होना चाहिए?

sanjiv salil ने कहा…

प्राची जी!
स्त्री की सुरक्षा हम सबकी चिंता का विषय है. हमारी बहिन, पत्नी या बेटी हर दिन कहीं न कहीं काम से सार्वजनिक स्थानों पर जाती हैं. यह आज की समस्या नहीं है. अहल्या को इंद्र का शिकार आज नहीं होना पड़ा है. यह समस्या आदि काल से है. इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि यह काल या आज का पुरुष या व्यवस्था पूरी तरह दोषी है, यह भी नहीं कि स्त्रियाँ निकलना ही छोड़ दें या स्त्री-पुरुष के मध्य लौह प्राचीर हो. ऐसी दुर्घटनाएं आज भी लाखों में एक से भी कम हैं. दिल्ली में प्रतिदिन लाखों महिलाये लाखों पुरुषों के संपर्क में आती हैं और सुरक्षित लौटती हैं... यहाँ तक कि कई बार पुरुषों द्वारा ही सहायता भी पाती हैं... ऐसे अवसरों पर यह याद रखा और बार-बार कहा जाना चाहिए ताकि दोनों और सदाशयता बढ़े संदेह नहीं. यह अंतिम सत्य है कि स्त्री-पुरुष को कदम-कदम पर साथ चलना ही होगा. कुछ गलत लोग दोनों और हैं. पुरुष अत्याचार को हमेशा निंदा और दंड मिलना ही चाहिए किन्तु स्त्री को गलत करने पर मात्र इसलिए सहानुभूति क्यों मिलना चाहिए कि वह स्त्री है? इससे निरपराध पुरुष भी दण्डित होता है. क्या शूर्पणखा प्रकरण में उसकी शिकायत पर राम-लक्षमण को दोषी माना जाए? आज यह भी हो रहा है.

कोई शक नहीं कि अपराधी दण्डित हो किन्तु उसकी प्रक्रिया है जिसे जितनी जल्दी हो सके पूरा कर सख्त-सख्त दंड दिया जाय किन्तु माइक पर उद्घोषक कुछ उत्तेजक वाक्य कहकर नासमझदार श्रोताओं से बिना मुकदमा कायम किये फांसी देने या जनता द्वारा न्याय किये जाने के नारे लगवाये यह कितना उचित है? क्या इससे कानून को हाथ में लेने या तोड़ने की मानसिकता नहीं बनती? क्या यह मानसिकता किसी अन्य अकेली स्त्री की प्रताड़ना का कारण नहीं बन जायेगी? और इस सबसे पीड़ित को क्या राहत मिलेगी? यह सोचना प्रेस का धर्म नहीं है क्या?

हर अपराधी किसी न किसी परिवार का सदस्य है, अपराध एक करे और सजा पूरा परिवार पाए ऐसी अवधारणा भी भारतीय क्या विश्व के किसी भी देश के न्याय-विधान में नहीं है. इस पर पुनः सोचा जाना चाहिए. अपराधी का सामाजिक बहिष्कार उचित उपाय हो सकता है... कारावास का दंड यही तो करता है... अपराधी को समाज से दूर कर देता है.

राजेश जी
जन्म से नैतिक शिक्षा तो देश में हर पाठशाला में, हर कक्षा में, हर मंदिर में, हर भाषण में दी जा रही है किन्तु गणमान्यों का आचरण सर्वथा विपरीत होने से वह निष्प्रभावी हो गयी है. फिर भी इसे अधिक महत्त्व दिया जाए- यह उचित ही है.
स्त्री को अस्त्र रखने से सुरक्षा हो सकेगी क्या? क्या वह समय पर अस्त्र सञ्चालन कर सकेगी? क्या अपराध जगत से जुडी स्त्रियाँ इसका दुरूपयोग नहीं करेंगी? भली-बुरी स्त्री की पहचान कर उन्हें अस्त्र देना या न देना कैसे और कौन तय करेगा? आत्मरक्षा के लिए जुडो-करते जैसी विधाओं में दक्षता पाना क्या बेहतर विकल्प न होगा?

आप तीनों का बहुत आभार कि अपने इस विषय पर चर्चा को आवश्यक समझ और कुछ नए पहलू सामने आये. हमारे अन्य साथियों के विचार सामने आने पर इससे जुड़े कुछ अन्य पहलू सामने आयेंगे-

प्रस्तुत है एक कुसुम वीर जी की एक सामयिक रचना
सुर्खियाँ
कुसुम वीर
*
अच्छा लगता है सुबह - सुबह
हरी घास पर टहलना
शबनम की बूंदों का
पावों को सहलाना

भाते हैं ठंडी हवाओं के झोंके
पेड़ों की शाखों पर मचलते पत्ते
नीरवता से अठखेलियाँ करते
पक्षियों के सुमधुर नाद

तभी सिहर उठता है मन
चाय की प्याली के साथ
पढ़ती हूँ जब
हत्या, बलात्कार, डकैती, मारकाट

कांप जाती है रूह
फिर किसी दंपत्ति को
पाकर अकेला
किसी कसाई ने बेरहमी से
दबाया था उनका गला

किन्हीं खूंखार भेड़ियों ने
किसी मासूम अल्हड़ बाला को
बनाया था शिकार
अपनी हवस का

सुबह की शीतल सुहानी मलय
गर्म हो चुकी है
अखबार के सुर्ख पन्नों की धूप से
घास के शबनमी मोती भी
अब सूख चुके हैं

दूर कहीं कोमल निश्छल शाखें
ताक रहीं हैं टुकुर - टुकुर
उस वहशी आदमी को
औ, पूछ रही हैं उससे
कब वह इंसान बनेगा

कब बंद होगा कत्लेआम
हत्या, डकैती औ, बलात्कार
माँ,बहनों, बच्चों, बुज़ुर्गों पर अत्याचार
जिनका दोष सिर्फ इतना है
कि, वे निर्दोष हैं
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