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रविवार, 29 जनवरी 2012

साहित्यिक निबंध वसंतोत्सव - लावण्या शाह

 

वसंतोत्सव

- लावण्या  शाह 



वसंत ऋतु राज का स्वागत है! शताब्दियों से भारत के रसिक कवि-मनिषियों के हृदय, ऋतु-चक्र के प्राण सदृश "वसंत" का, भाव-भीने गीतों व पदों से, अभिनंदन करते रहे हैं।
प्रकृति षोडशी, कल्याणी व सुमधुर रूप लिए अठखेलियाँ दिखलाती, कहीं कलिका बन कर मुस्कुराती है तो कहीं आम्र मंजिरी बनी खिल-खिल कर हँसती है और कहीं रसाल ताल तड़ागों में कमलिनी बनी वसंती छटा बिखेरती काले भ्रमर के संग केलि करती जान पड़ती है। वसंत की अनुभूति मानव मन को शृंगार रस में डुबो के ओतप्रोत कर देती है।
भक्त शिरोमणि बाबा सूरदास गाते हैं -"ऐसो पत्र पठायो नृप वसंत तुम तजहु मान, मानिनी तुरंत! कागद नव दल अंब पात, द्वात कमल मसि भंवर-गात!लेखनी काम के बान-चाप, लिखि अनंग, ससि दई छाप!!मलयानिल पढयो कर विचार, बांचें शुक पिक, तुम सुनौ नार,"सूरदास" यों बदत बान, तू हरि भज गोपी, तज सयान!!
बसंत ऋतु के छा जाने पर पृथ्वी में नए प्राणो का संचार होता है। ब्रृज भूमि में गोपी दल, अपने सखा श्री कृष्ण से मिलने उतावला-सा निकल पड़ता है। श्री रसेश्वरी राधा रानी अपने मोहन से ऐसी मधुरिम ऋतु में कब तक नाराज़ रह सकती है? प्रभु की लीला वेनु की तान बनी, कदंब के पीले, गोल-गोल फूलों से पराग उड़ती हुई, गऊधन को पुचकारती हुई, ब्रज भूमि को पावन करती हुई, स्वर-गंगा लहरी समान, जन-जन को पुण्यातिरेक का आनंदानुभव करवाने लगती है।
ऐसे अवसर पर, वृंदा नामक गोपी के मुख से परम भगवत श्री परमानंद दास का काव्य मुखरित हो उठता है -"फिर पछतायेगी हो राधा, कित ते, कित हरि, कित ये औसर, करत-प्रेम-रस-बाधा!बहुर गोपल भेख कब धरि हैं, कब इन कुंजन, बसि हैं!यह जड़ता तेरे जिये उपजी, चतुर नार सुनि हँसी हैं!रसिक गोपाल सुनत सुख उपज्यें आगम, निगम पुकारै,"परमानन्द" स्वामी पै आवत, को ये नीति विचारै!
गोपी के ठिठोली भरे वचन सुन, राधाजी, अपने प्राणेश्वर, श्री कृष्ण की और अपने कुमकुम रचित चरण कमल लिए, स्वर्ण-नुपूरों को छनकाती हुईं चल पड़ती हैं! वसंत ऋतु पूर्ण काम कला की जीवंत आकृति धरे, चंपक के फूल-सी आभा बिखेरती राधा जी के गौर व कोमल अंगों से सुगंधित हो कर, वृंदावन के निकुंजों में रस प्रवाहित करने लगती है। लाल व नीले कमल के खिले हुये पुष्पों पर काले-काले भँवरे सप्त-सुरों से गुंजार के साथ आनंद व उल्लास की प्रेम-वर्षा करते हुए रसिक जनों के उमंग को चरम सीमा पर ले जाने में सफल होने लगते हैं।
"आई ऋतु चहुँ-दिसि, फूले द्रुम-कानन, कोकिला समूह मिलि गावत वसंत ही,मधुप गुंजरत मिलत सप्त-सुर भयो है हुलस, तन-मन सब जंत ही!मुदित रसिक जन, उमंग भरे हैं, नही पावत मन्मथ सुख अंत ही,"कुंभन-दास" स्वामिनी बेगि चलि, यह समय मिलि गिरिधर नव कंत ही!"
गोपियाँ अब अपने प्राण-वल्लभ, प्रिय सखा गोपाल के संग, फागुन ऋतु की मस्ती में डूबी हुई, उतावले पग भरती हुई, ब्रृज की धूलि को पवन करती हुई, सघन कुंजों में विहार करती हैं। पर हे देव! श्री कृष्ण, आखिर हैं कहाँ? कदंब तले, यमुना किनारे, ब्रृज की कुंज गलियों में श्याम मिलेंगे या कि फिर वे नंद बाबा के आँगन में, माँ यशोदा जी के पवित्र आँचल से, अपना मुख-मंडल पुछवा रहे होंगे? कौन जाने, ब्रृज के प्राण, गोपाल इस समय कहाँ छिपे हैं?
"ललन संग खेलन फाग चली!चोवा, चंदन, अगस्र्, कुमकुमा, छिरकत घोख-गली!ऋतु-वसंत आगम नव-नागरि, यौवन भार भरी!देखन चली, लाल गिरधर कौं, नंद-जु के द्वार खड़ी!!
आवो वसंत, बधावौ ब्रृज की नार सखी सिंह पौर, ठाढे मुरार!नौतन सारी कसुभिं पहिरि के, नवसत अभरन सजिये!नव नव सुख मोहन संग, बिलसत, नव-कान्ह पिय भजिये!चोवा, चंदन, अगरू, कुमकुमा, उड़त गुलाल अबीरे!खेलत फाग भाग बड़ गोपी, छिड़कत श्याम शरीरे!बीना बैन झांझ डफ बाजै, मृदंग उपंगन ताल,"कृष्णदास" प्रभु गिरधर नागर, रसिक कंुवर गोपाल!
ऋतु राज वसंत के आगमन से, प्रकृति अपने धर्म व कर्म का निर्वाह करती है। हर वर्ष की तरह, यह क्रम अपने पूर्व निर्धारित समय पर असंख्य फूलों के साथ, नई कोपलों और कोमल सुगंधित पवन के साथ मानव हृदय को सुखानुभूति करवाने लगता है। पेड़ की नर्म, हरी-हरी पत्तियाँ, रस भरे पके फलों की प्रतीक्षा में सक्रिय हैं। दिवस कोमल धूप से रंजित गुलाबी आभा बिखेर रहा है तो रात्रि, स्वच्छ, शीतल चाँदनी के आँचल में नदी, सरोवर पर चमक उठती है। प्रेमी युगुलों के हृदय पर अब कामदेव, अनंग का एकचक्र अधिपत्य स्थापित हो उठा है। वसंत ऋतु से आँदोलित रस प्रवाह, वसंत पंचमी का यह भीना-भीना, मादक, मधुर उत्सव, आप सभी के मानस को हर्षोल्लास से पुरित करता हुआ हर वर्ष की तरह सफल रहे यही भारतीय मनीषा का अमर संदेश है -
"आयौ ऋतु-राज साज, पंचमी वसंत आज,मोरे द्रुप अति, अनूप, अंब रहे फूली,बेली पटपीत माल, सेत-पीत कुसुम लाल,उडवत सब श्याम-भाम, भ्रमर रहे झूली!रजनी अति भई स्वच्छ, सरिता सब विमल पच्छ,उडगन पत अति अकास, बरखत रस मूलीबजत आवत उपंग, बंसुरी मृदंग चंग,यह सुख सब " छीत" निरखि इच्छा अनुकूली!!
बसंत ऋतु है, फाग खेलते नटनागर, मनोहर शरीर धारी, श्याम सुंदर मुस्कुरा रहे हैं और प्रेम से बावरी बनी गोपियाँ, उनके अंगों पर बार-बार चंदन मिश्रित गुलाल का छिड़काव कर रही हैं! राधा जी अपने श्याम का मुख तक कर विभोर है। उनका सुहावना मुख मंडल आज गुलाल से रंगे गालों के साथ पूर्ण कमल के विकसित पुष्प-सा सज रहा है। वृंदावन की पुण्य भूमि आज शृंगार-रस के सागर से तृप्त हो रही है।
प्रकृति नूतन रूप संजोये, प्रसन्न है! सब कुछ नया लग रहा है कालिंदी के किनारे नवीन सृष्टि की रचना, सुलभ हुई है "नवल वसंत, नवल वृंदावन, नवल ही फूले फूल!नवल ही कान्हा, नवल सब गोपी, नृत्यत एक ही तूल!नवल ही साख, जवाह, कुमकुमा, नवल ही वसन अमूल!नवल ही छींट बनी केसर की, भेंटत मनमथ शूल!नवल गुलाल उड़े रंग बांका, नवल पवन के झूल!नवल ही बाजे बाजैं, "श्री भट" कालिंदी के कूल!नव किशोर, नव नगरी, नव सब सोंज अरू साज!नव वृंदावन, नव कुसुम, नव वसंत ऋतु-राज!"

— लावण्या शाह



 

कविता: ४ इंच की स्क्रीन --राहुल उपाध्याय

मुझको यह कविता रुची :




४ इंच की स्क्रीन 
राहुल उपाध्याय
*
पूरे रास्ते भर
वाईपर में फ़ँसा
मेपल का पत्ता
फ़ड़फ़ड़ाता रहा
और उसके कान पे जूँ तक न रेंगी

उसकी निगाहें गड़ी थीं
फोन पर
ट्रैफ़िक पर
रेडियों के बजते शोर पर
और हाथ में पकड़े स्टारबक्स के घोल पर

आज की दुनिया में
संसार की कोई भी ऐसी चीज़ नहीं
जो प्रकृति की कृति हो
और इंसान को अपनी और मोड़ सके
उसे खुद से जोड़ सके

पहले हम तारों से रिश्ता जोड़ते थे
उनकी संरचना में भालू-बर्तन खोजते थे

फिर एक ऐसा वक्त आया कि
हम तारों को छोड़ चाँद पे उतर आए
आज अमावस है, चार दिन बाद चतुर्थी,
उसके एक हफ़्ते बाद एकादशी, और फिर पूर्णिमा
उसी के उतार-चढ़ाव के साथ
हम तीज-त्यौहार-पर्व मना लिया करते थे

लेकिन फिर एक ऐसा भी दौर आया
कि शाम ढलते ही सब
टी-वी के सामने बैठ
किसी काल्पनिक परिवार के सुख-दु:ख
उतार-चढ़ाव में रमने लगे
उन्हीं के साथ हा-हा, ही-ही करने लगे

अब टी-वी भी बहुत दूर की चीज़ हो गयी है
रिमोट से चलते-चलते खुद ही रिमोट हो गई है

आज 
रिमोट से छोटी
हथेली से चिपकी
4 ईंच की स्क्रीन में ही हमारी दुनिया सिमट कर रह गयी है
अगर आप 4 ईंच की स्क्रीन में खुद को घुसोड़ सके तो आप का अस्तित्व है, 
वरना आप का होना न होना कोई मायने नहीं रखता है

पाँच घर छोड़ कर रहने वाला यह नहीं जानता कि आप दस दिन से गायब है
लेकिन उसे पूरी जानकारी है कि 
आठ हज़ार मील की दूरी पर 
उसकी मौसी के बेटे की 
कुछ मिनट पहले कॉलेज जाते वक़्त बस छूट गई है

वे आपके सामने से निकल जाएंगे
लेकिन आपको पहचानेगे नहीं
उनसे बात करनी हो तो
आवाज़ देने से काम नहीं चलेगा
ट्वीट करना होगा
क्योंकि वे कान में प्लग लगाए 
पहले ही बहरे हो चुके हैं 

Rahul Upadhyaya  upadhyaya@yahoo.com
सिएटल । 513-341-6798
28 जनवरी 2012
====================
वाईपर = wiper
मेपल = maple
स्टारबक्स = starbucks
रिमोट = remote
ट्वीट = Tweet
A picture may be worth a thousand words. But mere words can inspire millions

गीत: कुछ पुराने पेड़ हों शायद अभी उस गांव में.... --राकेश खंडेलवाल

गीत:
कुछ पुराने पेड़ हों शायद अभी उस गांव में....

राकेश खंडेलवाल
*
कुछ पुराने पेड़ हों शायद अभी उस गांव में
 
हो गया जब एक दिन सहसा मेरा यह मन अकेला
कोई बीता पल लगा देने मुझे उस  पार हेला
दूर छूटे चिह्न पग के फूल बन खिलने लगे तो
सो गये थे वर्ष बीते एक पल को फिर जगे तो
मन हुआ आतुर बुलाऊँ पास मैं फ़िर वो दुपहरी
जो कटी मन्दिर उगे कुछ पीपलों की चाँव में
आ चुका है वक्त चाहे दूर फिर भी आस बोले
कुछ पुराने पेड़ हों शायद अभी उस गांव में....
 
वह जहाँ कंचे ढुलक हँसते गली के मोड़ पर थे
वह जहाँ उड़ती पतंगें थीं हवा में होड़ कर के
गिल्लियाँ उछ्ला करीं हर दिन जहाँ पर सांझ ढलते
और उजड़े मन्दिरों में भी जहाँ थे दीप जलते
वह जहाँ मुन्डेर पर उगती रही थी पन्चमी आ
पाहुने बन कर उतरते पंछियों  की कांव में
चाहता मन तय करे फ़िर सिन्धु की गहराईयों को
कुछ पुराने पेड़ बाकी हों अभी उस गांव में.....
 
पेड़ वे जिनके तले चौपाल लग जाती निरन्तर
और फिर दरवेश के किस्से निखरते थे संवर कर
चंग पर आल्हा बजाता एक रसिया मग्न होकर
दूसरा था सुर मिलाता राग में आवाज़ बो कर
और वे पगडंडियां कच्ची जिन्हें पग चूमते थे
दौड़ते नजरें बचा कर हार पी कर दाँव में
शेष है संभावना कुछ तो रहा हो बिना बदले
कुछ पुराने पेड़ हों शायद अभी उस गांव में.....
 
वृक्ष जिनकी छांह  थी ममता भरे आँचल सरीखी
वृक्ष जिनके बाजुओं से बचपनों ने बात सीखी
वे कि बदले वक्त की परछाई से बदले नहीं थे
और जिनको कर रखें सीमित,कहीं गमले नहीं थे
वे कि जिनकी थपकियाँ उमड़ी हुई हर पीर हरती
ज़िंदगी सान्निध्य में जिनके सदा ही थी संवारती
है समाहित गंध जिनकी धड़कनों, हर सां स में
हाँ  पुराने पेड़ शाश्वत ही रहेंगे गाँव मब
वे पुराने पेड़ हर युग में रहेंगे गांव में.....
********

बासंती दोहा गीत... फिर आया ऋतुराज बसंत --संजीव 'सलिल'

बासंती दोहा गीत... 

फिर आया ऋतुराज बसंत 

--संजीव 'सलिल'

बासंती दोहा गीत...
फिर आया ऋतुराज बसंत
संजीव 'सलिल' 
फिर आया ऋतुराज बसंत,
प्रकृति-पुरुष हिल-मिल खिले
विरह--शीत का अंत....
*' 
आम्र-मंजरी मोहती, 
गौरा-बौरा मुग्ध.
रति-रतिपति ने झूमकर-
किया शाप को दग्ध..
नव-कोशिश की कामिनी
वरे सफलता कंत...
*
कुहू-कुहू की टेर सुन,
शुक भरमाया खूब. 
मिली लजाई सारिका ,
प्रेम-सलिल में डूब..
कसे कसौटी पर गए
अब अविकारी संत...
भोर सुनहरी गुनगुनी,
निखरी-बिखरी धूप.                                शयन कक्ष में देख चुप- 
हुए भामिनी-भूप...
'सलिल' वरे अद्वैत जग,
नहीं द्वैत में तंत.....
*****

शनिवार, 28 जनवरी 2012

दोहा सलिला : दोहा संग मुहावरा-२ --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
दोहा संग मुहावरा-२
संजीव 'सलिल'
*
'अंकुश रखना' सीख ले, मतदाता यदि आज.
नेता-अफसर करेंगे, जल्दी उनके काज.१२.
*
'अपने मुँह बनते मियाँ मिट्ठू' नाहक आप.
'बात बने' जब गैर भी 'करें नाम का जाप'.१३.
*
खुद ही अपने पैर पर, रहे कुल्हाडी मार.
जब छलते हैं किसी को, जतला झूठा प्यार.१४.
*
'अपना गला फँसा लिया', कर उन पर विश्वास.
जो न सगे निज बाप के, था न तनिक आभास.१५.
*
'अंधे को दीपक दिखा', बारें नाहक तेल.
हाथ पकड़ पथ दें दिखा, तभी हो सके मेल.१६.
*
कर 'अंगद के पैर' सी, कोशिश- ले परिणाम.
व्यर्थ नहीं करना सलिल, 'आधे मन से काम'.१७.
*
नहीं 'अँगूठा दिखाना', अपनों से हो क्लेश.
'ठेंगे पर मत मारना', बढ़ जायेगा द्वेष.१८.
*
'घोड़े दौड़ा अक्ल के', रहे पहेली बूझ.
'अकलमंद की दुम बने', उत्तर सका न सूझ.१९.
*
'अपना सा मुँह रह गया', हारे आम चुनाव.
'कर अरण्य रोदन' रहे, 'सलिल' न 'देना भाव'.२०.
*
'आँखों का तारा हुआ', नटखट कान्हा ढीठ.
खाये माखन चुराकर, गोप 'उतारें दीठ'.२१.
*

मुक्तिका: ये न मुमकिन हो सका --संजीव 'सलिल'






मुक्तिका
ये न मुमकिन हो सका
संजीव 'सलिल'
*
आप को अपना बनाऊँ ये न मुमकिन हो सका.
गीत अपने सुर में गाऊँ ये न मुमकिन हो सका..

आपके आने के सपना देखकर अँखियाँ थकीं.
काग बोले काऊँ-काऊँ ये न मुमकिन हो सका..

अपने घर में शेर, जा बाहर हुआ हूँ ढेर मैं.
जीत का छक्का उड़ाऊँ ये न मुमकिन हो सका..

वायदे कर वोट पाये, और कुर्सी भी मिली.
वायदा अपना निभाऊँ ये न मुमकिन हो सका..

बेटियों ने निभाया है फर्ज़ अपना इस तरह.
कर बिदा उनको भुलाऊँ ये न मुमकिन हो सका..

जड़ सभी बीमारियों की एक ही पायी 'सलिल'.
पसीना हँसकर बहाऊँ ये न मुमकिन हो सका..

लिख रहा लेकिन खुशी से 'सलिल' मैं मरहूम हूँ.
देख उनकी झलक पाऊँ ये न मुमकिन हो सका..

***********
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com

दोहा सलिला: दोहा संग मुहावरा --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
दोहा संग मुहावरा
संजीव 'सलिल'
*
दोहा संग मुहावरा, दे अभिनव आनंद.
'गूंगे का गुड़' जानिए, पढ़िये-गुनिये छंद.१.
*
हैं वाक्यांश मुहावरे, जिनका अमित प्रभाव.
'सिर धुनते' हैं नासमझ, समझ न पाते भाव.२.
*
'अपना उल्लू कर रहे, सीधा' नेता आज.
दें आश्वासन झूठ नित, तनिक न आती लाज.३.
*
'पत्थर पड़ना अकल पर', आज हुआ चरितार्थ.
प्रतिनिधि जन को छल रहे, भुला रहे फलितार्थ.४.
*
'अंधे की लाठी' सलिलो, हैं मजदूर-किसान.
जिनके श्रम से हो सका भारत देश महान.५.
*
कवि-कविता ही बन सके, 'अंधियारे में ज्योत'
आपद बेला में सकें, साहस-हिम्मत न्योत.६.
*
राजनीति में 'अकल का, चकराना' है आम.
दक्षिण के सुर में 'सलिल', बोल रहा है वाम.७.
*
'अलग-अलग खिचडी पका', हारे दिग्गज वीर.
बतलाता इतिहास सच, समझ सकें मतिधीर.८.
*
जो संसद में बैठकर, 'उगल रहा अंगार'
वह बीबी से कह रहा, माफ़ करो सरकार.९.
*
लोकपाल के नाम पर, 'अगर-मगर कर मौन'.
सारे नेता हो गए, आगे आए कौन?१०?
*
'अंग-अंग ढीला हुआ', तनिक न फिर भी चैन.
प्रिय-दर्शन पाये बिना आकुल-व्याकुल नैन.११.
*****

नवगीत: शीत से कँपती धरा --संजीव 'सलिल'

नवगीत:

शीत से कँपती धरा

संजीव 'सलिल'

*
शीत से कँपती धरा की
ओढ़नी है धूप
कोहरे में छिप न पाये
सूर्य का शुभ रूप

सियासत की आँधियों में उड़ाएँ सच की पतंग
बाँध जोता और माँझा, हवाओं से छेड़ जंग
उत्तरायण की अँगीठी में बढ़े फिर ताप-
आस आँगन का बदल रवि-रश्मियाँ दें रंग
स्वार्थ-कचरा फटक-फेंके
कोशिशों का सूप

मुँडेरे श्रम-काग बैठे सफलता को टेर
न्याय-गृह में देर कर पाये न अब अंधेर
लोक पर हावी नहीं हो सेवकों का तंत्र-
रजक-लांछित सिया वन जाए न अबकी बेर
झोपड़ी में तम न हो
ना रौशनी में भूप

पड़ोसी दिखला न पाए अब कभी भी आँख
शौर्य बाली- स्वार्थ रावण दबाले निज काँख
क्रौच को कोई न शर अब कभी पाये वेध-
आसमां को नाप ले नव हौसलों का पांख
समेटे बाधाएँ अपनी
कोख में अब कूप
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

गीत: गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा... --संजीव 'सलिल'

गीत:
गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा...
संजीव 'सलिल'
*
मार समय की सहें मूक हो, कोई न तेरा-मेरा.
पीर, वेदना, तन्हाई निश-दिन करती पग-फेरा..
गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा...
*
तुमने वन-पर्वत खोये, मैंने खोया सुख-चैन.
दर्द तुम्हारे दिल में है, मेरे भी भीगे नैन..
लोभ-हवस में झुलसा है, हम दोनों का ही डेरा.
गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा...
*
शकुनि सियासत के हाथों हम दोनों हारे दाँव.
हाथ तुम्हारे घायल हैं, मेरे हैं चोटिल पाँव..
जीना दूभर, नेता अफसर व्यापारी ने घेरा.
गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा...
*
तुमने चौपालों को खोया, मैंने नुक्कड़ खोये.
पनघट वहाँ सिसकते, गलियाँ यहाँ बिलखकर रोये..
वहाँ अमन का, यहाँ चैन का बाकी नहीं बसेरा.
गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा...
*
तुम्हें तरसता देख जुटायी मैंने रोजी-रोटी.
चिपक गया है पेट पीठ से, गिन लो बोटी-बोटी..
खोटी-खोटी सुना रहे क्यों नहीं प्यार से हेरा?
गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा...
*
ले विकास का नाम हर तरफ लूट-पाट है जारी.
बैठ शाख पर चला रहा शाखा पर मानव आरी..
सिसके शाम वहाँ, रोता है मेरे यहाँ सवेरा.
गाँव जी! कहें न शहर लुटेरा...
*

बुधवार, 25 जनवरी 2012

गणतंत्र दिवस पर विशेष :          
कहाँ हैं नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ?                   


  राम प्रसाद बिस्मिल     

*                                    
देश आजाद होने के बाद संसद में कई बार माँग उठती है कि कथित विमान-दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु के रहस्य पर से पर्दा उठाने के लिए सरकार कोशिश करे। मगर प्रधानमंत्री नेहरूजी इस माँग को प्रायः दस वर्षों तक टालने में सफल रहते हैं। भारत सरकार इस बारे में ताईवान सरकार (फारमोसा का नाम अब ताईवान हो गया है) से भी सम्पर्क नहीं करती।
 
 अन्त में जनप्रतिनिगण जस्टिस राधाविनोद पाल की अध्यक्षता में गैर-सरकारी जाँच आयोग के गठन का निर्णय 
लेते हैं। तब जाकर नेहरूजी 1956 में भारत सरकार की ओर से जाँच-आयोग के गठन की घोषणा करते हैं।  
 
लोग सोच रहे थे कि जस्टिस राधाविनोद पाल को ही आयोग की अध्यक्षता सौंपी जायेगी। विश्वयुद्ध के बाद जापान के युद्धकालीन प्रधानमंत्री सह युद्धमंत्री जेनरल हिदेकी तोजो पर जो युद्धापराध का मुकदमा चला था, उसकी ज्यूरी (वार क्राईम ट्रिब्यूनल) के एक सदस्य थे- जस्टिस पाल।
 
मुकदमे के दौरान जस्टिस पाल को  जापानी गोपनीय दस्तावेजों के अध्ययन का अवसर मिला था, अतः स्वाभाविक  रूप से वे उपयुक्त व्यक्ति थे जाँच-आयोग की अध्यक्षता के लिए। 

(प्रसंगवश जान लिया जाय कि ज्यूरी के बारह सदस्यों में से एक जस्टिस पाल ही थे, जिन्होंने जेनरल तोजो का बचाव किया था। जापान ने दक्षिण-पूर्वी एशियायी देशों को अमेरीकी, ब्रिटिश, फ्राँसीसी और पुर्तगाली आधिपत्य से मुक्त कराने के 
लिए युद्ध छेड़ा था। नेताजी के दक्षिण एशिया में अवतरण के बाद भारत को भी ब्रिटिश आधिपत्य से छुटकारा दिलाना उसके अजेंडे में शामिल हो गया आजादी के लिए संघर्ष करना कहाँ से  
 ‘अपराध’ हो गया? जापान ने कहा था- ‘एशिया- एशियायियों के लिए’- इसमें गलत क्या था? जो भी हो, जस्टिस राधाविनोद पाल
का नाम जापान में सम्मान के साथ लिया जाता है।) मगर नेहरू जी को आयोग की  
अध्यक्षता के लिए सबसे योग्य व्यक्ति केवल शाहनवाज खान नजर आते हैं। शाहनवाज खान- उर्फ, लेफ्टिनेण्ट जेनरल एस.एन.
खान। कुछ याद आया?
 
आजाद हिन्द फौज के भूतपूर्व सैन्याधिकारी, शुरु में नेताजी 
के दाहिने हाथ थे, मगर इम्फाल-कोहिमा फ्रण्ट से उनके विश्वासघात  की खबर आने के बाद नेताजी ने उन्हें रंगून मुख्यालय वापस बुलाकर उनका कोर्ट-मार्शल करने का आदेश 
दे दिया था।

उनके बारे में यह भी बताया जाता है कि कि लाल    
किले के कोर्ट-मार्शल में उन्होंने खुद यह स्वीकार 
किया था कि आई.एन.ए./आजाद हिन्द फौज में 
रहते हुए उन्होंने गुप्त रुप से ब्रिटिश सेना को मदद 
ही पहुँचाने का काम किया था। यह भी जानकारी 
मिलती है कि बँटवारे के बाद वे पाकिस्तान चले 
गये थे, मगर नेहरूजी उन्हें भारत वापस बुलाकर 
अपने मंत्रीमण्डल में उन्हें सचिव का पद देते हैं।
विमान-दुर्घटना में नेताजी को मृत घोषित कर देने के बाद 
शाहनवाज खान को नेहरू मंत्री मण्डल में रेल राज्य मंत्री पद प्रदान किया जाता है.   


आयोग के दूसरे सदस्य सुरेश कुमार बोस (नेताजी के बड़े भाई) खुद को शाहनवाज खान के निष्कर्ष से अलग कर लेते हैं। उनके अनुसार, जापानी राजशाही ने विमान-दुर्घटना   का ताना-बाना बुना है, और नेताजी जीवित हैं।   
***                                                                     
 
शाहनवाज आयोग का निष्कर्ष देशवासियों के गले के नीचे नहीं उतरता है। साढ़े तीन सौ सांसदों द्वारा पारित प्रस्ताव के आधार पर सरकार को 1970 में (11 जुलाई) एक दूसरे आयोग का गठन करना पड़ता है। यह इन्दिराजी का समय है। इस आयोग का अध्यक्ष जस्टिस जी.डी. खोसला को बनाया जाता है।

जस्टिस घनश्याम दास खोसला के बारे में तीन तथ्य जानना ही  काफी होगा:

1. वे नेहरूजी के मित्र रहे हैं;

2. वे जाँच के दौरान ही श्रीमती इन्दिरा गाँधी की जीवनी लिख     
रहे थे, और

3. वे नेताजी की मृत्यु की जाँच के साथ-साथ तीन अन्य आयोगों की भी अध्यक्षता कर रहे थे।

सांसदों के दवाब के चलते आयोग को इस बार ताईवान
भेजा जाता है। मगर ताईवान जाकर  
जस्टिस खोसला  किसी भी सरकारी संस्था से सम्पर्क नहीं करते- वे बस  हवाई अड्डे तथा
शवदाहगृह से घूम आते हैं। कारण यह  है कि
 ताईवान के साथ भारत का कूटनीतिक सम्बन्ध नहीं है।                                                

हाँ, कथित विमान-दुर्घटना में जीवित बचे कुछ
लोगों का बयान यह आयोग लेता है, मगर  
पाकिस्तान में बसे मुख्य गवाह कर्नल  
हबिबुर्रहमान खोसला आयोग से मिलने से इन्कार कर देते हैं। 
 
खोसला आयोग की रपट पिछले शाहनवाज आयोग की रपट का सारांश साबित होती है। इसमें अगर नया कुछ है, तो वह है- भारत सरकार को इस मामले में पाक-साफ एवं 
ईमानदार साबित करने की पुरजोर कोशिश।                                             
***
 
28 अगस्त 1978 को संसद में प्रोफेसर समर गुहा के सवालों का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई कहते हैं कि कुछ ऐसे आधिकारिक दस्तावेजी अभिलेख (Official Documentary Records) उजागर हुए हैं, जिनके आधार पर; साथ ही, पहले के दोनों
आयोगों के निष्कर्षों पर उठने वाले सन्देहों तथा (उन रपटों में दर्ज) गवाहों के विरोधाभासी बयानों के मद्देनजर सरकार के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल है कि वे निर्णय अन्तिम हैं।
 
प्रधानमंत्री जी का यह आधिकारिक बयान अदालत में चला जाता है और वर्षों बाद ३०  

अप्रैल 1998 को कोलकाता उच्च न्यायालय      सरकार को आदेश देता है कि उन अभिलेखों 
के प्रकाश में फिर से इस मामले की जाँच 
करवायी जाए।

अब अटल बिहारी वाजपेयी जी प्रधानमंत्री हैं। 
दो-दो जाँच आयोगों का हवाला देकर सरकार 
इस मामले से पीछा छुड़ाना चाह रही थी, मगर        
न्यायालय के आदेश के बाद सरकार को तीसरे 
आयोग के गठन को मंजूरी देनी पड़ती है।

इस बार सरकार को मौका न देते हुए आयोग के 
अध्यक्ष के रूप में (अवकाशप्राप्त) न्यायाधीश मनोज 
कुमार मुखर्जी की नियुक्ति खुद सर्वोच्च न्यायालय ही 
कर देता है।
जहाँ तक हो पाता है, सरकार मुखर्जी आयोग के गठन और उनकी जाँच में रोड़े अटकाने की कोशिश करती है, मगर जस्टिस मुखर्जी जीवट के आदमी साबित होते हैं। विपरीत परिस्थितियों में भी वे जाँच को आगे बढ़ाते रहते हैं।
 
आयोग सरकार से उन दस्तावेजों (“टॉप सीक्रेट” पी.एम.ओ. फाईल 2/64/78-पी.एम.) की माँग करता है, जिनके आधार पर 1978 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने संसद में बयान दिया था, और जिनके आधार पर कोलकाता उच्च न्यायालय ने तीसरे जाँच-आयोग के गठन का आदेश दिया था।
 
प्रधानमंत्री कार्यालय और गृहमंत्रालय दोनों साफ मुकर जाते हैं- ऐसे कोई दस्तावेज नहीं हैं; होंगे भी      
तो हवा में गायब हो गये आप यकीन नहीं करेंगे कि जो 
दस्तावेज खोसला आयोग को दिए गए थे, वे दस्तावेज 
तक मुखर्जी योग को देखने नहीं दिए जाते, 'गोपनीय' और 'अतिगोपनीय' दस्तावेजों की बात तो छोड़ ही दीजिये । 
प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय सभी 
जगह नौकरशाहों का यही एक जवाब-

“भारत के संविधान की धारा 74(2) और साक्ष्य कानून के भाग 123 एवं 124 के तहत इन दस्तावेजों को आयोग को         
नहीं दिखाने का “प्रिविलेज” उन्हें प्राप्त है!”

भारत सरकार के रवैये के विपरीत ताईवान सरकार मुखर्जी 
आयोग द्वारा माँगे गये एक-एक दस्तावेज को आयोग के 
सामने प्रस्तुत करती है। चूँकि ताईवान के साथ भारत के 
कूटनीतिक सम्बन्ध नहीं हैं, इसलिए भारत सरकार किसी 
प्रकार का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दवाब ताईवान सरकार पर नहीं 
डाल पाती है।                                                                  

हाँ, रूस के मामले में ऐसा नहीं है। भारत का रूस के साथ गहरा सम्बन्ध है, अतः रूस सरकार का स्पष्ट मत है कि जब तक 
भारत सरकार आधिकारिक रुप से अनुरोध नहीं भेजती, वह 
आयोग को न तो नेताजी से जुड़े गोपनीय दस्तावेज देखने दे 
सकती है और न ही कुजनेत्स, क्लाश्निकोव- जैसे महत्वपूर्ण 
गवाहों का साक्षात्कार लेने दे सकती है। आप अनुमान लगा 
सकते हैं- आयोग रूस से खाली हाथ लौटता है।

यह भी जिक्र करना प्रासंगिक होगा कि मुखर्जी आयोग जहाँ  “गुमनामी बाबा” के मामले में गम्भीर तरीके से जाँच करता है, 
वहीं स्वामी शारदानन्द के मामले में गम्भीरता नहीं दिखाता। आयोग फैजाबाद के राम भवन तक तो आता है, जहाँ गुमनामी 
बाबा रहे थे; राजपुर रोड की उस कोठी तक नहीं जाता, जहाँ शारदानन्द रहे थे। आयोग गुमनामी बाबा की हर वस्तु की 
जाँच करता है, मगर उ.प्र. पुलिस/प्रशासन से शारदानन्द के      
अन्तिम संस्कार के छायाचित्र माँगने का कष्ट नहीं उठाता।
 

मई' 64 के बाद जब स्वामी शारदानन्द सतपुरा (महाराष्ट्र) के मेलघाट के जंगलों में अज्ञातवास गुजारते हैं, तब उनके साथ सम्पर्क में रहे डॉ. सुरेश पाध्ये का कहना है कि उन्होंने खुद नेताजी (स्वामी
शारदानन्द) और उनके परिवारजनों तथा वकील के
कहने के कारण (1971 में) ‘खोसला आयोग’ के सामने सच्चाई का बयान नहीं किया था।
 
अब चूँकि स्वामीजी का देहावसान हो चुका है, इसलिए वे (26 जून 2003 को) मुखर्जी आयोग को सच्चाई बताते हैं। मगर आयोग उनकी तीन दिनों की गवाही को (अपनी रिपोर्ट में) आधे वाक्य में समेट देता है और दस्तावेजों को (जो कि वजन में ही 70
किलो है) एकदम नजरअन्दाज कर देता है। यह सब कुछ किसके दवाब में   किया जाता है- यह राज तो आने वाले समय में ही खुलेगा।

2005 में दिल्ली में फिर काँग्रेस की सरकार बनती है। यह सरकार 
मई में जाँच आयोग को छह महीनों का विस्तार देती है।            
8 नवम्बर को आयोग अपनी रपट सरकार को सौंप देता है। सरकार इस पर कुण्डली मारकर बैठ जाती है। दवाब पड़ने पर 18 मई 2006 को रपट को संसद के पटल पर रखा जाता है।

मुखर्जी आयोग को पाँच विन्दुओं पर जाँच करना था:               
1. नेताजी जीवित हैं या मृत? 
2. अगर वे जीवित नहीं हैं, तो क्या उनकी मृत्यु विमान-दुर्घटना 
में हुई, जैसा कि बताया जाता है? 
3. क्या जापान के रेन्कोजी मन्दिर में रखा अस्थि भस्म नेताजी  का है? 
4. क्या उनकी मृत्यु कहीं और, किसी और तरीके से हुई, अगर ऐसा है, तो कब और कैसे? 
5. अगर वे जीवित हैं, तो अब वे कहाँ हैं?
आयोग का निष्कर्ष कहता है कि-
1. नेताजी अब जीवित नहीं हैं।
2. किसी विमान-दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु नहीं 
हुई है।
3. रेन्कोजी मन्दिर (टोक्यो) में रखा अस्थिभस्म 
नेताजी का नहीं है।
4. उनकी मृत्यु कैसे और कहाँ हुई- इसका जवाब 
आयोग नहीं ढूँढ़ पाया।
5. इसका उत्तर क्रमांक 1 में दे दिया गया है। 

स्वाभाविक रुप से सरकार इस रिपोर्ट को खारिज कर देती है। 
                                                                                
अगर हम यहाँ यह अनुमान लगायें कि भारत सरकार ने “अराजकता” या “राजनीतिक अस्थिरता” फैलने की बात 
कहकर मुखर्जी आयोग को ‘चौथे’ विन्दु पर ज्यादा आगे 
न बढ़ने का अनुरोध किया होगा, तो क्या हम बहुत गलत          
होंगे?
*

मंगलवार, 24 जनवरी 2012


रचना-प्रतिरचना
 ग़ज़ल:
कभी-कभी
मैत्रेयी अनुरूपा
 *

पने ला ला कर आँखों में कोई बोता कभी कभी                                                                   शाम अकेली को यादें दे कोई भिगोता कभी कभी
इश्क मुहब्बत,गम तन्हाई सब ही गहरे दरिया हैं
बातें करते सभी,लगाता कोई गोता कभी कभी
बस्ती के उजले दामन पर कितने काले धब्बे हैं
कितना अच्छा होता इनको कोई धोता कभी कभी
मन तो माला के मनकों सा मोती मोती बिखरा है
अपनेपन की डोरी लेकर कोई पोता कभी कभी
शायर प्पगल आशिक ही तो रातों के दरवेश रहे
फ़िक्रे-सुकूँ में थक थक कर ही कोई सोता कभी कभी
वज़्मे सुखन के नये चलन में शायर तो हर कोई हुआ
वाह वाह भी करते, मिलता कोई श्रोता कभी कभी
गज़लों के ताने बाने तो बुन लेती है अनुरूपा
पल जो कवितायें लिखवाता, कोई होता कभी कभी
*
           मुक्तिका :
           कभी-कभी
              संजीव 'सलिल'
          
 *
अपनों को अपनापन देकर कोई खोता कभी-कभी                                                                                अँखियों में सपनों को पाले कोई रोता कभी-कभी

अरमानों के आसमान में उड़ा पतंगें कोशिश की                               बाँध मगर पहले ले श्रम का कोई जोता कभी-कभी                             

बनते अपने मुँह मिट्ठू तुम चलो मियाँ सच बतलाओ                           गुण गाता औरों का भी क्या कोई तोता कभी-कभी                       

साये ने ही साथ अँधेरे में छोड़ा है अपनों का                              इसीलिये तो भेज न पाया कोई न्योता कभी-कभी

अपनों के जीने-मरने में हुए सम्मिलित सभी 'सलिल'                                                                               गैरों की लाशों को भी क्या कोई ढोता कभी-कभी

         
*******

*
 

सोनिया ने ही रचा इंदिरा गांधी की हत्या का षड्यंत्र- सुदर्शन

   

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रमुख के.एस.सुदर्शन ने कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी पर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या का षड्यंत्र रचने का आरोप लगाया। सुदर्शन ने सोनिया को सीआईए की एजेंट भी बताया। सुदर्शन ने यह भी कहा कि सोनिया अपनी मां की अवैध संतान है। हिंदू विरोधी दुष्प्रचार के खिलाफ आरएसएस के धरने पर मीडिया से चर्चा में सुदर्शन ने यह बातें कहीं।

सोनिया के पिता जेल में थे – सुदर्शन ने दावा किया कि जिस समय सोनिया का जन्म हुआ उसके पिता जेल में थे। इस बात को छुपाने के लिए ही वे अपनी जन्मतिथि 1944 के बजाय 1946 बताती हैं। उन्होंने दावा किया कि सोनिया का असली नाम सोनिया माइनो है। और वह सीआईए की एजेंट थी। राजीव गांधी ने ईसाई धर्म ग्रहण कर राबटरे नाम से उससे शादी की। बाद में इंदिरा गांधी ने वैदिक पद्धति से उनकी शादी कराई। इंदिरा गांधी को इस बात की भनक लग गई थी कि सोनिया सीआईए एजेंट है, लेकिन इंदिरा उसका अपने हिसाब से उपयोग करना चाहती थी। पंजाब में आतंकवाद के चरम पर पहुंचने पर सोनिया ने इंदिरा की हत्या का षडयंत्र रचा। इंदिरा गांधी की सुरक्षा से सतवंत सिंह को हटाने की बात हुई थी, लेकिन सोनिया ने यह नहीं होने दिया। जब इंदिरा गांधी को गोली लगी तो उन्हें करीब के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में ले जाने की वजह वह एम्स ले गई थी, जो काफी दूर था। तब तक उनका काफी खून बह चुका था। एम्स के डॉक्टरों ने कहा-ब्राट डेड (यानी रास्ते में ही उनकी मौत हो गई।) फिर राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने के बाद इंदिरा गांधी की मृत्यु की घोषणा की गई।

राजीव को था शक – सुदर्शन ने दावा किया कि राजीव गांधी को भी सोनिया पर शक हो गया था और वे उसे छोड़ने का मन बना रहे थे। सुदर्शन ने सोनिया पर राजीव की हत्या के षडच्यंत्र का आरोप लगाते हुए कहा कि सोनिया के इशारे पर ही श्रीपेरुंबदुर की सभा में जेड प्लस सुरक्षा नहीं की गई। सुदर्शन ने सवाल किया कि इंदिरा और राजीव दोनों का पोस्टमार्टम क्यों नहीं हुआ? और इस बात की जांच क्यों नहीं होती कि राजीव को जेड प्लस सुरक्षा क्यों नहीं उपलब्ध कराई गई। संवाददाताओं के पूछने पर उन्होंने कहा कि एक ग्रीक परिवार जो इटली का निवासी है और एक कांग्रेस नेता ने उन्हें यह सारी जानकारी दी। सुदर्शन ने उस नेता का नाम उजागर करने से इनकार कर दिया।



(भोपाल रिपोर्टर से साभार )
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जनोक्ति डेस्क

रविवार, 22 जनवरी 2012

हास्य कुंडली: --संजीव 'सलिल'

हास्य कुंडली
संजीव 'सलिल'
*

कल्लू खां गोरे मिले, बुद्धू चतुर सुजान.
लखपति भिक्षा माँगता, विद्यापति नादान..
विद्यापति नादान, कुटिल हैं भोला भाई.
देख सरल को जटिल, बुद्धि कवि की बौराई.
कलमचंद अनपढ़े, मिले जननायक लल्लू.
त्यागी करते भोग, 'सलिल' गोरेमल कल्लू..
*
अचला-मन चंचल मिला, कोमल-चित्त कठोर.
गौरा-वर्ण अमावसी, श्यामा उज्जवल भोर..
श्यामा उज्जवल भोर, अर्चना करे न पूजा.
दृष्टिविहीन सुनयना, सुलभा सदृश न दूजा..
मधुरा मृदुल कोकिला, कर्कश दिल दें दहला.
रक्षा करें आक्रमण, मिलीं विपन्ना कमला..
*
कहाँ कै मरे कैमरे, लेते छायाचित्र.
छाया-चित्र गले मिलें, ज्यों घनिष्ठ हों मित्र..
ज्यों घनिष्ठ हों मित्र, रात-दिन चंदा-सूरज.
एक बिना दूजा बेमानी, ज्यों धरती-रज..
लोकतंत्र में शोकतंत्र का राज्य है यहाँ.
बेहयाई नेता ने ओढ़ी, शर्म है कहाँ?..
*
जल न जलन से पायेगा, तू बेहद तकलीफ.
जैसे गजल कहे कोइ, बिन काफिया-रदीफ़..
बिन काफिया-रदीफ़, रुक्न-बहरों को भूले.
नहीं गाँव में शेष, कजरिया सावन झूले..
कहे 'सलिल कविराय', सम्हाल जग में है फिसलन.
पर उन्नति से खुश हो, दिल में रह ना जलन..
*


रूपम-रेनू परिणय : रजत जयंती पर

ॐ 
परात्पर परम ब्रम्ह कर्मेश्वर श्री चित्रगुप्त़ाय नमः 

रूपम-रेनू परिणय : रजत जयंती पर काव्यांजलि 
 *
वंदन श्री विघ्नेश का, रखें कृपा की दृष्टि
विधि-हरि-हर प्रति पल रखें, 'सलिल' स्नेह की वृष्टि

शारद-श्री-शक्ति त्रयी, रहें हमारे साथ
काम करें निष्काम हम, ऊँचा रखकर माथ

 
प्रकृति-पुरुष मिलकर करें, एक-दूजे को पूर्ण
रहे सकल संसार यह, बिन सहकार अपूर्ण

'रेनू-रूपम' कर रहे, मिल सपने साकार
 'निमिषा-निकिता' ने किया, सुरभित गृह-संसार

दें 'महेंद्र-सरला' मुदित, सुरपुर से आशीष
'कृष्णमोहन-मिथलेश' मिल, मना रहे हैं ईश

 'अनुपम पूनम अनुपमा, स्नेह-साधना दैव
अजय रुचिर राजीव सी, प्रीति प्रियंक सदैव

रूपाली-राकेश मिल, गएँ स्वागत गीत
नीलम मीनू अनीता, लें दिल से दिल जीत

वेड-प्रकाश तिमिर हरे, दें आशीष उमेश
श्वास-श्वास दीपित करे, विहँस मयंक-दिनेश

दीप-शिखा सम साथ हों, रूपम-रेनु हमेश
 अंतर में अंतर न हो, ईश कभी भी लेश

रिद्धि-सिद्धि नव निधि करें, हे विघ्नेश प्रदान
'सलिल-साधना' माँगते, प्रभु से मिल वरदान

स्वर्गोपम सुख पा सकें, रूपम-रेनू नित्य
मन्वंतर तक पल सके, तुहिना-प्रीति अनित्य

**********************************            
 
 

शनिवार, 21 जनवरी 2012

साक्षात्कार ... माधवी शर्मा गुलेरी जी से ... --लावण्य शाह

साक्षात्कार  ...  
 माधवी शर्मा गुलेरी जी से ... 
लावण्य   शाह
 

  

'तेरी कुड़माई हो गई है ? हाँ, हो गई।.... देखते नहीं, यह रेशम से कढा हुआ सालू।'' जेहन में ये पंक्तियाँ और पूरी कहानी आज भी है .चंद्रधर शर्मा गुलेरी ' जी की ' उसने कहा था ' प्रायः हर साहित्यिक प्रेमियों की पसंद में अमर है . अब आप सोच रहे होंगे किसी के ब्लॉग की चर्चा में यह प्रसंग क्यूँ , स्वाभाविक है सोचना और ज़रूरी है मेरा बताना . तो आज मैं जिस शक्स के ब्लॉग के साथ आई हूँ , उनके ब्लॉग का नाम ही आगे बढ़ते क़दमों को अपनी दहलीज़ पर रोकता है - " उसने कहा था " ब्लॉग के आगे मैं भी रुकी और नाम पढ़ा और मन ने फिर माना - गुम्बद बताता है कि नींव कितनी मजबूत है ! जी हाँ , 'उसने कहा था ' के कहानीकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की परपोती माधवी शर्मा गुलेरी का ब्लॉग है - 'उसने कहा था ' - http://guleri.blogspot.com/
माधवी ने २०१० के मई महीने से लिखना शुरू किया ... 'खबर' ब्लॉग की पहली रचना है , पर 'तुम्हारे पंख' में एक चिड़िया सी चाह और चंचलता है , जिसे जीने के लिए उसने कहा था की नायिका की तरह माधवी का मन एक डील करता है रेस्टलेस कबूतरों से -
"क्यों न तुम घोंसला बनाने को 
ले लो मेरे मकान का इक कोना
और बदले में दे दो
मुझे अपने पंख!" .... ज़िन्दगी की उड़ान जो भरनी है !
माधवी की मनमोहक मासूम सी मुस्कान में कहानियों वाला एक घर दिखता है ... जिस घर से उन्हें एक कलम मिली , मिले अनगिनत ख्याल ... हमें लगता है कविता जन्म ले रही है , पर नहीं कविता तो मुंदी पलकों में भी होती है , दाल की छौंक में भी होती है , होती है खामोशी में - ... कभी भी, कहीं भी , ............ बस वह आकार लेती है कुछ इस तरह -
"रोटी और कविता

मुझे नहीं पता
क्या है आटे-दाल का भाव
इन दिनों 

नहीं जानती 
ख़त्म हो चुका है घर में 
नमक, मिर्च, तेल और
दूसरा ज़रूरी सामान 

रसोईघर में क़दम रख 
राशन नहीं
सोचती हूं सिर्फ़
कविता 

आटा गूंधते-गूंधते
गुंधने लगता है कुछ भीतर
गीला, सूखा, लसलसा-सा 

चूल्हे पर रखते ही तवा 
ऊष्मा से भर उठता है मस्तिष्क 

बेलती हूं रोटियां 
नाप-तोल, गोलाई के साथ
विचार भी लेने लगते हैं आकार 

होता है शुरू रोटियों के
सिकने का सिलसिला
शब्द भी सिकते हैं धीरे-धीरे 

देखती हूं यंत्रवत्
रोटियों की उलट-पलट
उनका उफान 

आख़िरी रोटी के फूलने तक
कविता भी हो जाती है
पककर तैयार।" ......... गर्म आँच पर तपता तवा और गोल गोल बेलती रोटियों के मध्य मन लिख रहा है अनकहा , कहाँ कोई जान पाता है . पर शब्दों के परथन लगते जाते हैं , टेढ़ी मेढ़ी होती रोटी गोल हो जाती है और चिमटे से छूकर पक जाती है - तभी तो कौर कौर शब्द गले से नीचे उतरते हैं - मानना पड़ता है - खाना एक पर स्वाद अलग अलग होता है - कोई कविता पढ़ लेता है , कोई पूरी कहानी जान लेता है , कोई बस पेट भरकर चल देता है .... 
यदि माधवी के ब्लॉग से मैं उनकी माँ कीर्ति निधि शर्मा गुलेरी जी के एहसास अपनी कलम में न लूँ तो कलम की गति कम हो जाएगी . 
http://guleri.blogspot.com/2011/09/blog-post_12.html इस रचना में पाठकों को एक और नया आयाम मिलेगा द्रौपदी को लेकर ! 
माधवी की कलम में गजब की ऊर्जा है .... समर्थ , सार्थक पड़ाव हैं इनकी लेखनी के . -