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गुरुवार, 29 नवंबर 2012

मदनमहल स्टेशन

झलक:



जबलपुर का उप स्टेशन मदन महल मदनमहल madanmahal sub stateon of jabalpur

POEM: Tears of a Woman by Longings

POEM:



Tears of a Woman

by Longings


The tears of a woman
hold love and hope.
The tears of a woman
help her to cope.

The tears of a woman
come from the heart.
The tears of a woman
set her apart.

The tears of a woman
stream down in sadness.
The tears of a woman
can show her gladness.

The tears of a woman
wash her soul clean.
The tears of a woman
don't have to be seen.

The tears of a woman
can come from the heart.
The tears of a woman
can tear her apart.

The tears of a woman
can mean she is broken.
The tears of this woman
can say words that have never been spoken.


बुधवार, 28 नवंबर 2012

मुक्तिका: हो रहे संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
हो रहे
संजीव 'सलिल'
*
घना जो अन्धकार है तो हो रहे तो हो रहे।
बनेंगे हम चराग श्वास खो रहे तो खो रहे।।
*
जमीन चाहतों की बखर हँस रही हैं कोशिशें।

बूंद पसीने की फसल बो रहे तो बो रहे।।
*
अतीत बोझ बन गया, है भार वर्तमान भी।
भविष्य चंद ख्वाब, मौन ढो रहे तो ढो रहे।।
*
मुश्किलों के मोतियों की कद्र कीजिए हुजूर!
हौसलों के हाथ माल पो रहे तो पो रहे।।
*
प्राण-मन से एक हुए, मिल न पाए गम नहीं।
दूर हुए तन-बदन, जो दो रहे तो दो रहे।।
*
सफेद चादरों के दाग, डामली सियासतें-
कोयलों से घिस-रगड़ धो रहे तो धो रहे।।
*
गीत जागरण के सुन-सुना रहें हों लोग जब।
न फ़िक्र कर 'सलिल', जो शेष रो रहे तो रो रहे।।
*

शिशु गीत सलिला : 4 संजीव 'सलिल'


शिशु गीत सलिला : 4

संजीव 'सलिल'
*
31. धूप



खिड़की से घर में घुस आई,

परियों सी नाची-इठलाई।
सुबह गुनगुनी धूप सुनहरी-
सोन-किरण सबके मन भाई।।



बब्बा ने अखबार उठाया-
दादी ने मालिश करवाई।
बहिना गुड्डा-गुड़िया लाई,
दोनों की शादी करवाई।।
*
32. गौरैया



खिड़की से आयी
गौरैया,
बना घोंसला मुस्काई।
देख किसी को आता पास
फुर से उड़ जाती भाई।।



इसको कहते गौरैया,
यह है चूजे की मैया।
दाना उसे चुगाती है-
थककर कहे न- हे दैया!।।
*
33. दिन


दिन कहता है काम करो,
पाओ सफलता, नाम करो।
आलस छोड़ो, मेहनत कर,
मंजिल पा,  आराम करो।

34. शाम



हुई शाम डूबा सूरज, कहे:
'न मेहनत का पथ तज।'
सारे जग को राह दिखा-
कर विश्राम राम को भज।।
*
35. रात



हुआ अँधेरा आई रात,
जाओ न बाहर मानो बात।
खा-पीकर आराम करो-
सो देखो सपने, हो प्रात।।
*
36. चंदा मामा 


चंदा मामा आओ न,
तारे भी संग लाओ ना।
गिल्ली-डंडा कल खेलें-
आज पतंग उड़ाओ ना।।
*
37.चाँद



चाँद दिख रहा थाली सा,
रोटी फूलीवाली सा।
आलूचाप कभी लगता-
कभी खीर की प्याली सा।।



हँसिया कैसे बन जाता?

बादल पीछे छिप गाता।
कभी नहीं दीखता नभ में-
कभी चाँदनी बरसाता।।
*
38. तारा

सबकी आँखों का तारा,
पूर्व दिशा में ध्रुव तारा।
चमचम खूब चमकता है-
प्रभु को भी लगता प्यारा।।
*
39. तारे



तारे कभी नहीं लड़ते,
हिल-मिल खेल खेलते हैं।
आपद विपदा संकट को-
सँग-सँग 'सलिल' झेलते हैं।।
*
40. बादल


आसमान पर छाता बादल,
गर्मी-धूप घटाता बादल।
धरती पर फसलें उपजाने-
पानी भी बरसाता बादल।।


काला नीला लाल गुलाबी
कितने रंग दिखाता बादल।
मनचाहे आकार बनाता-
बच्चों को मन भाता बादल।।
*

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

POEM: MIDNIGHT STARS Dr. M C Gupta

POEM:




 
MIDNIGHT STARS

Dr. M C Gupta 

As I scan the midnight stars
I look for the one, my own;
That which shone for me on earth
But now beckons far above.

Are you the one winking bright,
That reminds me of your smile;
In your own subtle manner,
Sending love from far above?

Or, the one that shyly blinks,
Avoiding my searching gaze;
Like a dove, gentle and meek,
Watching me from far above?

Or, the one that always stays
All the time in the same place
So that I lose not my path,
Guiding me from far above?

My love radiates from which
Of the stars I do not know
But I know that though not here,
She is up there, far above.


* Written 7 syllables per line.



29 May 2004


--
(Ex)Prof. M C Gupta
MD (Medicine), MPH, LL.M.,
Advocate & Medico-legal Consultant
www.writing.com/authors/mcgupta44

गीत अन्दर - बाहर बड़ी चुभन है महेंद्र कुमार शर्मा

मेरी पसंद:
गीत 
अन्दर - बाहर बड़ी चुभन है
महेंद्र कुमार शर्मा 

*
अन्दर - बाहर बड़ी चुभन है
इस मौसम में बड़ी घुटन है
सच कहना दुश्वार हो गया
यह जीवन कोई जीवन है
चेहरे विकृत
लेकिन फिर भी
अपराधी बनता है दर्पण
चेहरों के इस महाकुम्भ में
चेहरों की दर्पण से अनबन

यहाँ मुखौटों
की मंडी है
इन चेहरों में
भाव नहीं है
चोखट चमकाने की क्षमता
प्रतिबिम्बों का मूल्यांकन है

यह जीवन कोई जीवन है

घाटों पर
जो नाव बांधते
पतवारों के सौदागर हैं
बढ़-चढ़ कर जो ज्ञान बांटते उनकी भी मैली चादर है

भक्तों की
भगदड़ में खुल कर
ईश्वर को नीलाम कर रहे
यहाँ पुजारी खुद जा बैठे
जहाँ देवता का आसन है
यह जीवन कोई जीवन है

स्वामिभक्ति का
पटट बांधकर
स्वान-झुण्ड कुछ यहाँ भौंकते
खाने-गुर्राने के फन में
अपनी प्रतिभा
-शक्ति झौंकते

द्रोणाचार्य

दक्षिणा में ही
कटा अंगूठा यहाँ मांगते
स्वानों का मुंह बंद कराते
एकलव्य पर प्रतिबंधन है

यह जीवन कोई जीवन है

दर्दों के
दीवानेपन पर
मीरां का वह छंद कहाँ है
अरे-दिले-नादाँ ग़ालिब की
ग़ज़लों का आनंद कहाँ है

दिनकर और
निराला की
इस पीढी का क्या हश्र हुआ है
गीतकार बन गए विदूषक
मंचों का यह अधोपतन है

यह जीवन कोई जीवन है
____________________
mahendra sharma <mks_141@yahoo.co.in>

सोमवार, 26 नवंबर 2012

लेख : :चित्रगुप्त रहस्य: आचार्य संजीव 'सलिल'

लेख                                               :चित्रगुप्त रहस्य:                                                                                                     

                                                                              आचार्य संजीव 'सलिल'

*
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं

              परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्म देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है:
Photo: JAI CHITRAGUPTA MAHARAJ KI

DHARMVEER KHARE''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''

              अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं. आत्मा क्या है? सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके लिए पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के लिए नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं
            
Photo: Ashutosh Shrivastava
|| चित्रगुप्त चालिसा ||

ब्रह्मा पुत्र नमामि नमामि, चित्रगुप्त अक्षर कुल स्वामी ||
अक्षरदायक ज्ञान विमलकर, न्यायतुलापति नीर-छीर धर ||
हे विश्रामहीन जनदेवता, जन्म-मृत्यु के अधिनेवता ||
हे अंकुश सभ्यता सृष्टि के, धर्म नीति संगरक्षक गति के ||
चले आपसे यह जग सुंदर, है नैयायिक दृष्टि समंदर || 
हे संदेश मित्र दर्शन के, हे आदर्श परिश्रम वन के ||
हे यममित्र पुराण प्रतिष्ठित, हे विधिदाता जन-जन पूजित ||
हे महानकर्मा मन मौनम, चिंतनशील अशांति प्रशमनम ||
हे प्रातः प्राची नव दर्शन, अरुणपूर्व रक्तिम आवर्तन ||
हे कायस्थ प्रथम हो परिघन, विष्णु हृद्‌य के रोमकुसुमघन ||
हे एकांग जनन श्रुति हंता, हे सर्वांग प्रभूत नियंता ||
ब्रह्म समाधि योगमाया से, तुम जन्मे पूरी काया से ||
लंबी भुजा साँवले रंग के, सुंदर और विचित्र अंग के ||
चक्राकृत गोला मुखमंडल, नेत्र कमलवत ग्रीवा शंखल ||
अति तेजस्वी स्थिर द्रष्टा, पृथ्वी पर सेवाफल स्रष्टा || 
तुम ही ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र हो, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शुद्र हो ||
चित्रित चारु सुवर्ण सिंहासन, बैठे किये सृष्टि पे शासन ||
कलम तथा करवाल हाथ मे, खड़िया स्याही लिए साथ में ||
कृत्याकृत्य विचारक जन हो, अर्पित भूषण और वसन हो ||
तीर्थ अनेक तोय अभिमंत्रित, दुर्वा-चंदन अर्घ्य सुगंधित ||
गम-गम कुमकुम रोली चंदन, हे कायस्थ सुगंधित अर्चन ||
पुष्प-प्रदीप धूप गुग्गुल से, जौ-तिल समिधा उत्तम कुल के ||
सेवा करूँ अनेको बरसो, तुम्हें चढाँऊ पीली सरसों ||
बुक्का हल्दी नागवल्लि दल, दूध-दहि-घृत मधु पुंगिफल ||
ऋतुफल केसर और मिठाई, कलमदान नूतन रोशनाई ||
जलपूरित नव कलश सजा कर, भेरि शंख मृदंग बजाकर ||
जो कोई प्रभु तुमको पूजे, उसकी जय-जय घर-घर गुंजे ||
तुमने श्रम संदेश दिया है, सेवा का सम्मान किया है ||
श्रम से हो सकते हम देवता, ये बतलाये हो श्रमदेवता ||
तुमको पूजे सब मिल जाये, यह जग स्वर्ग सदृश्य खिल जाए ||
निंदा और घमंड निझाये, उत्तम वृत्ति-फसल लहराये ||
हे यथार्थ आदर्श प्रयोगी, ज्ञान-कर्म के अद्‌भुत योगी ||
मुझको नाथ शरण मे लीजे, और पथिक सत्पथ का कीजे ||
चित्रगुप्त कर्मठता दिजे, मुझको वचन बध्दता दीजे ||
कुंठित मन अज्ञान सतावे, स्वाद और सुखभोग रुलावे ||
आलस में उत्थान रुका है, साहस का अभियान रुका है ||
मैं बैठा किस्मत पे रोऊ, जो पाया उसको भी खोऊ ||
शब्द-शब्द का अर्थ मांगते, भू पर स्वर्ग तदर्थ माँगते ||
आशीर्वाद आपका चाहू, मैं चरणो की सेवा चाहू ||
सौ-सौ अर्चन सौ-सौ पूजन, सौ-सौ वंदन और निवेदन || 
~Kayastha~सभी जानते हैं कि आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं। 

चित्रगुप्त पूर्ण हैं            अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आराम तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। इसी का पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते                                                                                          पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते 
*
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।

चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण हैं  
  
                                                                 
         चित्रगुप्त निराकार ही नहीं निर्गुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिए वे साकार-सगुण रूप में प्रगट होते हैं। आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।

अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह।                                                 
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
*
परमब्रम्ह के अंश कर, कर्म भोग परिणाम जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।

कर्म ही वर्ण का आधार 


           श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः' अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं। स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं हो था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में  बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से  हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिए मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।

चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे? 


           श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वन हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह कहने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं। चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं। सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है।मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं।

सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य:
        
 

               आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में परतो पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना। यम द्वितीय पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिए 'ॐ' को श्रृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिए उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।

बहुदेव वाद की परंपरा

          इसके नीचे कुछ श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठाई जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु के साकार होकर सृष्टि के कल्याण के लिए विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है। सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये।

पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य 

        निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम की पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियां अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन व्यवसायिक कार्य न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
          'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है।

उदारता तथा समरसता की विरासत
          यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वतीसभी का पूजन किया जाता है। आर्य समाज, साईं बाबा, युग निर्माण योजना आदि हर रचनात्मक मंच पर कायस्थ योगदान करते मिलते हैं।
_____________________________
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रविवार, 25 नवंबर 2012

चित्र पर कविता: रसपान

चित्र पर कविता:
रसपान

इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ अब तक प्रकाशित चित्रों में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य के विविध आयामों को हम तक तक पहुँचाने में सफल रहीं हैं. संभवतः हममें से कोई भी किसी चित्र के उतने पहलुओं पर नहीं लिख पाता जितने पहलुओं पर हमने रचनाएँ पढ़ीं. 

चित्र और कविता की कड़ी १. संवाद, २. स्वल्पाहार,
३. दिल-दौलत, ४. प्रकृति, ५ ममता,  ६.  पद-चिन्ह, ७. जागरण, ८. परिश्रम, ९. स्मरण, १०. उमंग तथा ११ सद्भाव  के पश्चात् प्रस्तुत है चित्र रसपान. ध्यान से देखिये यह नया चित्र और रच दीजिये एक अनमोल कविता.

apple blossoms and butterfly macro 

कली-पुष्प रसमय हुए, पवन तरंगित देख।
तितली ने रस पान कर, पढ़ा प्रणय का लेख।।

हुलस-पुलक तितली हुई, पुष्पों पर बलिहार।
पुष्प-पंखुड़ियों ने किया, स्वागत हुईं निसार।।

रंग प्रणय का चढ़ गया, फूल उठे हैं फूल।
फूल न तितली छरहरी, गयी वृंत पर झूल।।  

तितली का स्वागत करे, फूल कहे आदाब।
गुनगुनकर तितली कहे, सत्य हो गया ख्वाब।।

 कौन हुआ है किस पर यहाँ, मुग्ध बताये कौन?
गान-पान रस का करें, प्रणयी होकर मौन।।

**********
इंदिरा प्रताप 

रसपान
*
पी के हो मस्त
रूप - रस - गंध
सब एक संग
उड़ गई लो उड़ गई
तितीलिका -
ले के सब संग |
 
रह गया बेचारा
देख फूल दंग
कैसा तेरा ढंग
खिल रहा हू डाल पर
फिर भी हो मगन
सहयोगियों के संग |
 
डाल डाल झूल रहा
मन ही मन फूल रहा
सिहर रहे गात हैं
संग तेरा साथ है
कब तक ,कब तक
हे प्रभु, कैसा ये प्रसंग है |
 
***

घनाक्षरी: फूंकता कवित्त प्राण... संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी:
   फूंकता कवित्त प्राण...
   संजीव 'सलिल'
    *
फूँकता कवित्त प्राण, डाल मुरदों में जान, 
    दीप बाल अंधकार, ज़िन्दगी का हरता।    
    नर्मदा निनाद सुनो,सच की ही राह चुनो,
    जीतता सुधीर वीर, पीर पीर सहता।।
    'सलिल'-प्रवाह पैठ, आगे बढ़ नहीं बैठ,
    सागर है दूर पूर, दूरी हो निकटता।
    आना-जाना खाली हाथ, कौन कभी देता साथ,
    हो अनाथ भी सनाथ, प्रभु दे निकटता।।
    *
    (वर्णिक छंद, 8-8-8-7 पर यति,
________________________________

घनाक्षरी / कवित्त रामबाबू गौतम

घनाक्षरी - कवित्त
रामबाबू गौतम                        

               चमके लली
चमके लली ललाम, गाल-लाल अभिराम,  
कमरि- कटीली तन, चले  तन-तनके
तनके  अनंग-अंग, मन  में  उमंग-संग,  
चले-चाल ये  भुजंग, बड़े  बन  ठनके
ठनके मांथा वैरियों, का देखि लली ये रूप,  
नैनन से करे वार, बड़े  जम-जमके।    
जमके ये वार-बार, हारे वैरी की कतार,  
हाथ की कटार-ढाल, लली हाथ चमके

            बिहार में विहार.

है बिहार में विहार, गढ़-वैशाली वहार,  
राजा विशाल-महल, भव्यता- परतीक है
है ये नर्तकी की भूमि, आम्रपाली रही झूमि, 
बुद्ध-प्रबुद्ध पधारे, स्वागत सटीक है।   
है घन्य-भाग्यशाली ये, भूमि-वैशाली विस्तार,  
चलके पधारे बुद्ध, धन्य ये अतीत  है। 
है विहार का प्रचार, विचार गढ़-विशाल,  
त्यागा भिक्षा-पात्र बुद्ध, दान का प्रतीक है।  
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न्यू जर्सी 
                       

शनिवार, 24 नवंबर 2012

गीत: हर सड़क के किनारे संजीव 'सलिल'

गीत:
हर सड़क के किनारे



संजीव 'सलिल'
*
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*
कुछ जवां, कुछ हसीं, हँस मटकते हुए,
नाज़नीनों के नखरे लचकते हुए।
कहकहे गूँजते, पीर-दुःख भूलते-
दिलफरेबी लटें, पग थिरकते हुए।।



बेतहाशा खुशी, मुक्त मति चंचला,
गति नियंत्रित नहीं, दिग्भ्रमित मनचला।
कीमती थे वसन किन्तु चिथड़े हुए-
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*
चाह की रैलियाँ, ध्वज उठाती मिलीं,
डाह की थैलियाँ, खनखनाती मिलीं।
आह की राह परवाह करती नहीं-
वाह की थाह नजरें भुलातीं मिलीं।।


 

दृष्टि थी लक्ष्य पर पंथ-पग भूलकर,
स्वप्न सत्ता के, सुख के ठगें झूलकर।
साध्य-साधन मलिन, मंजु मुखड़े हुए
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*
ज़िन्दगी बन्दगी बन न पायी कभी,
प्यास की रास हाथों न आयी कभी।
श्वास ने आस से नेह जोड़ा नहीं-
हास-परिहास कुलिया न भायी कभी।।



जो असल था तजा, जो नकल था वरा,
स्वेद को फेंककर, सिर्फ सिक्का ।
साध्य-साधन मलिन, मंजु उजड़े हुए
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*

व्यंग्य चित्र

व्यंग्य चित्र

शिशु गीत सलिला : 3 संजीव 'सलिल'

शिशु गीत सलिला : 3





  
संजीव 'सलिल'
* 
21. नाना



मम्मी के पापा नाना,
खूब लुटाते हम पर प्यार।
जब भी वे घर आते हैं-
हम भी करते बहुत दुलार।।



खूब खिलौने लाते हैं,
मेरा मन बहलाते हैं।
नाना बाँहों में लेकर-
झूला मुझे झुलाते हैं।।
*
22. नानी -1



कहतीं रोज कहानी हैं,
माँ की माँ ही नानी हैं।
हर मुश्किल हल कर लेतीं-
सचमुच बहुत सयानी हैं।।
*
23. नानी-2




नानी जी के गोरे  बाल,
धीमी-धीमी उनकी चाल।
दाँत ले गए क्या चूहे-
झुर्रीवाली क्यों है खाल?



चश्मा रखतीं नाक पर,
देखें उससे झाँक कर।
कैसे बुन लेतीं स्वेटर?
लम्बा-छोटा आँककर।।
*
24. चाचा 

  


चाचा पापा के भाई,
हमको लगते हैं अच्छे।
रहें बड़ों सँग, लगें बड़े-
बच्चों में  लगते बच्चे।।

चाचा बच्चों संग खेलें,
सबके सौ नखरे झेलें। 
जो बच्चा थक जाता -
झट से गोदी में ले लें।।
*
25. बुआ



प्यारी लगतीं मुझे बुआ,
मुझे न कुछ हो- करें दुआ।
पराई बहिना पापा की-
पाला घर में हरा सुआ।।
चना-मिर्च उसको देतीं
मुझे खिलातीं मालपुआ।
*
26.मामा



मामा मुझको मन भाते,
माँ से राखी बँधवाते।
सब बच्चों को बैठकर
गप्प मारते-बतियाते।।
हम आपस में झगड़ें तो-
भाईचारा करवाते।
मुझे कार में बिठलाते-
सैर दूर तक करवाते।।
*
27. मौसी



मौसी माँ जैसी लगती,
मुझको गोद उठा हँसती।
ढोलक खूब बजाती है,
केसर-खीर खिलाती है।
*


28. दोस्त



मुझसे मिलने आये दोस्त,
आकर गले लगाये दोस्त।
खेल खेलते हम जी भर-
मेरे मन को भाये दोस्त।।
*
29. सुबह

सुबह हुई अँधियारा भागा,
हुआ उजाला भाई।
'उठो, न सो' गोदी ले माँ ने
निंदिया दूर भगाई।।
गाय रंभाई, चिड़िया चहकी,
हवा बही सुखदाई।
धूप गुनगुनी हँसकर बोली:
मुँह धो आओ भाई।।
*
30. सूरज

आसमान में आया सूरज,
सबके मन को भाया सूरज।
लाल-लाल आकाश हो गया-
देख सुबह मुस्काया सूरज।।
डरकर भाग गयी है ठंडी
आँख दिखा गरमाया सूरज।
रात-अँधेरे से डर लगता
घर जाकर सुस्ताया सूरज।। 

व्यंग्य चित्र:

व्यंग्य चित्र: