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शनिवार, 1 नवंबर 2014

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नवगीत:  

गुमसुम बैठी 
किन प्रश्नों से 
जूझ रही हो?

मोबाइल को 
खोल-बंदकर झुंझलाती हो 
फिक्र मंद हो 
दूजे पल ही मुस्काती हो 
धूप-छाँव, 
ऊषा-संध्या से रंग अनेकों 
आते-जाते 
चेहरे पर, मन भरमाती हो 

कौन पहेली 
जिसे सहेली 
बूझ रही हो?

पर्स निकट ही 
उठा-रख रहीं बार-बार तुम 
कभी हटातीं 
लटें कभी लेतीें सँवार तुम 
विजयी लगतीं 
कभी लग रहीं गयीं हार तुम 
छेड़ रहीं क्या 
मन-वीणा के सुप्त तार तुम?

हल बनकर 
हर जटिल प्रश्न का 
सूझ रही हो 

***



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