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सोमवार, 24 नवंबर 2014

navgeet:

चित्र पर नवगीत:


दादी को ही नहीं
गाय को भी भाती हो धूप

तुम बिन नहीं सवेरा होता
गली उनींदी ही रहती है
सूरज फसल नेह की बोता
ठंडी मन ही मन दहती है
ओसारे पर बैठी
अम्मा फटक रहीं है सूप

हित-अनहित के बीच खड़ी
बँटवारे की दीवार
शाख प्यार की हरियाए झाँके
दीवाल के पार
भौजी  चलीं मटकती, तसला
लेकर दृश्य अनूप

तेल मला दादी के, बैठी
देखूं किसकी राह?
कहाँ छबीला जिसने पाली
मन में मेरी चाह
पहना गया मुँदरिया बनकर
प्रेमनगर का भूप
*** 

2 टिप्‍पणियां:

ksantosh_45@yahoo.co.in ने कहा…


santosh kumar ksantosh_45@yahoo.co.in [ekavita]

कई नवगीत आपके आये हैं उनमें मुझे श्रेष्ठ और रुचिकर लगा. मैंने व्यक्तिगत फाइल में सहेज लिया है. बहुत-बहुत
बधाई सलिल जी.
सन्तोष कुमार सिंह

Kusum Vir kusumvir@gmail.com ने कहा…


Kusum Vir kusumvir@gmail.com

सुन्दर रचना के लिए बधाई, आचार्य जी l
सादर,
कुसुम