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सोमवार, 15 दिसंबर 2014

navgeet:

नवगीत:


पत्थरों की फाड़कर छाती
उगे अंकुर
.
चीथड़े तन पर लपेटे
खोजते बाँहें
कोई आकर समेटे।
खड़े हो गिर-उठ सम्हलते
सिसकते चुप हो विहँसते।
अंधड़ों की चुनौती स्वीकार 
पल्लव लिये अनगिन
जकड़कर जड़ में तनिक माटी 
बढ़े अंकुर।
.
आँख से आँखें मिलाते
बनाते राहें 
नये सपने सजाते। 
जवाबों से प्रश्न करते
व्यवस्था से नहीं डरते।
बादलों की गर्जना-ललकार  
बूँदें पियें गिन-गिन  
तने से ले अकड़ खांटी  
उड़े अंकुर।
.
घोंसले तज हौसले ले
चल पड़े आगे  
प्रथा तज फैसले ले। 
द्रोण को ठेंगा दिखाते 
भीष्म को प्रण भी भुलाते।
मेघदूतों का करें सत्कार  
ढाई आखर पढ़ हुए लाचार    
फूलकर खिल फूल होते   
हँसे अंकुर।
.
     

3 टिप्‍पणियां:

santosh kumar ksantosh_45@yahoo.co.in ने कहा…


santosh kumar ksantosh_45@yahoo.co.in [ekavita]

आ०सलिल जी
बहुत ही अच्छा नवगीत है
बधाई.
सन्तोष कुमार सिंह

Surender Bhutani suren84in@yahoo.com [ekavita] ने कहा…

Surender Bhutani suren84in@yahoo.com [ekavita]
8:54 pm (10 घंटे पहले)

ekavita


सलिल जी,
क्या सृजन शक्ति है आप में ! एक से बढ़ कर एक नवगीत आप भेज रहे हैं
मुबारक

सादर,
सुरेन्द्र

sanjiv ने कहा…

दादा!
धन्यवाद।
माँ शारदा ही लिखा लेती हैं.