कुल पेज दृश्य

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत :
संजीव
.
हवाओं में
घुल गये हैं
बंद मादक
छंद के.
.
भोर का मुखड़ा
गुलाबी
हो गया है.
उषा का नखरा
शराबी
हो गया है.
कूकती कोयल
न दिखती
छिप बुलाती.
मदिर महुआ
तंग
काहे तू छकाती?
फिज़ाओं में
कस गये हैं
फंद मारक
द्वन्द  के.
.
साँझ का दुखड़ा
अँधेरा  
बो रहा है.
रात का बिरवा  
अकेला
रो रहा है.
कसमसाती
चाँदनी भी  
राह देखे.
चाँद कब आ  
बाँह में ले  
करे लेखे?
बुलावों को
डँस गये हैं
व्यंग्य मारक
नंद के.  
*

कोई टिप्पणी नहीं: