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गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

kavita: sanjiv

कविता:
अपनी बात:
संजीव 
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पल दो पल का दर्द यहाँ है 
पल दो पल की खुशियाँ है 
आभासी जीवन जीते हम 
नकली सारी दुनिया है 

जिसने सच को जान लिया 
वह ढाई आखर पढ़ता है 
खाता पीता सोता है जग 
हाथ अंत में मलता है

खता हमारी इतनी ही है 
हमने तुमको चाहा है 
तुमने अपना कहा मगर 
गैरों को गले लगाया है 

धूप-छाँव सा रिश्ता अपना 
श्वास-आस सा नाता है 
दूर न रह पाते पल भर भी 
साथ रास कब आता है 

नोक-झोक, खींचा-तानी ही 
मैं-तुम को हम करती है 
उषा दुपहरी संध्या रजनी 
जीवन में रंग भरती है

कौन किसी का रहा हमेशा 
सबको आना-जाना है 
लेकिन जब तक रहें 
न रोएँ हमको तो मुस्काना है 
*  

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