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शनिवार, 18 अप्रैल 2015

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
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बोलना था जब तभी लब कुछ नहीं बोले
बोलना था जब नहीं बेबात भी बोले
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काग जैसे बोलते हरदम रहे नेता
गम यही कोयल सरीखे क्यों नहीं बोले?
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परदेश की ध्वजा रहे फहरा अगर नादां
निज देश का झंडा उठा हम मिल नहीं बोले
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रिश्ते अबोले रिसते रहे बूँद-बूँदकर
प्रवचन सुने चुप सत्य, सुनकत झूठ क्या बोले?
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बोलते बाहर रहे घर की सभी बातें
घर में रहे अपनों से अलग कुछ नहीं बोले.
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सरहद पे कटे शीश या छाती हुई छलनी  
माँ की बचायी लाज, लाल चुप नहीं बोले.
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