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रविवार, 5 अप्रैल 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत : 
संजीव 
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खेत उगलते हैं सोना पर 
खेतिहरों का दीवाला है 
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जो बोये-काटे वह भूखा
जो हथिया ले वही सुखी है
मिल दलाल लें लूट मुनाफा
उत्पादक मर रहा दुखी है
भूमि छीनते हो किसान की
कैसे भूमि-पुत्र हो? बोलो!
जनप्रतिनिधि सोचो-शर्माओ
मत ज़मीर अपना यूं बेचो
निज सुविधा त्यागो, जनगण सा
जीवन जियों, बनो साधारण
तब ही तो कर पाओगे तुम
आमजनों का कष्ट निवारण
गंगा सुखी लोकनीति की
भरा स्वार्थ का परनाला है
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वनवासी से छीन लिये वन
है अधनंगा श्रमिक शहर में
शिखर मानकों के फेकें हैं
तोड़-तोड़कर सतत गव्हर में
दलहित साध्य हुआ सूरों को
गौड़ देशहित मान रहे हो
जयचंदी है मूढ़ सियासत
घोल कुएँ में भाँग रहे हो
सर्वदली सरकार बनाओ
मतभेदों का शमन करो मिल
भारत पहली विश्वशक्ति हो
भारत माँ की शपथ गहो नित
दीनबन्धु बन पोछों आँसू
दीन-हीन के सँग मेहनत कर
तभी खुलेगा भारत के
उन्नति पथ का लौही ताला है
...

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