कुल पेज दृश्य

शनिवार, 16 मई 2015

muktak salila: sanjiv

मुक्तक सलिला:
संजीव
*
जब गयी रात संग बात गयी 
जब सपनों में बारात गयी 
जब जीत मिली स्वागत करती 
तब-तब मुस्काती मात गयी
*
तुझको अपना पता लगाना है?
खुद से खुद को अगर मिलाना है
मूँद कर आँख बैठ जाओ भी 
दूर जाना करीब आना है 
*
न, अपने आपको खुद से कभी छिपाना मत 
न, अपने आपको सब को कभी दिखाना मत 
न, धूप-छाँव से दिन-रात से न घबराओ
न अपने सपने जो देखे कभी भुलाना मत 
*
हर्ष उत्कर्ष का जादू ही हुआ करता है 
वही करता है जो अपकर्ष से न डरता है
दिए-बाती की तरह ख्वाब सँग असलियत हो
तब ही संघर्ष 'सलिल' सफल हुआ करता है
*



कोई टिप्पणी नहीं: