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रविवार, 28 जून 2015

doha muktika: sanjiv

दोहा मुक्तिका:
संजीव 
*
उगते सूरज की करे, जगत वंदना जाग 
जाग न सकता जो रहा, उसका सोया भाग 
*
दिन कर दिनकर ने कहा, वरो कर्म-अनुराग 
संध्या हो निर्लिप्त सच, बोला: 'माया त्याग'
*
तपे दुपहरी में सतत, नित्य उगलता आग 
कहे: 'न श्रम से भागकर, बाँधो सर पर पाग 
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उषा दुपहरी साँझ के, संग खेलता फाग 
दामन पर लेकिन लगा, कभी न किंचित दाग
*
निशा-गोद में सर छिपा, करता अचल सुहाग 
चंद्र-चंद्रिका को मिला, हँसे- पूर्ण शुभ याग 
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भू भगिनी को भेंट दे, मार तिमिर का नाग 
बैठ मुँड़ेरे भोर में, बोले आकर काग 
*
'सलिल'-धार में नहाये, बहा थकन की झाग
जग-बगिया महका रहा, जैसे माली बाग़ 
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