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शनिवार, 22 अगस्त 2015

navgeet

नवगीत:
संजीव
*
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
कलम नहीं
पेडों की रहती
कभी पेड़ के साथ.
झाड़ न लेकिन
झुके-झुकाता
रोकर अपना माथ.
आजीवन फल-
फूल लुटाता
कभी न रोके हाथ
गम न करे
न कभी भटकता
थामे प्याला-साकी
मानव! क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
तिनके चुन-चुन
नीड बनाते
लाकर चुग्गा-दाना।
जिन्हें खिलाते
वे उड़ जाते 
पंछी तजें न गाना।
आह न भरते
नहीं जानते
दुःख कर अश्रु बहाना
दोष नहीं
विधना को देते,
जियें ज़िंदगी बाकी
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
जैसा बोये 
वैसा काटे
नादां मनुज अकेला
सुख दे, दुःख ले 
जिया न जीवन  
कह सम्बन्ध झमेला.
सीखा, नहीं सिखाया 
पाया, नहीं
लुटाना जाना।
जोड़ा, काम न आया
आखिर छोड़ी   
ताका-ताकी

मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
 

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