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बुधवार, 2 सितंबर 2015

doha

: दोहा सलिला :
इंदु गौर मन भा गया, अम्बर नीला खूब
मेघ दाह से श्याम हो, बरसा गम में डूब
*
उषा माधुरी देखकर, होता मुग्ध प्रभात
दिनकर दिन कर हँस दिया, अब न बनेगी बात
*
देख ताल भोपाल का, सिंह हो गया मनोज
संध्या निगले सूर्य को, अम्बर देता भोज
*
केशव के शव संग हुआ, द्वापर युग का अंत
पार्थ पराजित भील से, देखें काँप दिगंत
*
रहे न संपादक 'सलिल', वे विद्वान प्रवीण
जिनके यश का शशि हुआ, किंचित नहीं मलीन
*
जीत इन्द्रियाँ मन हुआ, जब से 'सलिल' जितेंद्र
वंदन करे नरेंद्र का, आकर आप सुरेन्द्र
*

1 टिप्पणी:

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर दोहे...