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मंगलवार, 3 नवंबर 2015

navgeet

एक रचना:
*
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
.
बीज न बोता
और चाहता फसल मिले
नीर न नयनों में
कैसे मन-कमल खिले
अंगारों से जला
हथेली-तलवा भी
क्या होती है
तपिश तभी तो पता चले
छाया-बैठा व्यर्थ
धूप को कोस रहा
घूरे सूरज को
चकराकर आँख मले
लौटना था तो
तूने माँगा क्यों था?
जनगण-मन से दूर
आप को आप छले
ईंट जोड़ना
है तो खुद
को रेती कर
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
.
गधे-गधे से
मिल ढेंचू-ढेंचू बोले
शेर दहाड़ा
'फेंकू' कह दागें गोले
कूड़ा-करकट मिल
सज्जित हो माँग भरें
फिर तलाक माँगें
कहते हम हैं भोले
सौ चूहे खा
बिल्ली करवाचौथ करे
दस्यु-चोर ईमान
बाँट बिन निज तौले
घास-फूस की
छानी तले छिपाए सिर
फूँक मारकर
जला रहे नाहक शोले
ऊसर से
फल पाने
खुद को गेंती कर
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
.  

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