कुल पेज दृश्य

शनिवार, 21 मई 2016

नवगीत-

एक रचना 
*
मात्र मेला मत कहो
जनगण हुआ साकार है। 
*
'लोक' का है 'तंत्र' अद्भुत 
पर्व, तिथि कब कौन सी है?
कब-कहाँ, किस तरह जाना-नहाना है? 
बताता कोई नहीं पर
सूचना सब तक पहुँचती। 
बुलाता कोई नहीं पर 
कामना मन में पुलकती 
चलें, डुबकी लगा लें 
यह मुक्ति का त्यौहार है।  
*
'प्रजा' का है 'पर्व' पावन 
सियासत को लगे भावन 
कहीं पण्डे, कहीं झंडे- दुकाने हैं  
टिकाता कोई नहीं पर 
आस्था कब है अटकती?  
बुझाता कोई नहीं पर  
भावना मन में सुलगती 
करें अर्पित, पुण्य पा लें   
भक्ति का व्यापार है।  
*
'देश' का है 'चित्र' अनुपम  
दृष्ट केवल एकता है।
भिन्नताएँ भुला, पग मिल साथ बढ़ते 
भुनाता कोई नहीं पर 
स्नेह के सिक्के खनकते। 
स्नान क्षिप्रा-नर्मदा में  
करे, मानें पाप धुलते 
पान अमृत का करे  
मन आस्था-आगार है।  
*

कोई टिप्पणी नहीं: