एक रचना
*
आग उगलकर
थक जाओगे, सूरज!
मगर न हम सुधरेंगे।
*
अक्ल-अजीर्ण हुआ है हमको
खुद समझते हैं हम खुद को।
खोद रहे निज कब्र आप ही
दोष दे रहे नाहक रब को।
जंगल काटे, पर्वत खोदे
नदी-सरोवर पाट दिए हैं
छीन रहे
औरों की रोटी
हाहाकार न दूर करेंगे।
आग उगलकर
थक जाओगे, सूरज!
मगर न हम सुधरेंगे।
*
पगडण्डी अब नहीं सुहाती
अमराई, चौपाल न भाती।
कजरी, राई, बटोही बिसरे
सत्ता-स्वारथ सगे-सँगाती।
मीदासी जीवन शैली ने
मन में झड़े गाड़ दिए हैं।
आदर्शों की
द्रुपदसुता का
चीरहरण कर ठठा हँसेंगे।
आग उगलकर
थक जाओगे, सूरज!
मगर न हम सुधरेंगे।
*
आड़ धर्म-मजहब की लेकर
अपना उल्लू सीधा करते।
अपने घर में लूट-पाटकर
लुक-छिपा निज जेबें भरते।
छुरा पीठ में भोंक लाश की
दिग्विजयी खुद को कहते हैं।
इसकी टोपी
उसके सिर धर
खुद को खुद ही छलें-ठगेंगे।
आग उगलकर
थक जाओगे, सूरज!
मगर न हम सुधरेंगे।
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें