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रविवार, 3 जुलाई 2016

muktak

​मुक्तक
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​ज्योति तम हर, जगत ज्योतित कर रही
आत्म-आहुति पंथ हँस कर वर रही
ज्योति बिन है नयन-अनयन एक से
ज्योति मन-मंदिर में निशि-दिन बर रही ​​
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ज्योति ईश्वर से मिलाती भक्त को
बचाती ठोकर से कदम अशक्त को
प्राण प्रभु से मिल सके तब ही 'सलिल'
ज्योति में मन जब हुआ अनुरक्त हो
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ज्योति मन में जले अंधा सूर हो
और मीरा के ह्रदय में नूर हो
ज्योति बिन सूरज, न सूरज सा लगे
चन्द्रमा का गर्व पल में चूर हो
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ज्योति में आकर पतंगा जल मरे
दोष क्या है ज्योति का?, वह क्यों डरे?
ज्योति को तूफां बुझा दे तो भी क्या?
आखिरी दम तक तिमिर को वह हरे
इसलिए जग ज्योति का वंदन करे
हुए ज्योतित आप जल, मानव खरे
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ज्योति का आभार सब जग मानता
ज्योति बिन खुद को न कोेेई जानता
ज्योति नयनों में बसे तो जग दिखे
ज्योति-दीपक से अँधेरा हारता
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