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गुरुवार, 31 मार्च 2016

अनुप्रिया

कविता और रेखाचित्र - अनुप्रिया #शब्दांकनप्रतिभा परिचय :

अब तक हमने गीत, ग़ज़ल, कवितायेँ, लघुकथा, समीक्षाएँ आदि का आनंद लिया। आज प्रस्तुत हैं दिल्ली निवासी अनुप्रिया जी के रेखा चित्र इनका आनंद लें और अपने अनुभव टिप्पणी में अंकित करें।





    



मंगलवार, 29 मार्च 2016

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२१.३.२०१६ 

*

रविवार, 27 मार्च 2016

navgeet

नवगीत
*
ताप धरा का 
बढ़ा चैत में 
या तुम रूठीं?
लू-लपटों में बन अमराई राहत देतीं। 
कभी दर्प की उच्च इमारत तपतीं-दहतीं।
बाहों में आ, चाहों ने हारना न सीखा-
पगडंडी बन, राजमार्ग से जुड़-मिल जीतीं।
ठंडाई, लस्सी, अमरस 
ठंडा खस-पर्दा-
बहा पसीना 
हुई घमौरी 
निंदिया टूटी।
*
सावन भावन 
रक्षाबंधन 
साड़ी-चूड़ी।
पावस की मनहर फुहार  मुस्काई-झूमी।
लीक तोड़कर कदम-दर-कदम मंजिल चूमी।
ध्वजा तिरंगी फहर हँस पड़ी आँचल बनकर- 
नागपंचमी, कृष्ण-अष्टमी सोहर-कजरी।
पूनम-एकादशी उपासी 
कथा कही-सुन-
नव पीढ़ी में 
संस्कार की
कोंपल फूटी। 
*
अन्नपूर्णा!
शक्ति-भक्ति-रति 
नेह-नर्मदा।
किया मकां को घर, घरनी कण-कण में पैठीं।
नवदुर्गा, दशहरा पुजीं लेकिन कब ऐंठीं?
धान्या, रूपा, रमा, प्रकृति कल्याणकारिणी-
सूत्रधारिणी सदा रहीं छोटी या जेठी। 
शीत-प्रीत, संगीत ऊष्णता 
श्वासों की तुम- 
सुजला-सुफला 
हर्षदायिनी 
तुम्हीं वर्मदा।
*
जननी, भगिनी 
बहिन, भार्या 
सुता नवेली।
चाची, मामी, फूफी, मौसी, सखी-सहेली।
भौजी, सासू, साली, सरहज छवि अलबेली-
गति-यति, रस-जस,लास-रास नातों की सरगम-
स्वप्न अकेला नहीं, नहीं है आस अकेली। 
रुदन, रोष, उल्लास, हास, 
परिहास,लाड़ नव- 
संग तुम्हारे 
हुई जिंदगी ही
अठखेली।
*****

शनिवार, 26 मार्च 2016

एक गीत : मधुगान माँगता हूँ.....

स्मृति शेष.......

एक गीत : मधुगान माँगता हूँ....

मधुगान माँगता हूँ.  मधुगान माँगता हूँ....

स्वर में भरी सजलता ,बढ़ती हृदय विकलता
दृग के उभय तटों में तम सिन्धु है लहरता
प्राची की मैं प्रभा से  जलयान  माँगता  हूँ
मधुगान माँगता हूँ....

दो पात हिल न पाये ,दो पुष्प खिल न पाये
उस एक ही मलय से दो प्राण मिल न पाये
फूलों का खिलखिलाता अरमान माँगता हूँ
मधुगान माँगता हूँ....

इक आस जल रही है ,इक प्यास पल रही है
लेकर व्यथा का बन्धन यह साँस चल रही है
अभिशाप पा चुका हूँ , वरदान माँगता हूँ
मधुगान माँगता हूँ....

उठते हैं वेदना घन ,ढलते हैं अश्रु के कण
मिटते हैं आज मेरे उस पंथ के मधुर क्षण
मिटते हुए क्षणों की पहचान  माँगता  हूँ
मधुगान माँगता हूँ....

अब पाँव थक चुके हैं , दूरस्थ गाँव  मेरा
होगा किधर कहाँ पर अनजान ठाँव मेरा
मुश्किल हुई हैं राहें ,आसान माँगता हूँ
मधुगान माँगता हूँ....

कोलाहलों का अब मैं अवसान माँगता हूँ
जन संकुलों से हट कर ,सुनसान माँगता हूँ
मधु कण्ठ कोकिला से स्वर दान माँगता हूँ
मधुगान माँगता हूँ....मधुगान माँगता हूँ....

(स्व0) रमेश चन्द्र पाठक
[काव्य संग्रह -"प्रयास" से [अप्रकाशित]


प्रस्तुत कर्ता
-आनन्द.पाठक-
09413395592

samiksha

पुस्तक सलिला-
ज़ख्म - स्त्री विमर्श की लघुकथाएँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
[पुस्तक विवरण- ज़ख्म, लघुकथा संग्रह, विद्या लाल, वर्ष २०१६, पृष्ठ ८८, मूल्य ७०/-, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, रचनाकार संपर्क द्वारा श्री मिथलेश कुमार, अशोक नगर मार्ग १ ऍफ़, अशोक नगर, पटना २०, चलभाष ०९१६२६१९६३६]
*
वैदिक काल से भारतीय संस्कृति सनातनता की पोषक रही है। साहित्य सनातन मूल्यों का सृजक और रक्षक की भूमिका में सत्य-शिव-सुन्दर को लक्षित कर रचा जाता रहा। विधा का 'साहित्य' नामकरण ही 'हित सहित' का पर्याय है. हित किसी एक का नहीं, समष्टि का। 'सत्यं ज्ञानं अनंतं  ब्रम्ह' सत्य और ज्ञान ब्रम्ह की तरह अनन्त हैं। स्वाभाविक है कि उनके विस्तार को देखने के अनेक कोण हों। दृष्टि जिस कोण पर होगी उससे होनेवाली अनुभूति को ही सत्य मान लेगी, साथ ही भिन्न कोण से हो रही अनुभूति को असत्य कहने का भ्रम पाल लेगी। इससे बचने के लिये समग्र को समझने की चेष्टा मनीषियों ने की है। बोध कथाओं, दृष्टांत कथाओं, उपदेश कथाओं, जातक कथाओं, पंचतंत्र, बेताल कथाओं, किस्सा चहार दरवेश, किस्सा हातिम ताई, अलीबाबा आदि में छोटी-बड़ी कहानियों के माध्यम से शुभ-अशुभ, भले-बुरे में अंतर कर सकनेवाले जीवन मूल्यों के विकास, बुरे से लड़ने का मनोबल देने वाली घटनाओं का शब्दांकन, स्वस्थ्य मनोरंजन देने का प्रयास हुआ। साहित्य का लक्ष्य क्रमश: सकल सृष्टि, समस्त जीव, मानव संस्कृति तथा उसकी प्रतिनिधि इकाई के रूप में व्यक्ति का कल्याण रहा। 

पराभव काल में भारतीय साहित्य परंपरा पर विदेशी हमलावरों द्वारा कुठाराघात तथा पराधीनता के दौर ने सामाजिक समरसता को नष्टप्राय कर दिया और तन अथवा मन से कमजोर वर्ग शोषण का शिकार हुआ यवनों द्वारा बड़ी संख्या में स्त्री-हरण के कारण नारियों को परदे में रखने, शिक्षा से वंचित रखने की विवशता हो गयी। अंग्रेजों ने अपनी भाषा और संस्कृति थोपने की प्रक्रिया में भारत के श्रेष्ठ को न केवल हीं कहा अपितु शिक्षा के माध्यम से यह विचार आम जन के मानस में रोप दिया। स्वतंत्रता के पश्चात अवसरवादी राजनिति का लक्ष्य सत्ता प्राप्ति रह गया। समाज को विभाजित कर शासन करने की प्रवृत्ति ने सवर्ण-दलित, अगड़े-पिछड़े, बुर्जुआ-सर्वहारा के परस्पर विरोधी आधारों पर राजनीति और साहित्य को धकेल दिया। आधुनिक हिंदी को आरम्भ से अंग्रेजी के वर्चस्व, स्थानीय भाषाओँ-बोलियों के द्वेष तथा अंग्रेजी व् अन्य भाषाओं से ग्रहीत मान्यताओं का बोझ धोना पड़ा। फलत: उसे अपनी पारम्परिक उदात्त मूल्यों की विरासत सहेजने में देरी हुई। 

विदेश मान्यताओं ने साहित्य का लक्ष्य सर्वकल्याण के स्थान पर वर्ग-हित निरुपित किया। इस कारण समाज में विघटन व टकराव बढ़ा साहित्यिक विधाओं ने दूरी काम करने के स्थान पर परस्पर दोषारोपण की पगडण्डी पकड़ ली। साम्यवादी विचारधारा के संगठित रचनाकारों और समीक्षकों ने साहित्य का लक्ष्य अभावों, विसंगतियों, शोषण और विडंबनाओं का छिद्रान्वेषण मात्र बताया समन्वय, समाधान तथा सहयोग भाव हीं साहित्य समाज के लिये हितकर न हो सका तो आम जन साहित्य से दूर हो गया। दिशाहीन नगरीकरण और औद्योगिकीकरण ने आर्थिक, धार्मिक, भाषिक और लैंगिक आधार पर विभाजन और विघटन को प्रश्रय दिया। इस पृष्ठभूमि में विसंगतियों के निराकरण के स्थान पर उन्हें वीभत्स्ता से चित्रित कर चर्चित होने ही चाह ने साहित्य से 'हित' को विलोपित कर दिया। स्त्री प्रताड़ना का संपूर्ण दोष पुरुष को देने की मनोवृत्ति साहित्य ही नहीं, राजनीती आकर समाज में भी यहाँ तक बढ़ी कि सर्वोच्च न्यायलय को हबी अनेक प्रकरणों में कहना पड़ा कि निर्दोष पुरुष की रक्षा के लिये भी कानून हो। 

विवेच्य कृति ज़ख्म का लेखन इसी पृष्ठ भूमि में हुआ है। अधिकांश लघुकथाएँ पुरुष को स्त्री की दुर्दशा का दोषी मानकर रची गयी हैं। लेखन में विसंगतियों, विडंबनाओं, शोषण, अत्याचार को अतिरेकी उभार देने से पीड़ित के प्रति सहानुभूति तो उपज सकती है, पर पीड़ित का मनोबल नहीं बढ़ सकता। 'कथ' धातु से व्युत्पन्न कथा 'वह जो कही जाए' अर्थात जिसमें कही जा सकनेवाली घटना (घटनाक्रम नहीं), उसका प्रभाव (दुष्प्रभाव हो तो उससे हुई पीड़ा अथवा निदान, उपदेश नहीं), आकारगत लघुता (अनावश्यक विस्तार न हो), शीर्षक को केंद्र में रखकर कथा का बुनाव तथा प्रभावपूर्ण समापन के निकष पर लघुकथाओं को परखा जाता है। विद्यालाल जी का प्रथम लघुकथा संग्रह  'जूठन और अन्य लघुकथाएँ' वर्ष २०१३ में आ चुका है। अत: उनसे श्रेष्ठ लघुकथाओं की अपेक्षा होना स्वाभाविक है

ज़ख्म की ६४ लघुकथाएँ एक ही विषय नारी-विमर्श पर केंद्रित हैं विषयगत विविधता न होने से एकरसता की प्रतीति स्वाभाविक है। कृति समर्पण में निर्भय स्त्री तथा निस्संकोच पुरुष से संपन्न भावी समाज की कामना व्यक्त की गयी है किन्तु कृति पुरुष को कटघरे में रखकर, पुरुष के दर्द की पूरी तरह अनदेखी करती है। बेमेल विवाह, अवैध संबंध, वर्ण-वैषम्य, जातिगत-लिंगगत, भेदभाव, स्त्री के प्रति स्त्री की संवेदनहीनता, बेटी-बहू में भेद, मिथ्याभिमान, यौन-अपराध, दोहरे जीवन मूल्य, लड़कियों और बहन के प्रति भिन्न दृष्टि, आरक्षण का गलत लाभ, बच्चों से दुष्कर्म, विजातीय विवाह,  विधवा को सामान्य स्त्री की तरह जीने के अधिकार, दहेज, पुरुष के दंभ, असंख्य मनोकामनाएँ, धार्मिक पाखण्ड, अन्धविश्वास, स्त्री जागरूकता, समानाधिकार, स्त्री-पुरुष के दैहिक संबंधों पर भिन्न सोच, मध्य पान, भाग्यवाद, कन्या-शिक्षा, पवित्रता की मिथ्या धारणा, पुनर्विवाह, मतदान में गड़बड़ी, महिला स्वावलम्बन, पुत्र जन्म की कामना, पुरुष वैश्या, परित्यक्ता समस्या, स्त्री स्वावलम्बन, सिंदूर-मंगलसूत्र की व्यर्थता आदि विषयों पर संग्रह की लघुकथाएं केंद्रित हैं। 

विद्या जी की अधिकांश लघुकथाओं में संवाद शैली का सहारा लिया गया है जबकि समीक्षकों का एक वर्ग लघुकथा में संवाद का निषेध करता है। मेरी अपनी राय में संवाद घटना को स्पष्ट और प्रामाणिक बनने में सहायक हो तो उन्हें उपयोग किया जाना चाहिए। कई लघुकथाओं में संवाद के पश्चात एक पक्ष को निरुत्तरित बताया गया है, इससे दुहराव तथा सहमति का आभाव इंगित होता है। संवाद या तर्क-वितरक के पश्चात सहमति भी हो सकती है। रोजमर्रा के जीवन से जुडी लघुकथाओं के विषय सटीक हैं। भाषिक कसाव और काम शब्दों में अधिक कहने की कल अभी और अभ्यास चाहती है। कहीं-कहीं लघुकथा में कहानी की शैली का स्पर्श है। लघुकथा में चरित्र चित्रण से बचा जाना चाहिए। घटना ही पात्रों के चरित को इंगित करे, लघुकथाकार अलग से न बताये तो अधिक प्रभावी होता है  ज़ख्म की लघुकथाएँ सामान्य पाठक को चिंतन सामग्री देती हैं। नयी पीढ़ी की सोच में लोच को भी यदा-कदा सामने लाया गया हैसंग्रह का मुद्रण सुरुचिपूर्ण तथा पाठ्य त्रुटि-रहित है। 

*****
-समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjivgmail.com
  

शुक्रवार, 25 मार्च 2016

chhapay chhand

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रसानंद दे छंद नर्मदा २२ 
 
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​ 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दोहा, 
​सोरठा, रोला,  ​
आल्हा, सार
​,​
 ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई
​, 
हरिगीतिका,  
उल्लाला
​,
गीतिका,
घनाक्षरी,
 
बरवै,  
त्रिभंगी तथा सरसी  छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए
​ षट्पदिक छप्पय छन्द  
से.

रोला-उल्लाला मिले, बनता छप्पय छंद ​

*
छप्पय षट्पदिक (६ पंक्तियों का), संयुक्त (दो छन्दों के मेल से निर्मित), मात्रिक (मात्रा गणना के आधार पर रचित),  विषम (विशन चरण ११ मात्रा, सम चरण१३ मात्रा ) छन्द हैं इसमें पहली चार पंक्तियाँ चौबीस मात्रिक रोला छंद (११ + १३ =२४ मात्राओं) की तथा बाद में दो पंक्तियाँ उल्लाला छंद (१३+ १३ = २६ मात्राओं या १४ + १४ = २८मात्राओं) की होती हैं उल्लाला में सामान्यत:: २६ तथा अपवाद स्वरूप २८ मात्राएँ होती हैं छप्पय १४८ या १५२ मात्राओं का छंद है  संत नाभादास सिद्धहस्त छप्पयकार हुए हैं  'प्राकृतपैंगलम्'[1] में इसका लक्षण और इसके भेद दिये गये हैं। 
छप्पय के भेद- छंद प्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद भानु के अनुसार छप्पय के ७१ प्रकार हैं। छप्पय अपभ्रंश और हिन्दी में समान रूप से प्रिय रहा है।  चन्द[2], तुलसी[3], केशव[4], नाभादास [5], भूषण [6], मतिराम [7], सूदन [8], पद्माकर [9] तथा जोधराज हम्मीर रासो कुशल छप्पयकार हुए हैं। इस छन्द का प्रयोग मुख्यत:वीर रस में चन्द से लेकर पद्माकर तक ने किया है। इस छन्द के प्रारम्भ में प्रयुक्त रोला में 'गीता' का चढ़ाव है और अन्त में उल्लाला में उतार है। इसी कारण युद्ध आदि के वर्णन में भावों के उतार-चढ़ाव का इसमें अच्छा वर्णन किया जाता है। नाभादास, तुलसीदास तथा हरिश्चन्द्र ने भक्ति-भावना के लिये छप्पय छन्द का प्रयोग किया है। 

उदाहरण - "डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्बे समुद्रसर। ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर। दिग्गयन्द लरखरत, परत दसकण्ठ मुक्खभर। सुर बिमान हिम भानु, भानु संघटित परस्पर। चौंकि बिरंचि शंकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यौ। ब्रह्मण्ड खण्ड कियो चण्ड धुनि, जबहिं राम शिव धनु दल्यौ॥"[10] पन्ने की प्रगति अवस्था आधार प्रारम्भिक माध्यमिक पूर्णता शोध टीका टिप्पणी और संदर्भ ऊपर जायें ↑ प्राकृतपैंगलम् - 1|105 ऊपर जायें ↑ पृथ्वीराजरासो ऊपर जायें ↑ कवितावली ऊपर जायें ↑ रामचन्द्रिका ऊपर जायें ↑ भक्तमाल ऊपर जायें ↑ शिवराजभूषण ऊपर जायें ↑ ललितललाम ऊपर जायें ↑ सुजानचरित ऊपर जायें ↑ प्रतापसिंह विरुदावली ऊपर जायें ↑ कवितावली : बाल. 11 धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 1 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 250।
लक्षण छन्द-
रोला के पद चार, मत्त चौबीस धारिये।
उल्लाला पद दोय, अंत माहीं सुधारिये
कहूँ अट्ठाइस होंय, मत्त छब्बिस कहुँ देखौ
छप्पय के सब भेद मीत, इकहत्तर लेखौ
लघु-गुरु के क्रम तें भये,बानी कवि मंगल करन
प्रगट कवित की रीती भल, 'भानु' भये पिंगल सरन   -जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'    
 *
उल्लाला से योग, तभी छप्पय हो रोला
छाया जग में प्यार, समर्पित सुर में बोला।।  .
मुखरित हो साहित्य, घुमड़ती छंद घटायें।
बरसे रस की धार, सृजन की चलें हवायें।।
है चार चरण का अर्धसम, पन्द्रह तेरह प्रति चरण। 
सुन्दर उल्लाला सुशोभित, भाये रोला से वरण।।        -अम्बरीश श्रीवास्तव
*
उदाहरण- 
०१. कौन करै बस वस्तु कौन यहि लोक बड़ो अति। 
     को साहस को सिन्धु कौन रज लाज धरे मति।।
     को चकवा को सुखद बसै को सकल सुमन महि।
     अष्ट सिद्धि नव निद्धि देत माँगे को सो कहि।।
     जग बूझत उत्तर देत इमि, कवि भूषण कवि कुल सचिव।
     दच्छिन नरेस सरजा सुभट साहिनंद मकरंद सिव।।          -महाकवि भूषण, शिवा बावनी
(सिन्धु = समुद्र; ocean or sea । रज = मिट्टी; mud, earth । सुमन = फूल; flower । इमि = इस प्रकार; this way । सचिव = मन्त्री; minister, secretary । सुभट = बहुत बड़ा योद्धा या वीर; great warrior.)

भावार्थ- संसार जानना चाहता है, कि वह कौन व्यक्ति है जो किसी वस्तु को अपने वश में कर सकता है, और वह कौन है जो इस पृथ्वी-लोक में सबसे महान है? साहस का समुद्र कौन है और वह कौन है जो अपनी जन्मभूमि की माटी की लाज की रक्षा करने का विचार सदैव अपने मन में रखेता है? चक्रवाक पक्षी को सुख प्रदान करने वाला कौन है? धरती के समस्त सात्विक-मनों में कौन बसा हुआ है? मांगते ही जो आठों प्रकार की सिद्धियों  और नवों प्रकार की निधियों से परिपूर्ण बना देने का सामर्थ्य रखता है, वह कौन है? इन सभी प्रश्नों को जानने की उत्कट आकांक्षा संसार के मन में उत्पन्न हो गयी है। इसलिये कवियों के कुल के सचिव भूषण कवि, सभी प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार देते है − वे है दक्षिण के राजा, मनुष्यों में सर्वोत्कृष्ट एवं साहजी के कुल में जो उसी तरह उत्पन्न हुए हैं, जैसे फूलों में सुगंध फैलाने वाला पराग उत्पन्न होता है, अर्थात शिवाजी महाराज। शिवाजी के दादा, मालोजी को मालमकरन्द भी कहा जाता था।                                                Who has the power to conquer all; who is the greatest of them all? Who is the ocean of courage; who is consumed by the thought of protecting the motherland? Who offers bliss to the Chakrawaak; who resides in every flower-like innocent souls? Who, in this world grants Ashtasiddhi and Navnidhi? The world seeks answers, and I, the minister of the poets’ clan, answer thus, He is the ruler of the Deccan, the great warrior, son of Shahaji, grandson of Maloji, i.e. Shivaji.   

संकेतार्थ- १. शिवाजी का शौर्य सूर्य समान दमकता है चकवा नर-मादा सूर्य-प्रकाश में ही मिलन करते है। शिवाजी का शौर्य-सूर्य रात-दिन चमकता रहता है, अत: चकवा पक्षी को अब रात होने का डर  नहीं है  अतः वह सुख के सागर में डूबा हुआ है।                                                 २. अष्टसिद्धियाँ : अणिमा- अपने को सूक्ष्म बना लेने की क्षमता,  महिमा: अपने को बड़ा बना लेने की क्षमता, गरिमा: अपने को भारी बना लेने की क्षमता, लघिमा: अपने को हल्का बना लेने की क्षमता, प्राप्ति: कुछ भी निर्माण कर लेने की क्षमता, प्रकाम्य: कोई भी रूप धारण कर लेने की क्षमता, ईशित्व: हर सत्ता को जान लेना और उस पर नियंत्रण करना, वैशित्व: जीवन और मृत्यु पर नियंत्रण पा लेने की क्षमता     ३. नवनिधियाँ: महापद्म, पद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और खर्ब।

काव्य-सुषमा और वैशिष्ट्य-                                                                                                                                                                        'साहस को सिंधु' तथा 'मकरंद सिव' रूपक अलंकार है। शिवाजी को साहस का समुद्र तथा  शिवाजी महाराज मकरंद कहा गया है उपमेय, (जिसका वर्णन किया जा रहा हो,  शिवाजी), को उपमान (जिससे तुलना की जाए समुद्र, मकरंद) बना दिया जाये तो रूपक अलंकार होता है।   “सुमन”- श्लेष अलंकार है।  एक बार प्रयुक्त किसी शब्द से दो अर्थ निकलें तो श्लेष अलंकार होता है। यहाँ सुमन = पुष्प तथा अच्छा मन। “सरजा सुभट साहिनंद”– अनुप्रास अलंकार है। एक वर्ण की आवृत्ति एकाधिक बार हो तो अनुप्रास अलंकार होता है। यहाँ ‘स’ वर्ण की आवृत्ति तीन बार हुई है। “अष्ट सिद्धि नव निद्धि देत माँगे को सो कहि?” अतिशयोक्ति अलंकार है। वास्तविकता से बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर कहने पर अतिशयोक्ति अलंकार होता है। यह राज्याश्रित कवियों की परंपरा रही है। प्रश्नोत्तर  या पहेली-शैली  का प्रयोग किया गया है।  ०२. बूढ़े या कि ज़वान, सभी के मन को भाये                                                                                                                   गीत-ग़ज़ल के रंग, अलग हट कर दिखलाये                                                                                                             सात समंदर पार, अमन के दीप जलाये                                                                                                                  जग जीता, जगजीत, ग़ज़ल सम्राट कहाये                                                                                                              तुमने तो सहसा कहा था, मुझको अब तक याद है                                                                                                    गीत-ग़ज़ल से ही जगत ये, शाद और आबाद है      -नवीन चतुर्वेदी, (जगजीत सिंह ग़ज़ल गायक के प्रति) 

०३. लेकर पूजन-थाल प्रात ही बहिना आई
      उपजे नेह प्रभाव, बहुत हर्षित हो भाई
      पूजे वह सब देव, तिलक माथे पर सोहे
      बँधे दायें हाथ, शुभद राखी मन मोहे
      हों धागे कच्चे ही भले, बंधन दिल के शेष हैं
      पुनि सौम्य उतारे आरती, राखी पर्व विशेष है।   -अम्बरीश श्रीवास्तव (राखी पर)
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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com 

samiksha / paryatan

पुस्तक सलिला-
यात्रा क्रम तृतीय भाग  - पर्यटन से बढ़ाये अनुराग
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- यात्रा क्रम तृतीय भाग, संपत देवी मुरारका, प्रथम

संस्करण नवंबर २०१४, पृष्ठ १८०+३०,  मूल्य ३००/-, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, प्रकाशन तारा बुक एजेंसी, सिद्ध गिरि बाग़, वाराणसी, लेखिका संपर्क- ४-२-१०७ / ११० प्रथम तल, श्रीकृष्ण मुरारका पैलेस, बड़ी चोवडी, सुल्तान बाजार, हैदराबाद, ९४४१५११२३८।]
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हिंदी साहित्य में यात्रा वृत्तांत अथवा पर्यटन साहित्य को स्वतंत्र विधा के रूप में मान्य किये जाने के बाद भी उतना महत्व नहीं मिला जितना मिलना चाहिए। इसके कारण हैं- १. रचनाकारों का गद्य-पद्य की अन्य विधाओं की तुलना में इस विधा को कम अपनाना, २. इस विधा में रचनाकर्म के लिये सामग्री जुटाना कठिन, व्यय साध्य तथा समय साध्य होना, ३. यात्रा वृत्त लिखने के लिये भाषा पर अधिकार, अभिव्यक्ति क्षमता तथा समृद्ध शब्द भंडार होना, ४. यात्रा के समय पर्यटन स्थल की विशेषता, उसके इतिहास, महत्त्व, समीपस्थ सभ्यता-संस्कृति आदि के प्रति, रूचि, समझ, सहिष्णुता होना, ५. विषय वस्तु को विस्तार और संक्षेप में कह सकने की क्षमता और समझ, ६. वर्ण्य विषय का वर्णन करते समय सरसता और रूचि बनाए रखने की सामर्थ्य जिसे कहन कह सकते हैं, ७. प्राय: लम्बे वर्णों के कारण अधिक पृष्ठ संख्या और अधिक प्रकाशन व्यय को वहन कर सकने की क्षमता, ८. स्थान-स्थान पर जाने का चाव, ९. पर्यटन साहित्य सम्बन्धी मानकों का अभाव, १०. पर्यटन साहित्य पर परिचर्चा, कार्यशाला, संगोष्ठी, स्वतंत्र पर्यटन पत्रिका, पर्यटन साहित्य रच रहे रचनाकारों का कोई मंच/ संस्था  आदि का न होना तथा ११. पर्यटन साहित्य को पुरस्कृत किये जाने, पर्यटन साहित्य पर शोध कार्य आदि का न होना।   

विवेच्य कृति यात्रा क्रम तृतीय भाग की लेखिका श्रीमती संपत देवी मुरारका साधुवाद की पात्र हैं कि उक्त वर्णित कारणों के बावजूद वे न केवल पर्यटन करते रहीं अपितु सजगता के साथ पर्यटित स्थानों का विवरण, जानकारी, चित्र आदि संकलित कर अपनी सुधियों को कलमबद्ध कर प्रकाशन भी करा सकीं। किसी संभ्रांत महिला के लिये पर्यटन हेतु बार-बार समय निकाल सकना,  स्वजनों-परिजनों से सहमति प्राप्त कर सकना, आर्थिक संसाधन जुटाना, लक्ष्य स्थान की यात्रा, आवागमन-यातायात-आरक्षण-प्रवास की समस्याओं से जूझना, समान रूचि के साथी जुटाना, पर्यटन करते समय लेखन हेतु आवश्यक जानकारी जुटना, सार-सार लिखते चलना, लौटकर विधिवत पुस्तक रूप देना और प्रकाशन कराना हर चरण अपने आपमें श्रम, लगन, समय, प्रतिभा, रूचि और अर्थ की माँग करता है। संपत जी इस दुरूह सारस्वत अनुष्ठान को असाधारण जीवट,  सम्पूर्ण समर्पण, एकाग्र चित्त तथा लगन से एक नहीं तीन-तीन बार संपन्न कर चुकी हैं। क्रिकेट खेलने वाले लाखों खिलाडियों में से कुछ सहस्त्र ही प्रशंसनीय गेंदबाजी कर पाते हैं, उनमें से कुछ सौ अपने उल्लेखनीय प्रदर्शन के लिये याद रखे जाते हैं और अंत में तीन गेंदों पर तीन विकेट लेकर मैच जितने वाले अँगुलियों पर गिने जाने योग्य होते हैं। संपत जी की पर्यटन-ग्रंथ त्रयी ने उन्हें इस दुर्लभ श्रेणी का पर्यटन साहित्यविद बन दिया है। उनकी उपलब्धि अपने मानक आप बनाती है।
दुर्योगवश मुझे यात्रा क्रम के प्रथम दो भाग पढ़ सकने का सुअवसर नहीं मिला सका, भाग तीन पढ़कर आनंदाभिभूत हूँ। ग्रंथारम्भ में लेखिका ने अपने पूज्य ससुर जी तथा सासू जी को ग्रंथार्पित कर भारतीय साहित्य परंपरा में अग्रपूजन के विधान के साथ पारिवारिक परंपरा व व्यक्तिगत श्रद्धा भाव को मूर्त किया है। बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय लखनऊ की कुल सचिव सुनीता चंद्रा जी, रंगकर्मी रामगोपाल सर्राफ वाराणसी, श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकारों ऋषभ देव शर्मा जी, डॉ. श्याम सिंह 'शशि' जी, बी. आर. धापसे जी औरंगाबाद, प्रो. शुभदा वांजपे जी हैदराबाद, शिशुपाल सिंह 'नारसरा' जी फतेहपुर सीकर, नथमल केडिया जी कोलकाता, सरिता डोकवाल जी, एन. एल. खण्डेलवाल जी, चंद्र मौलेश्वर प्रसाद जी सिकंदराबाद, शशिनारायण 'स्वाधीन', डॉ. अहिल्या मिश्र हैदराबाद, बिशनलाल संघी हैदराबाद, पुष्प वर्मा 'पुष्प' हैदराबाद, आदि की शुभाशंंषाएँ व सम्मतियाँ इस ग्रन्थ की शोभवृद्धि करने के साथ-साथ पूर्व २ भागों का परिचय भी दे रही हैं। 

पर्यटन ग्रन्थ माला की यह तीसरी कड़ी है। आंकिक उपमान की दृष्टि से अंक तीन त्रिदेव (ब्रम्हा-विष्णु-महेश), त्रिनेत्र (२ दैहिक, १ मानसिक), त्रिधारा (गंगा-यमुना-सरस्वती), त्रिलोक (स्वर्ग-भूलोक-पाताल), त्रिकाल (भूत-वर्तमान-भविष्य), त्रिगुण (सत्व, रज, तम), त्रिअग्नि (भूख, अपमान, अंत्येष्टि), त्रिकोण,  त्रिशूल (निर्धनता, विरह, बदनामी), त्रिराम (श्रीराम, परशुराम, बलराम), त्रिशक्ति (अभिधा, व्यंजना, लक्षणा), त्रि अवस्था (बचपन, यौवन, बुढ़ापा), त्रि तल (ऊपर मध्य, नीचे), त्रिदोष (एक, पित्त, वात), त्रि मणि (पारस, वैदूर्य, स्यमंतक) का प्रतीक है। 

विवेच्य कृति की अंतर्वस्तु ९ अध्यायों में विभक्त है। भारतीय वांग्मय में ९ एक गणितीय अंक मात्र नहीं है। ९ पूर्णता का प्रतीक है। नौ गृह, नौगिरहि बहुमूल्य नौगही (हार), नौधा (नवधा) भक्ति, नौमासा गर्भकाल, नौरतन (हीरा, मोती, माणिक्य, मूँगा, पुखराज, नीलम, लहसुनिया,) नौनगा, नौलखा, नौचंदी, नौनिहाल, नौ नन्द, नौ निधि, कोई भी उपमा दें, ये ९ अध्याय नासिक महाकुंभ की यात्रा, ओशो धारा में अवगाहन, कोलकाता की यात्रा, पूर्वोत्तर की यात्रा, यात्रा दिल्ली की, राजस्थान यात्रा भाग १-२ तथा स्वपरिचय  पाठक को घर बैठे-बैठे ही मानस-यात्राऐं संपन्न कराते हैं।  


३ और ९ (३ का ३ गुना) का अंकशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र तथा वस्तु शास्त्र  के अनुसार विलक्षण संबंध है।  पृष्ठ संख्या १८० = ९ + ३० = ३ योग २१० = ३ इस सम्बन्ध को अधिक प्रभावी बनाता है।  ग्रंथ में शुभ सम्मतियों की संख्या १५ = ६  (३ का दोगुना) है। संपत जी ने नासिक, शिर्डी, दौलतबाडी, कोलकाता,  दार्जिलिंग, गंगटोक, जलपाई गुड़ी, गुवाहाटी, कांजीरंगा, अग्निगढ़, तेजपुर, शिलॉन्ग, चेरापूंजी, दिल्ली, जयपुर, लक्ष्मणगढ़, सीकर, रामगढ, मंडावा, झुंझनू, चुरू, रतनगढ़, बीकानेर, जूनागढ़, रामदेवरा, लक्ष्मणगढ़, रणथंभोर, पुष्कर, मेड़ता, नागौर, मण्डोर, मेहरानगढ़, जैसलमेर, तनोट, पोखरण, बीकानेर आदि ३६ मुख्य स्थानों की यात्रा का जीवन वर्णन किया है। ३६ का योग ९ ही है। संपत जी की जन्म तिथि ३० = ३ है, माह ६ = तीन का दोगुना है। इस यात्रा में लगे दिवस, देव-दर्शन स्थल, प्रवास स्थल आदि में भी यह संयोग हो तो आश्चर्य नहीं।

ओशो धारा में अवगाहन इस कृति का सर्वाधिक सरस और रोचक अध्याय है। यह पर्यटन के स्थान पर ओशो प्रणीत ध्यान विधि में सहभागिता की अनुभूतियों से जुड़ा है। शेष अध्यायों में विविध स्थानों की प्राकृतिक सुषमा,  पौराणिक आख्यान, ऐतिहासिक स्थल, घटित घटनाओं की जानकारी, स्थान के महत्व, जन-जीवन की सामाजिक-सांस्कृतिक झलक आदि का संक्षिप्त वर्णन मन-रंजन के साथ ज्ञान वर्धन भी करता है। इन यात्राओं का उद्देश्य दिग्विजय पाना, नव स्थल का नवेशन करना, किसी पर्वत शिखर को जय करना, राहुल जी की तरह साहित्य संचयन, विद्यालंकार जी की तरह शवलिक के जंगलों की शिकार गाथाओं की खोज, अथवा नर्मदा परकम्मावासियों की तरह  नदी के उद्गम से समुद्र-मिलन तक परिक्रमा करना नहीं है। सम्पत जी ने सामान्य जन की तरह धार्मिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक महत्त्व क स्थलों तक जाकर उनके कल और आज को खँगालने के साथ-साथ कल की सम्भावना को यत्र-तत्र निरखा-परखा है।

राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से हर देशवासी को देश के विविध स्थानें की सभ्यता, संस्कृति, आचार-विचार, आहार-विहार, कला-कौशल आदि से परिचित होना ही चाहिए। यह कृति अपने पाठक को देश के बड़े भूभाग से परिचित कराती है। अधिकांश स्थानों पर लेखिका ने उस स्थान से जुडी पौराणिक-ऐतिहासिक जनश्रुतियों, कथाओं आदि का रोचक वर्णन किया है। इस प्रयत्न वृत्तांत श्रंखला के माध्यम से लेखिका ने अपन अनाम राहुल सांकृत्यायन, सेठ गोविंददास, देवेन्द्र सत्यार्थी, मोहन राकेश, अज्ञेय, रांगेय राघव, रामकृष्ण बेनीपुरी, निर्मल वर्मा, डॉ. नगेंद्र, सतीश कुमार आदि की पंक्ति में सम्मिलित करा लिया है।

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- समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com 
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aanuwanshik vivah

स्वास्थ्य और समाज-
मुस्लिम बहुल देश ताजिकिस्तान में आनुवंशिक विवाह प्रतिबंधित  

मुस्लिम समाज में आनुवंशिक विवाह (चचेरे, फुफेरे, ममेरे, मौसेरे भाई-बहनों में विवाह) की परंपरा चिर काल से है सनातन धर्मियों में एक परिवार, एक खानदान, एक वंश, एक कुल, एक गोत्र, एक गाँव, एक गुरुकुल के युवाओं में तथा अपने से उच्च वर्ण की कन्या से  विवाह विविध समय में वर्जित रहे हैं पिताक्षर प्रणाली के अनुसार पिता की ७ पीढ़ियों तथा मिताक्षर प्रणाली के अनुसार मत की ५ पीढ़ियों में विवाह वर्जित बताया गया है आदिवासी समाज में भी समगोत्रीय विवाह वर्जित रहे हैं। ईसाई भी आनुवांशिक विवाह उचित नहीं मानते। 


भारत में विविध कारणों से विवाह सम्बन्धी नियम भंग करने के अनेक अपवाद हैं किन्तु उनके परिणाम अधिकतर दुखद रहे हैं विवाह नियमों को लेकर समाजशास्त्र, विधिशास्त्र, नीतिशास्त्र तथा धर्मशास्त्र में चर्चा स्वाभाविक है विवाह में मन का मिलन हो न हो,  तन का मिलन तो होता ही है और उसका परिणाम संतान उत्पत्ति के रूप में सामने आता है। इसलिए आनुवंशिकी (जिनेटिक्स साइंस) के अंतर्गत विविध विवाह प्रणालियों एवं उनके परिणामों का अध्ययन किया जाता है 



   

ताज़िकिस्तान चीन, अफगानिस्तान, किर्गिस्तान और उज्बेकिस्तान से घिरा हुआ, मध्य एशिया का सबसे गरीब देश है आनुवंशिकी विवाह पर रोक लगाने के ताज़िकिस्तान के फैसले ने दुनिया को चौंकाया और मुस्लिम बहुल देशों व इस्लाम धर्मावलम्बियों के बीच बहस को तेज किया है१३जनवरी २०१६ को ताज़िकिस्तानी संसद ने देश में कॉन्सेंग्युनियस विवाह (आनुवंशिक या रक्त संबंधियों से विवाह) पर प्रतिबंध लगाकर दुनिया को चकित कर दिया। दुनिया के मुस्लिम बहुल देशों में कॉन्सेंग्युनियस विवाह मजहब तथा समाज से सामान्यत: स्वीकृत प्रथा हैताज़िकिस्तानी स्वास्थ्य विभाग ने माना है कि कॉन्सेंग्युनियस विवाह से पैदा होने वाले बच्चों में आनुवंशिक रोग होने की संभावनाएँ अधिक होती हैं एक अध्ययन के अनुसार २५ हजार से अधिक विकलांग बच्चों का पंजीकरण और उनका अध्ययन करने के बाद इनमें से ३५% आनुवंशिक विवाह से उत्पन्न पाये गये हैं

एशिया, उत्तरी अफ्रीका, स्विट्ज़रलैंड, मध्यपूर्व, और चीन, जापान और भारत के कई क्षेत्रों में कॉन्सेंग्युनियस सामान्यत: प्रचलित हैं कई देशों में आनुवंशिक विवाह आंशिक रूप से प्रतिबंधित है कुछ अमरीकी राज्यों में संतान उत्पत्ति में असमर्थ अथवा ६५ वर्ष से अधिक उम्र के पश्चात अनुवांशिक विवाह की अनुमति है ब्रिटेन में पाकिस्तानी मूल के ३% बच्चे जन्म लेते हैं किन्तु १३% आनुवंशिक रोग से पीड़ित हैं। अध्ययनों के अनुसार आनुवंशिक संतानों में आनुवंशिक रोगों की संभावनाएँ कई गुना अधिक होती हैं ब्रिटेन के ब्रैडफोर्ड में किये गये अध्ययन के अनुसार कुल जनसंख्या में से १७% पाकिस्तानी मुस्लिमों में से ७५% प्रतिशत अपने समुदाय में चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई/बहनों से विवाह करते हैंइनके बच्चों में से कई आनुवंशिक रोगों से ग्रस्त हैं
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दक्षिण भारत में आनुवंशिक विवाह प्रथा के कारण बच्चों में कई तरह के रोग हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत इस विषय पर शोधरत  आंध्र प्रदेश निवासी बिंदु शॉ के अनुसार भारत में ऐसे शोध नगण्य हैं। बिंदु ने आनुवंशिक विवाह करनेवाले २०० परिवारों का अध्ययन किया जिनमें से ९७ परिवारों के बच्चे आनुवंशिक रोग से पीड़ित थे चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई/बहनों से विवाह की तुलना में मामा से शादी होने पर बच्चों में इस तरह के विकार अधिक संभावित हैं।इस शोध के अनुसार अपने रक्तसंबंधियों से विवाह करने पर पति-पत्नी दोनों के कई जीन एक समान होते हैं माता-पिता के जीन में कोई विकार हो तो उनके बच्चे में पहुँची विकृत जीन की दो प्रतियाँ आनुवंशिक रोग का कारण बनती हैं समुदाय से बाहर शादी होने पर जीन की भिन्नता के कारण बच्चों में विकृत जीन पहुँचने की संभावना नगण्य होती है। बिंदु के निकट संबंधी ऐसे विवाहों के कारण आनुवंशिक रोगों का शिकार हुए जिससे उन्हें इस विषय पर शोध की प्रेरणा मिली। 

आनुवंशिक विवाह के कई दुष्परिणामों जानने के बाद भी इनके प्रचलन का कारण धार्मिक मान्यताओं से ज्यादा सामाजिक पहलू हैं संबंधियों से शादी होने पर संपत्ति का विभाजन न होना, लड़कियों की सुरक्षा तथा समान रीति-रिवाज़, खान-पान, जीवन शैली व त्यौहार आदि से ताल-मेल में सहजता भी इसके कारण हैं बच्चे बहुत छोटी उम्र से ही अपने चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई-बहनों के साथ मिलते-जुलते, खेलते-कूदते और साथ-साथ बड़े होते हैं उनकी आपसी समझ अच्छी होती है। आनुवंशिक विवाह वर्जित माननेवाले समुदायों में बच्चों में अनुराग भाव विकसित नहीं होता, राखी और भाई दूज जैसे पर्व सनातनधर्मियों में वंश से बाहर के युवाओं में विवाह संबंध अमान्य कर देते हैं। आनुवंशिक विवाह माननेवाले परिवारों के बच्चों में अन्य चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई-बहनों के प्रति लगाव पनपना स्वाभाविक है  
   
ताजिकिस्तान में लिए गए निर्णय के विरोधी आनुवंशिक विवाह के पक्षधर अनुवांशिक विवाहों से आनुवांशिक रोगों संबंधी तथ्य को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया मानते हुए और अधिक आंकड़े चाहते हैं।इनके अनुसार आनुवंशिक विवाह से होने वाले बच्चों के बीमार होने की उतनी ही संभावना ४० वर्ष से अधिक उम्र की महिला के माँ बनने पर उसके बच्चे के बीमार होने के समान होती हैं।इनकी आपत्ति है कि जब किसी ४० वर्ष से अधिक उम्र की महिला के माँ बनने पर रोक नहीं है तो फिर आनुवंशिक विवाह पर रोक क्यों हो? चिकित्सा विज्ञान के जानकार ताजिकिस्तान के इस फैसले का स्वागत कर रहे हैं