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मंगलवार, 22 नवंबर 2016

geet

एक रचना
अनाम
*
कहाँ छिपे तुम?
कहो अनाम!
*
जग कहता तुम कण-कण में हो
सच यह है तुम क्षण-क्षण में हो
हे अनिवासी!, घट-घटवासी!!
पर्वत में तुम, तृण-तृण में हो
सम्मुख आओ
कभी हमारे
बिगड़े काम
बनाओ अकाम!
*
इसमें, उसमें, तुमको देखा
छिपे कहाँ हो, मिले न लेखा
तनिक बताओ कहाँ बनाई
तुमने कौन लक्ष्मण रेखा?
बिन मजदूरी
श्रम करते क्यों?
किंचित कर लो
कभी विराम.
*
कब तुम माँगा करते वोट?
बदला करते कैसे नोट?
खूब चढ़ोत्री चढ़ा रहे वे
जिनके धंधे-मन में खोट
मुझको निज
एजेंट बना लो
अधिक न लूँगा
तुमसे दाम.
***

chhand

रसानंद दे छंद नर्मदा ​ ​५६ :

​दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​,गीतिका,​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन / सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रव​​ज्रा, इंद्रव​​ज्रा, सखी​, विधाता / शुद्धगा, वासव​, ​अचल धृति​, अचल​​, अनुगीत, अहीर, अरुण, अवतार, ​​उपमान / दृढ़पद, एकावली, अमृतध्वनि, नित, आर्द्रा, ककुभ/कुकभ, कज्जल, कमंद, कामरूप, कामिनी मोहन (मदनावतार), काव्य, वार्णिक कीर्ति, कुंडल छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए​ गीता छंद ​से
गीता छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद - मात्रा २६ मात्रा, यति १४ - १२, पदांत गुरु लघु.
लक्षण छंद:
चौदह भुवन विख्यात है, कुरु क्षेत्र गीता-ज्ञान
आदित्य बारह मास नित, निष्काम करे विहान
अर्जुन सदृश जो करेगा, हरि पर अटल विश्वास
गुरु-लघु न व्यापे अंत हो, हरि-हस्त का आभास
संकेत: आदित्य = बारह
उदाहरण:
१. जीवन भवन की नीव है , विश्वास- श्रम दीवार
दृढ़ छत लगन की डालिये , रख हौसलों का द्वार
ख्वाबों की रखें खिड़कियाँ , नव कोशिशों का फर्श
सहयोग की हो छपाई , चिर उमंगों का अर्श
२. अपने वतन में हो रहा , परदेश का आभास
अपनी विरासत खो रहे , किंचित नहीं अहसास
होटल अधिक क्यों भा रहा? , घर से हुई क्यों ऊब?
सोचिए! बदलाव करिए , सुहाये घर फिर खूब
३. है क्या नियति के गर्भ में , यह कौन सकता बोल?
काल पृष्ठों पर लिखा क्या , कब कौन सकता तौल?
भाग्य में किसके बदा क्या , पढ़ कौन पाया खोल?
कर नियति की अवमानना , चुप झेल अब भूडोल।
४. है क्षितिज के उस ओर भी , सम्भावना-विस्तार
है ह्रदय के इस ओर भी , मृदु प्यार लिये बहार
है मलयजी मलय में भी , बारूद की दुर्गंध
है प्रलय की पदचाप सी , उठ रोक- बाँट सुगंध
*********

geet

एक गीत:
मत ठुकराओ
संजीव 'सलिल'
*
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेवा-मिष्ठानों ने तुमको
जब देखो तब ललचाया है.
सुख-सुविधाओं का हर सौदा-
मन को हरदम ही भाया है.
ऐश, खुशी, आराम मिले तो
तन नाकारा हो मरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेंहनत-फाके जिसके साथी,
उसके सर पर कफन लाल है.
कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-
श्रम आयुध है, लगन ढाल है.
स्वेद-नर्मदा में अवगाहन
जो करता है वह तरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
खाद उगाती है हरियाली.
फसलें देती माटी काली.
स्याह निशासे, तप्त दिवससे-
ऊषा-संध्या पातीं लाली.
दिनकर हो या हो रजनीचर
रश्मि-पुंज वह जो झरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
**********************

geet

एक गीत:
मत ठुकराओ
संजीव 'सलिल'
*
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेवा-मिष्ठानों ने तुमको
जब देखो तब ललचाया है.
सुख-सुविधाओं का हर सौदा-
मन को हरदम ही भाया है.
ऐश, खुशी, आराम मिले तो
तन नाकारा हो मरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेंहनत-फाके जिसके साथी,
उसके सर पर कफन लाल है.
कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-
श्रम आयुध है, लगन ढाल है.
स्वेद-नर्मदा में अवगाहन
जो करता है वह तरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
खाद उगाती है हरियाली.
फसलें देती माटी काली.
स्याह निशासे, तप्त दिवससे-
ऊषा-संध्या पातीं लाली.
दिनकर हो या हो रजनीचर
रश्मि-पुंज वह जो झरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
***********************

navgeet

नवगीत:
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
बीड़ी-गुटखा बहुत जरूरी
साग न खा सकता मजबूरी
पौआ पी सकता हूँ, लेकिन
दूध नहीं स्वीकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
कौन पकाये घर में खाना
पिज़्ज़ा-चाट-पकौड़े खाना
चटक-मटक बाजार चलूँ
पढ़ी-लिखी मैं नार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
रहें झींकते बुड्ढा-बुढ़िया
यही मुसीबत की हैं पुड़िया
कहते सादा खाना खाओ
रोके आ सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
हुआ कुपोषण दोष न मेरा
खुद कर दूँ चहुँ और अँधेरा
करे उजाला घर में आकर
दखल न दे सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
***

navgeet

नवगीत:
रस्म की दीवार
करती कैद लेकिन
आस खिड़की 
रूह कर आज़ाद देती
सोच का दरिया
भरोसे का किनारा
कोशिशी सूरज
न हिम्मत कभी हारा
उमीदें सूखी नदी में
नाव खेकर
हौसलों को हँस
नयी पतवार देती
हाथ पर मत हाथ
रखकर बैठना रे!
रात गहरी हो तो
सूरज लेखना रे!
कालिमा को लालिमा
करती विदा फिर
आस्मां को
परिंदा उपहार देती
*

navgeet

नवगीत:
अहर्निश चुप
लहर सा बहता रहे
आदमी क्यों रोकता है धार को?
क्यों न पाता छोड़ वह पतवार को
पला सलिला के किनारे, क्यों रुके?
कूद छप से गव्हर नापे क्यों झुके?
सुबह उगने साँझ को
ढलता रहे
हरीतिमा की जयकथा
कहता रहे
दे सके औरों को कुछ ले कुछ नहीं
सिखाती है यही भू माता मही
कलुष पंकिल से उगाना है कमल
धार तब ही बह सकेगी हो विमल
मलिन वर्षा जल
विकारों सा बहे
शांत हों, मन में न
दावानल दहे
ऊर्जा है हर लहर में कर ग्रहण
लग न लेकिन तू लहर में बन ग्रहण
विहंगम रख दृष्टि, लघुता छोड़ दे
स्वार्थ साधन की न नाहक होड़ ले
कहानी कुदरत की सुन,
अपनी कहे
स्वप्न बनकर नयन में
पलता रहे
***
जन्म दिन पर अनंत शुभ कामनाएँ 
आदरणीया लावण्य शर्मा शाह को 
*
उमर बढ़े बढ़ते रहे ओज, रूप, लावण्य 
हर दिन दिनकर दे नए सपने चिर तारुण्य 
सपने चिर तारुण्य विरासत चिरजीवी हो
पा नरेंद्र-आशीष अमर मन मसिजीवी हो
नमन 'सलिल' का स्वीकारें पा करती-यश अमर
चिरतरुणी हों आप असर दिखाए ना उमर
***

shubhkamna

जन्म दिन पर अनंत शुभ कामनाएं 
अप्रतिम तेवरीकार अभियंता दर्शन कुलश्रेष्ठ 'बेजार' को 
*
दर्शन हों बेज़ार के, कब मन है बेजार 
दो हजार के नोट पर, छापे यदि सरकार 
छापे यदि सरकार, देखिएगा तब तेवर
कवि धारेगे नोट मानकर स्वर्णिम जेवर
सुने तेवरी जो उसको ही नोट मिलेगा
और कहे जो वह कतार से 'सलिल' बचेगा
***

geet

गीत:

पहले जीभर.....

संजीव 'सलिल' 
*
पहले जीभर लूटा उसने,
फिर थोड़ा सा दान कर दिया.
जीवन भर अपमान किया पर
मरने पर सम्मान कर दिया.....
*
भूखे को संयम गाली है,
नंगे को ज्यों दीवाली है.
रानीजी ने फूँक झोपड़ी-
होली पर भूनी बाली है..
तोंदों ने कब क़र्ज़ चुकाया?
भूखों को नीलाम कर दिया??
*
कौन किसी का यहाँ सगा है?
नित नातों ने सदा ठगा है.
वादों की हो रही तिजारत-
हर रिश्ता निज स्वार्थ पगा है..
जिसने यह कटु सच बिसराया
उसका काम तमाम कर दिया...
*
जो जब सत्तासीन हुआ तब
'सलिल' स्वार्थ में लीन हुआ है.
धनी अधिक धन जोड़ रहा है-
निर्धन ज्यादा दीन हुआ है..
लोकतंत्र में लोभतंत्र ने
खोटा सिक्का खरा कर दिया...
**********

geet

एक गीत:                                                                                                        
मत ठुकराओ 

संजीव 'सलिल' 
*
मत ठुकराओ तुम कूड़े को 
कूड़ा खाद बना करता है..... 

मेवा-मिष्ठानों ने तुमको
जब देखो तब ललचाया है.
सुख-सुविधाओं का हर सौदा-
मन को हरदम ही भाया है.

ऐश, खुशी, आराम मिले तो
तन नाकारा हो मरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेंहनत-फाके जिसके साथी,
उसके सर पर कफन लाल है.
कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-
श्रम आयुध है, लगन ढाल है.

स्वेद-नर्मदा में अवगाहन
जो करता है वह तरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
खाद उगाती है हरियाली.
फसलें देती माटी काली.
स्याह निशासे, तप्त दिवससे-
ऊषा-संध्या पातीं लाली.

दिनकर हो या हो रजनीचर
रश्मि-पुंज वह जो झरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
**************************

सोमवार, 21 नवंबर 2016

bhajan

एक रचना
*
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है
चिड़िया चहक-चहककर, नव आस बो रही है
*
तेरा नहीं ठिकाना, मंजिल है दूर तेरी
निष्काम काम कर ले, पल भर भी हो न देरी
कब लौटती है वापिस, जो सांस खो रही है
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है
*
दिनकर करे मजूरी, बिन दाम रोज आकर
नागा कभी न करता, पर है नहीं वो चाकर
सलिला बिना रुके ही हर घाट धो रही है
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है
*

कुण्डलिनी

कुन्डलिनी
*
मन उन्मन हो जब सखे!, गढ़ें चुटकुला एक
खुद ही खुद को सुनाकर, हँसें मशविरा नेक
हँसें मशविरा नेक, निकट दर्पण के जाएँ
अपनी सूरत निरख, दिखाकर जीभ चिढ़ाएँ
तरह-तरह मुँह बना, तरेंरे नैना खंजन
गढ़ें चुटकुला एक, सखे! जब मन हो उन्मन
***

chhand-bahar

कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ४
*
(छंद- अठारह मात्रिक , ग्यारह अक्षरी छंद, सूत्र यययलग )

[बहर- फऊलुं फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२२ १२, यगण यगण यगण लघु गुरु ]
*
मुक्तक
निगाहें मिलाओ, चुराओ नहीं
जरा मुस्कुराओ, सताओ नहीं
ज़रा पास आओ, न जाओ कहीं
तुम्हें सौं हमारी भुलाओ नहीं
*

रविवार, 20 नवंबर 2016

doha-muktak

दोहा मुक्तक
*
सब कुछ दिखता है जहाँ, वहाँ कहाँ सौन्दर्य?,
थोडा तो हो आवरण, थोड़ी तो हो ओट
श्वेत-श्याम का समुच्चय ही जग का आधार,
सब कुछ काला देखता, जिसकी पिटती गोट
जोड़-जोड़ बरसों रहे, हलाकान जो लोग,
देख रहे रद्दी हुए पल में सारे नोट
धौंस न माने किसी की, करे लगे जो ठीक
बेच-खरीद न पा रहे, नहीं पा रहे पोट
***

शनिवार, 19 नवंबर 2016

काव्य वार्ता
नाम से, काम से प्यार कीजै सदा 
प्यार बिन जिंदगी-बंदगी कब हुई?        -संजीव्  
*
बन्दगी कब हुई प्यार बिन जिंदगी 
दिल्लगी बन गई आज दिल की लगी 
रंग तितली के जब रँग गयीं बेटियाँ 
जा छुपी शर्म से आड़ में सादगी            -मिथलेश 
*
छोड़ घर मंडियों में गयी सादगी 
भेड़िये मिल गए तो सिसकने लगी 
याद कर शक्ति निज जब लगी जूझने 
भीड़ तब दुम दबाकर खिसकने लगी    -संजीव्

एक दोहा 
शब्दसुमन को गूंथिए, ले भावों की डोर 
गीत माल तब ही बने, जब जुड़ जाएँ छोर
*
एक कुण्डलिनी 
मन मनमानी करे यदि, कस संकल्प नकेल 
मन को वश में कीजिए, खेल-खिलाएँ खेल 
खेल-खिलाएँ खेल, मेल बेमेल न करिए 
व्यर्थ न भरिए तेल, वर्तिका पहले धरिए 
तभी जलेगा दीप, भरेगा तम भी पानी
कसी नकेल न अगर, करेगा मन मनमानी

*
एक पद-
अभी न दिन उठने के आये 
चार लोग जुट पायें देनें कंधा तब उठना है 
तब तक शब्द-सुमन शारद-पग में नित ही धरना है 
मिले प्रेरणा करूँ कल्पना ज्योति तिमिर सब हर ले 
मन मिथिलेश कभी हो पाए, सिया सुता बन वर ले
कांता हो कैकेयी सरीखी रण में प्राण बचाए
अपयश सहकर भी माया से मुक्त प्राण करवाए
श्वास-श्वास जय शब्द ब्रम्ह की हिंदी में गुंजाये
अभी न दिन उठने के आये

*
दो दोहे 
उसके हुए मुरीद हम, जिसको हमसे आस 
प्यास प्यास से तृप्त हो, करे रास संग रास

मन बिन मन उन्मन हुआ, मन से मन को चैन 
मन में बस कर हो गया, मनबसिया बेचैन
*

दोहा-मुक्तक 
मुक्तक 
मन पर वश किसका चला ?
किसका मन है मौन?
परवश होकर भी नहीं 
परवश कही कौन?
*
संयम मन को वश करे,
जड़ का मन है मौन
परवश होकर भी नहीं
वश में पर के भौन
*

मुक्तिका 
*
पहले कहते हैं आभार 
फिर भारी कह रहे उतार 
*
सबसे आगे हुए खड़े 
कहते दिखती नहीं कतार 
*
फट-फट कार चलाती वे 
जो खुद को कहतीं बेकार 
*
सर पर कार न धरते क्यों 
जो कहते खुद को सरकार? 
*
असरदार से शिकवा क्यों?
अ सरदार है गर सरदार 
*
छोड़ न पाते हैं घर-द्वार
कहते जाना है हरि-द्वार 
*
'मिथ' का 'लेश' नहीं पाया 
थे मिथलेश प्रगट साकार 
***

मुक्तिका 
*
पहले कहते हैं आभार 
फिर भारी कह रहे उतार 
*
सबसे आगे हुए खड़े 
कहते दिखती नहीं कतार 
*
फट-फट कार चलाती वे 
जो खुद को कहतीं बेकार 
*
सर पर कार न धरते क्यों 
जो कहते खुद को सरकार? 
*
असरदार से शिकवा क्यों?
अ सरदार है गर सरदार 
*
छोड़ न पाते हैं घर-द्वार
कहते जाना है हरि-द्वार 
*
'मिथ' का 'लेश' नहीं पाया 
जब मिथलेश हुई साकार 
***

मुक्तिका
*
जीने से मत डरना तुम
जीते जी मत मरना तुम
*
मन की पीड़ा कह-कहकर
पीर नहीं कम करना तुम
*
कदम-कदम चल-गिर-उठकर
मंजिल अपनी वरना तुम
*
श्रम-गंगा में नहा-नहा
तार जगत को तरना तुम
*
फूल-फलो जब-जब, तब-तब
बिन भूले नित झरना तुम

***

doha-jyoti

दोहा दुनिया 
*
ज्योति बिना चलता नहीं, कभी किसी का काम
प्राण-ज्योति बिन शिव हुए, शव फिर काम तमाम 
*
बहिर्ज्योति जग दिखाती, ठोकर लगे न एक 
अंतर्ज्योति जगे 'सलिल', मिलता बुद्धि-विवेक
*
आत्मज्योति जगती अगर, मिल जाते परमात्म
दीप-ज्योति तम-नाशकर, करे प्रकाशित आत्म
*
फूटे तेरे भाग यदि, हुई ज्योति नाराज
हो प्रसन्न तो समझ ले, 'सलिल' मिल गया राज
*
स्वर्णप्रभा सी ज्योति में, रहे रमा का वास
श्वेत-शारदा, श्याम में काली करें प्रवास
*
रक्त-नयन हों ज्योति के, तो हो क्रांति-विनाश
लपलप करती जिव्हा से, काटे भव के पाश
*
ज्योति कल्पना-प्रेरणा, कांता, सखी समान
भगिनी, जननी, सुता भी, आखिर मिले मसान
*
नमन ज्योति को कीजिए, ज्योतित हो दिन-रात
नमन ज्योति से लीजिए, संध्या और प्रभात
*
कहें किस समय था नहीं, दिव्य ज्योति का राज?
शामत उसकी ज्योति से, होता जो नाराज
***

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

doha

दोहे
शब्दों की बाजीगरी, करती तभी कमाल
भाव बिम्ब रस लय कहन, कर दें मालामाल
*
उसके हुए मुरीद हम, जिसको हमसे आस प्यास प्यास से तृप्त हो, करे रास संग रास
*
मन बिन मन उन्मन हुआ, मन से मन को चैन मन में बस कर हो गया, मनबसिया बेचैन
*
मुक्तक 
मन पर वश किसका चला ?
किसका मन है मौन?
परवश होकर भी नहीं 
परवश कही कौन?
*
संयम मन को वश करे,
जड़ का मन है मौन
परवश होकर भी नहीं
वश में पर के भौन
*
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जिलेवार लघुकथाकार-
जबलपुर
०१. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ०७६१ २४१११३१ / ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com, २. अशोक श्रीवास्तव 'सिफर' ९४२५१६४८९६, ३. कुँवर प्रेमिल ९३०१८२२७८२, ३. प्रदीप शशांक ९४२५८६०५४०, ४. धीरेन्द्र बाबू खरे ९४२५८६७६८४, ५. सुरेश तन्मय ९८९३२६६०१४, १५. रमेश सैनी, ६. रमाकांत ताम्रकार, ७. ओमप्रकाश बजाज, ८. सनातन कुमार बाजपेयी ९०७४३ ६४५१५, ९. १०. गीता गीत,

विजय किसलय, १०. दिनेश नंदन तिवारी, ११. १२. गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त, १३ सुरेंद्र सिंह सेंगर, १४. विजय बजाज, १६. प्रभात दुबे, १७. पवन जैन, १८. नीता कसार, १९. मधु जैन, २० शशि कला सेन, २१. प्रकाश चंद्र जैन, २२. अनुराधा गर्ग, २३. सुनीता मिश्र, २४. आशा भाटी, २५. राकेश भ्रमर, २६. २८ छाया त्रिवेदी, २९.रामप्रसाद अटल, ३०.अविनाश दत्तात्रेय कस्तूरे, ३१. अर्चना मलैया, ३२ बिल्लोरे, ३३. अरुण यादव, ३४. आशा वर्मा, ३५, मिथलेश बड़गैयां, ३६. सुरेंद्र सिंह पवार, ३७. मनोज शुक्ल, ३८ आचार्य भगवत दुबे, ३९. गार्गीशरण मिश्र ४०. विनीता श्रीवास्तव, ४१. डॉ. वीरेंद्र कुमार दुबे, ४२. राजेश पाठक प्रवीण,
***
लघुकथा साहित्य -
१९८६-
१. नेताजी की वापसी, बलराम, जयश्री प्रकाशन दिल्ली, क्राउन आकार, सजिल्द, पृष्ठ १०३, ६ व्यंग्य, ११ लघुकथाएँ, १४ छोटी कहानियाँ।
२.
२००४
१. गद्य सप्तक २, उमाशंकर मिश्र (सं), सजिल्द, बहुरंगी, २१.७ से. मी. x १३.७ से. मी., पृष्ठ १४३, मूल्य १५०/-, उद्योग नगर प्रकाशन ११ बी १३६ नेहरू नगर गाज़ियाबाद।
२.
२०१२-
१. पहचान, राधेश्याम पाठक, आवरण पेपरबैक , बहुरंगी, २१.५ से.मी. x १४.० से.मी., पृष्ठ १०८, मूलतः १५०/-, शब्दप्रवाह साहित्य मंच ए ९९ व्ही. डी. मार्केट उज्जैन ४५६००६ प्रकाशन दिल्ली, लेखक संपर्क औदुम्बर भवन एल आई जी ११-१४ सांदीपनि नगर उज्जैन ४५६००६, ९८२६८१६६१९।
२. निर्वाचित लघुकथाएं, अशोक भैया (सं), तृतीय संस्करण (प्रथम २००५, द्वितीय २००६), ISBN ८१-८२३५-०३१-x, पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ २५५, १०५/-, साहित्य उपक्रम प्रकाशन, ९६५४७३२१७४, संपादक संपर्क १८८२ सेक्टर ३ अर्बन एस्टेट करनाल १३२००१। ३. आधुनिक हिंदी लघुकथाएं, त्रिलोक सिंह ठकुरेला (सं),सजिल्द बहुरंगी, २२.५ से. मी. x १४.५ से.मी., पृष्ठ १०४, १५०/-, अरिहंत प्रकाशन राजू साड़ी के ऊपर, सोजती गेट जोधपुर, ०२९१२६५७५३०, संपादक संपर्क ९९ रेलवे चिकित्सालय के सामने, आबूरोड ३०७०२६, ९४६०७१४२६७, ०२९७४२२१४२२ ।
२०१३-
मुखौटों के पार, मो. मोईनुद्दीन अतहर, अयन प्रकाशन दिल्ली, isbn ९७८-७४०८-६५२-५, पृष्ठ ९६, मूल्य २००/- सजिल्द
- पत्रिका लघुकथा अभिव्यक्ति, संपादक मोहम्मद मोईनुद्दीन अतहर (अब स्वर्गीय), प्रकाशन बन्द,२००४ से २०१६ तक छपी।
२०१६-
१. हरियाणा से लघुकथाएँ : अशोक भाटिया (सं.), २. मधुदीप की ६६ लघुकथाएँ: उमेश महादोषी, ३. भगीरथ की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप, ४. बलराम अग्रवाल की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ISBN ९७८-९३-८४७१३-१६-४, सजिल्द, आकार २२.५X१५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पृष्ठ २०८, मूल्य ५००/-, दिशा प्रकाशन १३८/१६ त्रिनगर दिल्ली ११००३५, ५. सतीश दुबे की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ६. कमल चोपड़ा की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ISBN ९७८-९३-८४७१३-२०-१, सजिल्द, आकार २२.५X१५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पृष्ठ २७२, मूल्य ५००/-, दिशा प्रकाशन १३८/१६ त्रिनगर दिल्ली ११००३५, ७. अशोक भाटिया की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ८. सतीशराज पुष्करणा की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ९. मधुकान्त की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), १०. चलें नीड़ की ओर: कान्ता राय (सं.), ११. बूँद बूँद सागर: जितेन्द्र जीतू, नीरज सुधांशु (सं.), १२. समसामयिक लघुकथाएँ, सं. त्रिलोकसिंह ठकुरेला, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN ९७८-९३-८५५९३-८९-५, प्रकाशन राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृष्ठ १४४, मूल्य २००/- ११ लघुकथाकारों की ११ रचनाएँ, चित्र, संक्षिप्त परिचय, १३. आँखों देखी लघुकथा: विकास मिश्र (सं.), १४. लघुकथा अनवरत: सुकेश साहनी-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ (सं.), १५. आदिम पुराकथाएँ (पुराकथा संकलन) वसन्त निरगुणे (सं.), १६. ज़ख्म,१५ संग्रह, विद्या लाल, वर्ष २०१६, पृष्ठ ८८, मूल्य ७०/-, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, रचनाकार संपर्क द्वारा श्री मिथलेश कुमार, अशोक नगर मार्ग १ ऍफ़, अशोक नगर, पटना २०, चलभाष ०९१६२६१९६३६, १७. अंदर एक समंदर, लघु कथा संग्रह, डॉ. सुरेश तन्मय, सजिल्द १०४ पृष्ठ, २२०/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली नयी दिल्ली, १८. एक पेग जिंदगी, पूनम डोगरा, लघुकथा संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-८६८१०-५१-X, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १३८, मूल्य२८०/-, समय साक्ष्य प्रकाशन १५, फालतू लाइन, देहरादून २४८००१, दूरभाष ०१३५ २६५८८९४, १९. बड़ा भिखारी, रमेश मनोहरा, ISBN ९७८-८१-७४०८-८८८-८ आवरण,सजिल्द, बहुरंगी, २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी., अयन प्रकाशन दिल्ली, लेखक संपर्क शीतला गली, जावरा रतलाम ४५७२२६, ९७५२९३१४८१, २०. अनसुलझा प्रश्न, किशन लाल शर्मा, आवरण सजिल्द रंगीन, २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी., पृष्ठ १०४, मूल्य २२०, अयन प्रकाशन दिल्ली, लेखक संपर्क १०३ रामस्वरूप कॉलोनी आगरा २८२०१०, ९७६०६१७००१। २१. आँखों देखी, विकास मिश्र (सं), पेपरबैक, ISBN १३-९७८-९३-८५१४६-३७-४ बहुरंगी, २०.५ से. मी. x १३.५ से.मी., पृष्ठ ८८, मूल्य १२०/-, उद्योग नगर प्रकाशन ६९५ न्यू कोटगांव, जी.टी.रोड गाज़ियाबाद २०१००८, ९८१८२४९९०२, २२. पथ का चुनाव, कांता रॉय, १३८ कहानियाँ, पृष्ठ १६५, ३९५/-,आकार २२.५ से.मी. X १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, ज्ञान गीता प्रकाशन दिल्ली,
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chhand-bahar 3

कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ३
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मुक्तिका
चलें साथ हम
(छंद- तेरह मात्रिक भागवत जातीय, अष्टाक्षरी अनुष्टुप जातीय छंद, सूत्र ययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२, यगण यगण लघु गुरु ]
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चलें भी चलें साथ हम 
करें दुश्मनों को ख़तम 
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न पीछे हटेंगे कदम 
न आगे बढ़ेंगे सितम 
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न छोड़ा, न छोड़ें तनिक 
सदाचार, धर्मो-करम 
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तुम्हारे-हमारे सपन
हमारे-तुम्हारे सनम
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कहीं और है स्वर्ग यह
न पाला कभी भी भरम
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