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सोमवार, 18 मार्च 2024

मार्च १८, निमाड़ी, नदी, मुक्तिका, दोहा, फागुन, सॉनेट, अस्ति

सलिल सृजन १८ मार्च
*
मुक्तिका
(पदभार २४)
बेख्याल से...
***
बेखयाल से खयाल हो रहे हैं आजकल
कीच लगा कीच लोग धो रहे हैं आजकल
*
प्रेम चाहते हैं आप नफ़रतें उगा रहे
चैन-अमन बिना दाम खो रहे हैं आजकल
*
मुस्कुरा रहे हैं होंठ लालियाँ लगा लगा
हाल-ए-दिल न पूछना रो रहे हैं आजकल
*
पा गए जो कुर्सियाँ न जड़ जमीन में रही
रोज अहंकार बीज बो रहे हैं आजकल
*
निज प्रशस्ति गा रहे हैं चीख चीख काग भी
राजहंस मौन दीन मूँद आँखें सो रहे
१८.३.२०२४
***
सॉनेट
अस्ति
'अस्ति' राह पर चलते रहिए
तभी रहे अस्तित्व आपका
नहीं 'नास्ति' पथ पर पग रखिए
यह भटकाव कुपंथ शाप का
है विराग शिव समाधिस्थ सम
राग सती हो भस्म यज्ञ में
पहलू सिक्के के उजास तम
पाया-खोया विज्ञ-अज्ञ ने
अस्त उदित हो, उदित अस्त हो
कर्म-अकर्म-विकर्म सनातन
त्रस्त मत करे, नहीं पस्त हो
भिन्न-अभिन्न मरुस्थल-मधुवन
काम-अकाम समर्पित करिए
प्रभु चरणों में नत सिर रहिए
१८-३-२०२३
•••
दोहे फागुन के
फागुन फगुनायो सलिल, लेकर रंग गुलाल।
दसों दिशा में बिखेरें, झूमें दे दे ताल।।
*
जहँ आशा तहँ स्मिता, बिन आशा नहिं चैन।
बैज सुधेंदु सलिल अनिल, क्यों सुरेंद्र बेचैन।।
*
अफसाना फागुन कहे, दे आनंद अनंत।
रूपचंद्र योगेश हैं, फगुनाहट में संत।।
*
खुशबू फगुनाहट उषा, मोहक सुंदर श्याम।
आभा प्रमिला हमसफ़र, दिनकर ललित ललाम।।
*
समदर्शी हैं नंदिनी, सचिन दिलीप सुभाष।
दत्तात्रय प्राची कपिल, छगन छुए आकाश।।
*
अनिल नाद सुन अनहदी, शारद हुईं प्रसन्न।
दोहे आशा के कहें, रसिक रंग आसन्न।।
*
फगुनाहट कनकाभिती, दे सुरेंद्र वक्तव्य।
फागुन में नव सृजन हो, मंगलमय मंतव्य।।
*
सुधा सुधेन्दु वचन लिए, फगुनाए हम आप।
मातु शारदा से विनय, फागुन मेटे ताप।।
*
मुग्ध प्रियंका ज्योत्स्ना, नवल किरण आदित्य।
वर लय गति यति मंजुला, फगुनाए साहित्य।।
*
किरण किरण बाला बना, माथे बिंदी सूर्य।
शब्द शब्द सलिला लहर, गुंजित रचना तूर्य।।
*
साँची प्राची ने किया, श्रोता मन पर राज।
सरसों सरसा बसंती, वनश्री का है ताज।।
*
छगन लाल पीले न हो, मूठा में भर रंग।
मूछें रंगी सफेद क्यों, देखे दुनिया दंग।।
*
धूप-छाँव सुख-दुःख लिए, फगुनाहट के रंग।
चन्द्रकला भागीरथी, प्रमिला करतीं दंग।।
*
आभा की आभा अमित, शब्द शब्द में अर्थ।
समालोचना में छिपी, है अद्भुत समर्थ।।
१८-३-२०२३
***
मुक्तिका
*
मन मंदिर जब रीता रीता रहता है।
पल पल सन्नाटे का सोता बहता है।।
*
जिसकी सुधियों में तू खोया है निश-दिन
पल भर क्या वह तेरी सुधियाँ तहता है?
*
हमसे दिए दिवाली के हँस कहते हैं
हम सा जल; क्यों द्वेष पाल तू दहता है?
*
तन के तिनके तन के झट झुक जाते हैं
मन का मनका व्यथा कथा कब कहता है?
*
किस किस को किस तरह करे कब किस मंज़िल
पग बिन सोचे पग पग पीड़ा सहता है
१८-३-२०२१
***
गीत
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
***
१२.३.२०१८
***
मुक्तिका
जो लिखा
*
जो लिखा, दिल से लिखा, जैसा दिखा, सच्चा लिखा
किये श्रद्धा सुमन अर्पित, फ़र्ज़ का चिट्ठा लिखा
समय की सूखी नदी पर आँसुओं की अँगुलियों से
दिल ने बेहद बेदिली से, दर्द का किस्सा लिखा
कौन आया-गया कब-क्यों?, क्या किसी को वास्ता?
गाँव अपने, दाँव अपने, कुश्तियाँ-घिस्सा लिखा
किससे क्या बोलें कहों हम?, मौन भी कैसे रहें?
याद की लेकर विरासत, नेह का हिस्सा लिखा
आँख मूँदे, जोड़ कर कर, सिर झुका कर-कर नमन
है न मन, पर नम नयन ले, दुबारा रिश्ता लिखा
१८-३-२०१६
***
निमाड़ी दोहा:
जिनी वाट मंs झाड नी, उनी वांट की छाँव.
मोह ममता लगन, को नारी छे ठाँव..
१८-३-२०१०
*

साहित्य अकादमी, पुरस्कार, पांडुलिपि












 



























































रविवार, 17 मार्च 2024

मार्च १७, सरसीछंद, मुक्तिका, गीत, सॉनेट, शारद,

सलिल सृजन १७ मार्च
*
सॉनेट 
जीत 
*
तुम्हें जीत कर हार गया मैं, 
तुम हारीं पर जीत गई हो,
पुरा-पुरातन प्रीत नई हो,
कर गहने तव द्वार गया मैं। 
अपने हाथ पसार गया मैं,
सचमुच सबसे भिन्न हुई हो, 
सबके साथ अभिन्न हुई हो,
सब मतभेद बिसार गया मैं। 
वार गया मैं खुद को तुम पर, 
अलस्सुबह मनुहार हो गया, 
फाँस रहा था गया खुदी फँस।  
विरह मिलन हो कुरबां हम पर, 
मार हमारा प्यार हो गया, 
सत्य कहूँ महताब हुई हो, 
कली गुलाब हुई हो तुम हँस।
१७.३.२०२४ 
***
सॉनेट
शारद
शारद! उठो बलैया ले लौं।
भोर भई फिर मत सो जइयो।
आँखें खोल तनक मुसकइयो।।
झटपट आजा मूँ धुलवा दौं।।
टेर रई तो खौं गौरैया।
हेर गिलहरी चुगे न दाना।
रिसा न मोखों कर न बहाना।।!
ठुमक ठुमक नच ताजा थैया।।
शारद! दद्दू गरम पिला दौं।
पाटी पूजन कर अच्छर लिख।
झटपट मीठे सहद चटा दौं।।
याद दिला रई काहे नानी?
तैं ईसुर सौं भौत सयानी।
आ जा कैंया मोर भवानी!
१७-३-२०२३
•••
गीत
हम राही बलिदानों के हैं, वे मुस्कानों के
हम चाहक हैं मतिमानों के, वे नादानों के
हम हैं पथिक एक ही पथ के
हम चाबुक, वे ध्वज हैं रथ के
सात वचन हम, वे नग नथ के
हम ध्रुव तारे के दर्शक, वे नाचों-गानों के
हम राही बलिदानों के हैं, वे मुस्कानों के
एक थैली के चट्टे-बट्टे
बोल मधुर अरु कड़वे-खट्टे
हम कृश, वे सब हट्टे-कट्टे
हम थापें टिमकी-मादल के, वे स्वर प्यानो के
हम राही बलिदानों के हैं, वे मुस्कानों के
हम हैं सत्-शिव के आराधक
वे बस सुंदरता के चाहक
हम शीतल, वे मारक-दाहक
वे महलों के मृत, जीवित हम जीव मसानों के
हम राही बलिदानों के हैं, वे मुस्कानों के
कह जुमले वे वोट बटोरें
हम धोखे खा खींस निपोरें
वे मेवे, हम बेरी झोरें
वे चुभते तानों के रसिया, हम सुर-तानों के
हम राही बलिदानों के हैं, वे मुस्कानों के।
वंचित-वंचक संबंधी हम
वे स्वतंत्र हैं, प्रतिबंधी हम
जनम-जनम को अनुबंधी हम
हम राही बलिदानों के हैं, वे मुस्कानों के।
१७-३-२०२२
•••
मुक्तिका
भले ही आपकी फितरत रही मक्कार हो जाना
हमारी चाहतों ने आपको सरकार ही माना
किये थे वायदे जो आपने हमसे भुलाए हैं
हसीनों की अदा है, बोल देना और बिसराना
करेगा क्या ये कोरोना कभी मिल जाए तो उस पे
चलाना तीर नज़रों के मिटा देना़; न घबराना
अदा-ए-पाक की सौं; देख तुमको मन मचलता है
दबाकर जीभ होंठों में, दिखा ठेंगा न इठलाना
बुलाओगे तो आएँगे कफ़न को तोड़कर भी हम
बशर्ते बुलाकर हमको न वादे से मुकर जाना
तुम्हारे थे; तुम्हारे हैं; तुम्हारे रहेंगे जानम
चले आओ गुँजा दें फ़िज़ाओं में फिर से दोगाना
कहीं सरकार बनती है, कहीं सरकार गिरती है
मेरी सरकार! गिर सकती नहीं;
मैंने यही जाना
१७-३-२०२०
***
रसानंद दे छंद नर्मदा २१ १७ मार्च २०१६
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै तथात्रिभंगी छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए सरसी से।
सरसी में है सरसता
*
सरसी में है सरसता, लिखकर देखें आप।
कवि मन की अनुभूतियाँ, 'सलिल' सकें जग-व्याप।।
*
'सरसी' छंद लगे अति सुंदर, नाम 'सुमंदर' धीर।
नाक्षत्रिक मात्रा सत्ताइस , उत्तम गेय 'कबीर'।।
विषम चरण प्रतिबन्ध न कोई, गुरु-लघु अंतहिं जान।
चार चरण यति सोलह-ग्यारह, 'अम्बर' देते मान।।
-अंबरीश श्रीवास्तव
सरसी एक सत्ताईस मात्रिक सम छंद है जिसे हरिपद, कबीर व समुन्दर भी कहा जाता है। सरसी में १६-११ पर यति तथा पंक्तयांत गुरु लघु का विधान है। सूरदास, तुलसीदास, नंददास, मीरांबाई, केशवदास आदि ने सरसी छंद का कुशलता प्रयोग किया है। विष्णुपद तथा सार छंदों के साथ सरसी की निकटता है। भानु के अनुसार होली के अवसर पर कबीर के बानी की बानी के उलटे अर्थ वाले जो कबेर कहे जाते हैं, वे प्राय: इसी शैली में होते है। सरसी में लघु-गुरु की संख्या या क्रम बदलने के साथ लय भी बदल जाती है।
उदाहरण-
०१. अजौ न कछू नसान्यो मूरख, कह्यो हमारी मानि।१
०२. सुनु कपि अपने प्रान को पहरो, कब लगि देति रहौ?३
०३. वे अति चपल चल्यो चाहत है, करत न कछू विचार।४
०४. इत राधिका सहित चन्द्रावली, ललिता घोष अपार।५
०५. विषय बारि मन मीन भिन्न नहि, होत कबहुँ पल एक।६
'छंद क्षीरधि' के अनुसार सरसी के दो प्रकार मात्रिक तथा वर्णिक हैं।
क. सरसी छंद (मात्रिक)
सोलह-ग्यारह यति रखें, गुरु-लघु से पद अंत।
घुल-मिल रहए भाव-लय, जैसे कांता- कंत।।
मात्रिक सरसी छंद के दो पदों में सोलह-ग्यारह पर यति, विषम चरणों में सोलह तथा सम चरणों में
ग्यारह मात्राएँ होती हैं। पदांत सम तुकांत तथा गुरु लघु मात्राओं से युक्त होता है।
उदाहरण:
-ॐप्रकाश बरसैंया 'ओमकार'
०६. काली है यह रात रो रही, विकल वियोगिनि आज।
मैं भी पिय से दूर रो रही, आज सुहाय न साज।।
०७.आप चले रोती मैं, ये भी, विवश रात पछतात।
लेते जाओ संग सौत है, ये पावस की रात।।
संजीव वर्मा 'सलिल'
०८. पिता गए सुरलोक विकल हम, नित्य कर रहे याद।
सकें विरासत को सम्हाल हम, तात! यही फरियाद।।
०९. नव स्वप्नों के बीज बो रही, नव पीढी रह मौन।
नेह नर्मदा का बतलाओ, रोक सका पथ कौन?
१०. छंद ललित रमणीय सरस हैं, करो न इनका त्याग।
जान सीख रच आनंदित हों, हो नित नव अनुराग।।
दोहा की तरह मात्रिक सरसी छंद के भी लघु-गुरु मात्राओं की विविधता के आधार पर विविध प्रकार हो
सकते हैं किन्तु मुझे किसी ग्रन्थ में सरसी छंद के प्रकार नहीं मिले।
ख. वर्णिक सरसी छंद:
सरसी वर्णिक छंद के दो पदों में ११ तथा १० वर्णों के विषम तथा सम चरण होते हैं। वर्णिक छंदों में हर वर्ण को एक गिना जाता है. लघु-गुरु मात्राओं की गणना वर्णिक छंद में नहीं की जाती।
उदाहरण:
-ॐप्रकाश बरसैंया 'ओमकार'
११. धनु दृग-भौंह खिंच रही, प्रिय देख बना उतावला।
अब मत रूठ के शर चला,अब होश उड़ा न ताव ला।
१२. प्रिय! मदहोश है प्रियतमा, अब और बना न बावला।
हँस प्रिय, साँवला नत हुआ, मन हो न तना, सुचाव ला।
संजीव वर्मा 'सलिल'
१३. अफसर भरते जेब निज, जनप्रतिनिधि सब चोर।
जनता बेबस सिसक रही, दस दिश तम घनघोर।।
१४. 'सलिल' न तेरा कोई सगा है, और न कोई गैर यहाँ है।
मुड़कर देख न संकट में तू, तम में साया बोल कहाँ है?
१५. चलता चल मत थकना रे, पथ हरदम पग चूमे।
गिरि से लड़ मत झुकना रे, 'सलिल' लहर संग झूमे।।
अरुण कुमार निगम
चाक निरंतर रहे घूमता , कौन बनाता देह।
क्षणभंगुर होती है रचना , इससे कैसा नेह।।
जीवित करने भरता इसमें , अपना नन्हा भाग।
परम पिता का यही अंश है , कर इससे अनुराग।।
हरपल कितने पात्र बन रहे, अजर-अमर है कौन।
कोलाहल-सा खड़ा प्रश्न है , उत्तर लेकिन मौन।।
एक बुलबुला बहते जल का , समझाता है यार ।
छल-प्रपंच से बचकर रहना, जीवन के दिन चार।।
नवीन चतुर्वेदी सरसी छंद
१७. बातों की परवा क्या करना, बातें करते लोग।
बात-कर्म-सिद्धांत-चलन का, नदी नाव संजोग।।
कर्म प्रधान सभी ने बोला, यही जगत का मर्म।
काम बड़ा ना छोटा होता, करिए कभी न शर्म।।
१८. वक़्त दिखाए राह उसी पर, चलता है इंसान।
मिले वक़्त से जो जैसा भी , प्रतिफल वही महान।।
मुँह से कुछ भी कहें, समय को - देते सब सम्मान।
बिना समय की अनुमति, मानव, कर न सके उत्थान।।
राजेश झा 'मृदु'
खुरच शीत को फागुन आया, फूले सहजन फूल।
छोड़ मसानी चादर सूरज, चहका हो अनुकूल।।
गट्ठर बांधे हरियाली ने, सेंके कितने नैन।
संतूरी संदेश समध का, सुन समधिन बेचैन।।
कुंभ-मीन में रहें सदाशय, तेज पुंज व्‍योमेश।
मस्‍त मगन हो खेलें होरी, भोला मन रामेश।।
हर डाली पर कूक रही है, रमण-चमन की बात।
पंख चुराए चुपके-चुपके, भागी सीली रात।
बौराई है अमिया फिर से, मौका पा माकूल।
खा *चासी की ठोकर पतझड़, फांक रही है धूल।।
संदीप कुमार पटेल
१६.सुन्दर से अति सुन्दर सरसी, छंद सुमंदर नाम।
मात्रा धारे ये सत्ताइस, उत्तम लय अभिराम।।
संजीव वर्मा 'सलिल'
छंद:- सरसी मिलिंदपाद छंद, विधान:-१६-११ मात्रा पर यति, चरणान्त:-गुरू लघु
*
दिग्दिगंत-अंबर पर छाया, नील तिमिर घनघोर।
निशा झील में उतर नहाये, यौवन-रूप अँजोर।।
चुपके-चुपके चाँद निहारे, बिम्ब खोलता पोल।
निशा उठा पतवार, भगाये, नौका में भूडोल।।
'सलिल' लहरियों में अवगाहे, निशा लगाये आग।
कुढ़ चंदा दिलजला जला है, साक्षी उसके दाग।।
घटती-बढ़ती मोह-वासना, जैसे शशि भी नित्य।
'सलिल' निशा सँग-साथ साधते, राग-विराग अनित्य।।
संदर्भ- १. छन्दोर्णव, पृ.३२, २. छन्द प्रभाकर, पृ. ६६, ३. हिन्दी साहित्य कोश, भाग १, प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी।संकलन: भारतकोश पुस्तकालय।संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा।पृष्ठ संख्या: ७३५। ४. सूरसागर, सभा संस्करण, पद ५३६, ५. सूरसागर, वैंकटेश्वर प्रेस, पृ. ४४५, ६. वि. प., पद १०२
***
मुक्तिका-
मापनी: १२२२ - १२२२ - १२२
*
हजारों रंग हैं फागुन मनाओ
भुला शिकवे कबीरा आज गाओ
*
तुम्हें सत्ता सियासत हो मुबारक
हमें सीमा बुलाती, शीश लाओ
*
न खेलो खेल मजहब का घिनौना
करो पूजा-इबादत सर झुकाओ
*
जुबां से मौन ज्यादा बोलता है
न लफ्जों को बिना मकसद लुटाओ
*
नरमदा नेह की सूखे न यारों
सफाई हो,सभी को साथ पाओ
*
कहो जय हिन्द, भारत माँ की जय-जय
फखर से सिर 'सलिल' अपना उठाओ
*
दिलों में दूरियाँ होने न देना
गले मिल, बाँह में लें बांह आओ
***
[बहर:- बहरे-हज़ज मुसद्दस महज़ूफ। वज़्न -१२२२ - १२२२ - १२२ अरकानमफ़ाईलुन मफ़ाईलुन फ़ऊलुन काफ़िया-आ रदीफ़- ओ फ़िल्मी गीत अकेले हैं चले आओ जहाँ हो। मिसरा ये गूंगा गुनगुनाना जानता है।]
***
मुक्तिका
मापनी- २१२२ २१२२ २१२२ २१२
*
आज संसद में पगड़ियाँ, फिर उछालीं आपने
शब्द-जालों में मछलियाँ, हँस फँसा लीं आपने
आप तो पढ़ने गये थे, अब सियासत कर रहे
लोभ सत्ता पद कुरसियाँ, मन बसा लीं आपने
जिसे जनता ने चुना, उसके विरोधी भी चुने
दूरियाँ अपने दरमियाँ, अब बना लीं आपने
देश की रक्षा करें जो, जान देकर रात-दिन
वक्ष पर उनके बरछियाँ, क्यों चला लीं आपने?
पूँछ कुत्ते की न सीधी, हो कभी सब जानते
व्यर्थ झोले से पुँगलियाँ, फिर निकालीं आपने
सात फेरे डाल लाये, बुढ़ापे में भूलकर
अल्पवस्त्री नव तितलियाँ मन बसा लीं आपने
***
मुक्तिका
*
फ़ागुन में फगुनाओ यारों जमकर खेलो रंग चुराकर
लोटा भर पहले अड़ेल लो ठंडाई संग भंग चुराकर
हाथ लगाया है शासन ने, घपले-घोटाले होंगे ही
विश्वनाथ जी जागो-सम्हलो, भाग न जाए गंग चुराकर
बुतशिकनी से जिन्हें शिकायत रही हमेशा उनसे पूछो
मक्का में क्यों पूज रहे हैं ढाँक-मूँदकर संग चुराकर
बेढंगी हो रही सियासत, कोशिश कर तस्वीर बदल दो
नेताओं को भत्ते मत दो, देना है दो ढंग चुराकर
छीछालेदर एक-दूसरे की करने का शौक बहुत है
संसद में लेकर जाओ रे ताज़ा काऊ डंग चुराकर
१७-३-२०१६
***
मुक्तिका
आदमी ही भला मेरा गर करेंगे।
बदी करने से सितारे भी डरेंगे।।
बिना मतलब मदद कर दे तू किसी की
दुआ के शत फूल तुझ पर तब झरेंगे।।
कलम थामे, जो नहीं कहते हकीकत
समय से पहले ही वे बेबस मरेंगे।।
नरमदा नित वे नेह की जो नहाते हैं
बिना तारे किसी के खुद तरेंगे।।
नहीं रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते
यह सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे।।
१७-३-२०१०
***

शनिवार, 16 मार्च 2024

मार्च १६, दोहा, यमक, जनक छंद, श्रृंगार गीत, तुम, मुक्तिका, बाँसुरी, बसंत

सलिल सृजन १६ मार्च 
स्मरण युगतुलसी
मीमांसा अद्भुत नई,
शब्द-शब्द में अर्थ नव,
युग तुलसी ने बताए।
गूढ़ तत्व अतिशय सरल,
परस भक्ति का पा हुए,
हुईं सहायक शारदा।
मानस मानस में बसी,
जन मानस में पैठकर,
मानुस को मानुस करे।
भाव-भक्ति-रस नर्मदा,
दसों दिशा में बहाकर,
धन्य रामकिंकर हुए।
जबलपुर से अवधपुरी,
राम भक्ति की पताका,
युगतुलसी फहरा गए।
हनुमत कृपा अपार पा,
राम नाम जप साधना,
कर किंकर प्रभु प्रिय हुए।
राम भक्ति मंदाकिनी,
संस्कारधानी नहा,
युग तुलसी मय हो गई।
मिली मैथिली शरण जब,
हनुमत-किंकर धन्य हो,
रमारमण में रम गए।
जनकनंदिनी जानकी,
सदय रहीं सुत पर सदा,
राम कृपा अमृत पिला।
(जनक छंद) 
१६.३.२०२४
•••
गले मिलें दोहा यमक
*
चिंता तज चिंतन करें, दोहे मोहें चित्त
बिना लड़े पल में करें, हर संकट को चित्त
*
दोहा भाषा गाय को, गहा दूध सम अर्थ
दोहा हो पाया तभी, सचमुच छंद समर्थ
*
सरिता-सविता जब मिले, दिल की दूरी पाट
पानी में आगी लगी, झुलसा सारा पाट
*
राज नीति ने जब किया, राजनीति थी साफ़
राज नीति को जब तजे, जनगण करे न माफ़
*
इह हो या पर लोक हो, करके सिर्फ न फ़िक्र
लोक नेक नीयत रखे, तब ही हो बेफ़िक्र
*
धज्जी उड़ा विधान की, सभा कर रहे व्यर्थ
भंग विधान सभा करो, करो न अर्थ-अनर्थ
*
सत्ता का सौदा करें, सौदागर मिल बाँट
तौल रहे हैं गड्डियाँ, बिना तराजू बाँट
*
किसका कितना मोल है, किसका कितना भाव
मोलभाव का दौर है, नैतिकता बेभाव
*
योगी भूले योग को, करें ठाठ से राज
हर संयोग-वियोग का, योग करें किस व्याज?
*
जनप्रतिनिधि जन के नहीं, प्रतिनिधि दल के दास
राजनीति दलदल हुई, जनता मौन-उदास
*
कब तक किसके साथ है, कौन बताये कौन?
प्रश्न न ऐसे पूछिए, जिनका उत्तर मौन
१६-३-२०२०
***
दोहा दुनिया
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
१६-३-२०१८
***
श्रृंगार गीत
तुम बिन
*
तुम बिन नेह, न नाता पगता
तुम बिन जीवन सूना लगता
*
ही जाती तब दूर निकटता
जब न बाँह में हृदय धड़कता
दिपे नहीं माथे का सूरज
कंगन चुभे, न अगर खनकता
तन हो तन के भले निकट पर
मन-गोले से मन ही दगता
*
फीकी होली, ईद, दिवाली
हों न निगाहें 'सलिल' सवाली
मैं-तुम हम बनकर हर पल को
बाँटें आजीवन खुशहाली
'मावस हो या पूनम लेकिन
आँख मूँद, मन रहे न जगता
*
अपना नाता नेह-खज़ाना
कभी खिजाना, कभी लुभाना
रूठो तो लगतीं लुभावनी
मानो तो हो दिल दीवाना
अब न बनाना कोई बहाना
दिल न कहे दिलवर ही ठगता
***
मुक्तिका :
मापनी- २१२२ २१२२ २१२
*
तू न देगा, तो न क्या देगा खुदा?
है भरोसा न्याय ही देगा खुदा।
*
एक ही है अब गुज़ारिश वक़्त से
एक-दूजे से न बिछुड़ें हम खुदा।
*
मुल्क की लुटिया लुटा दें लूटकर
चाहिए ऐसे न नेता ऐ खुदा!
*
तब तिरंगे के लिये हँस मर मिटे
हाय! भारत माँ न भाती अब खुदा।
*
नौजवां चाहें न टोंके बाप-माँ
जोश में खो होश, रोएँगे खुदा।
*
औरतों को समझ-ताकत कर अता
मर्द की रहबर बनें औरत खुदा।
*
लौ दिए की काँपती चाहे रहे
आँधियों से बुझ न जाए ऐ खुदा!
***
(टीप- 'हम वफ़ा करके भी तन्हा रह गए' गीत इसी मापनी पर है.)
१६-३-२०१६
***
मुक्तक
नव संवत्सर मंगलमय हो.
हर दिन सूरज नया उदय हो.
सदा आप पर ईश सदय हों-
जग-जीवन में 'सलिल' विजय हो..
***
गीत
बजा बाँसुरी
झूम-झूम मन...
*
जंगल-जंगल
गमक रहा है.
महुआ फूला
महक रहा है.
बौराया है
आम दशहरी-
पिक कूकी, चित
चहक रहा है.
डगर-डगर पर
छाया फागुन...
*
पियराई सरसों
जवान है.
मनसिज ताने
शर-कमान है.
दिनकर छेड़े
उषा लजाई-
प्रेम-साक्षी
चुप मचान है.
बैरन पायल
करती गायन...
*
रतिपति बिन रति
कैसी दुर्गति?
कौन फ़िराये
बौरा की मति?
दूर करें विघ्नेश
विघ्न सब-
ऋतुपति की हो
हे हर! सद्गति.
गौरा माँगें वर
मन भावन...
१६-३-२०१०
***

शुक्रवार, 15 मार्च 2024

मार्च १५, युगतुलसी, राम, सॉनेट, मन, मानव छंद, वैदिक, घनाक्षरी डमरू, हाइकु गीत, दोहा गीत

सलिल सृजन १५ मार्च
*
स्मरण युगतुलसी
मुक्तिका
रामकिंकर रामकिंकर रामकिंकर जप करें।
भक्ति के मृदु भाव की बगिया हरी हरदम करें।।
संकटों से मुस्कुराकर, हो निडर आँखें मिला
गुरु-चरण में आस्था रख, हो अडिग जूझा करें।।
मत रमाएँ मन जगत में, पद कमल में रम रहें।
काम कर निष्काम हर, गुरु को समर्पित नित करें।।
नाम नौका गुरु खिवैया, भक्ति की पतवार ले
पार माया जालमय भव समुद को हर पल करें।।
रामकिंकर रामबोला वाल्मीकि बता गए
सुमिरन हनुमत को हमेशा राम जप मन में करें।।
१५•३•२०२४
•••
दोहा सलिला 
किसे देखकर आ गया, मन में स्नेह अपार।
चमक-दमक नैना रहे, दीपक जला हजार।।
झूम झूम बाला कहे, बाला- मन की बात।
बाला दीपक प्रेम का, है अनुपम सौगात।।
लली लबों पर बैठकर, लाली को अभिमान।
क्या जाने पल में मिटा, दें लब कर रस-पान।।
नागिन सी कुंतल लटें, ना गिन लें नादान।
बैठ रेशमी परस पा, छैंया में रस-खान।।
नथनी जाने नाथना, नाथ नाथ -मन मौन।
नाथ नाथ ना नाचेगा, शर्त लगाए कौन।।
हार हार को जीत में, बदल दमकता खूब।
नैन नर्मदा में गया, सलिल तरंगित डूब।।
•••
सॉनेट
मन
*
मन शांत सरोवर,
न हो सलिल पंकिल,
बचाएँ धरोहर।
रहे नीर निर्मल।

करें साधना छिप,
नहीं ढोल पीटें,
सके मन सतत दिप,
न हों मोह छींटें।

न उन्मन रहे मन,
नहीं चैन खो दे,
नहीं क्लांत हो तन,
यमन बीज बो दे।

सुचिंतन सनातन,
करे मन चिरंतन।
१५.३.२०२४
***
सॉनेट
वैदिक जी
वैदिक जी का जीवट अनुपम
खूब किया संघर्ष निरंतर
हिंदी का लहराया परचम
राष्ट्रवाद के दूत प्रखरतर
पहला शोध कार्य कर तुमने
विरोधियों को सबक सिखाया
अंग्रेजी के बड़वानल में
हिंदी सूरज नित्य उगाया
हिंदी के उन्नायक अनुपम
हिंदी के हित वापिस आओ
हिंदी के गुण गायक थे तुम
हिंदी हित भव को अपनाओ
वेद प्रताप न न्यून कभी हो
वैदिक का नव जन्म यहीं हो
१५-३-२०२३
•••
सॉनेट
पैसा
माँगा है हरदम प्रभु पैसा।
सौदासी मन टुक टुक ताके।
सौदाई तन इत-उत झाँके।।
जोड़ा है निशि-दिन छिप पैसा।।
चिंता है पल-पल यह पैसा।
दूना हो छिन-छिन प्रभु कैसे?
बोलो, हो मत चुप प्रभु ऐसे।।
दो दीदार सतत बन पैसा।।
कैसे भी खन-खन सुनवा दो।
जैसे हो प्रभु! धन जुड़वा दो।
लो प्रसाद मत खर्च करा दो।।
पैसापति हे कहीं न तुम सम।
मोल न किंचित् गर पैसा गुम।
जहाँ न पैसा, वहीं दर्द-गम।।
१५-३-२०२२
•••
कार्यशाला - घनाक्षरी
डमरू की ताल पर
११२ २२१ ११ = ११
तीन ध्वनि खंड ११ मात्रिक हो सकें तो सोने में सुहागा, तब उच्चार काल समान होगा।
चौथे चरण का उच्चार काल सभी पंक्तियों में समान हो।
ऐसा न होने पर बोलते समय गलाबाजी जरूरी हो जाती है।
आपने अंतिम पंक्ति में १२×३
की साम्यता रखी है।
पहली और चौथी पंक्ति बोलकर पढ़ें तो अंतर का प्रभाव स्पष्ट होगा।
*
(प्रति पंक्ति - वर्ण ८-८-८-७, मात्रा ११-११-११-११।)
डमरू की ताल पर, शंकर के शीश पर, बाल चंद्र झूमकर, नाग संग नाचता।
संग उमा सज रहीं, बम भोले भज रहीं, लाज नहीं तज रहीं, प्रेम त्याग माँगता।।
विजय हार हो गई, हार विजय हो गई, प्रणय बीज बो गई, सदा विश्व पूजता।
शिवा-शिव न दो रहे, कीर्ति-कथा जग कहे, प्रीत-धार नित बहे, मातु-पिता मानता।।
१५-३-२०२२
***
श्रीराम पर हाइकु
*
मूँद नयन
अंतर में दिखते
हँसते राम।
*
खोल नयन
कंकर कंकर में
दिखते राम।
*
बसते राम
ह्रदय में सिय के
हनुमत के।
*
सिया रहित
श्रीराम न रहते
मुदित कभी।
*
राम नाम ही
भवसागर पार
उतार देता।
*
अभिनव प्रयोग
राम हाइकु गीत
(छंद वार्णिक, ५-७-५)
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बल बनिए
निर्बल का तब ही
मिले प्रणाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सुख तजिए / निर्बल की खातिर / दुःख सहिए।
मत डरिए / विपदा - आपद से / हँस लड़िए।।
सँग रहिए
निषाद, शबरी के
सुबहो-शाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
मार ताड़का / खर-दूषण वध / लड़ करिए।
तार अहल्या / उचित नीति पथ / पर चलिए।।
विवश रहे
सुग्रीव-विभीषण
कर लें थाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सिय-हर्ता के / प्राण हरण कर / जग पुजिए।
आस पूर्ण हो / भरत-अवध की / नृप बनिए।।
त्रय माता, चौ
बहिन-बंधु, जन
जिएँ अकाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
२५-१०-२०२१
***
दोहा दुनिया
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
***
१५-३-२०१८
***
कहे कुंडलिया सत्य
*
दो नंबर पर हो गयी, छप्पन इंची चोट
जला बहाते भीत हो, पप्पू संचित नोट
पप्पू संचित नोट, न माया किसी काम की
लालू स्यापा करें, कमाई सब हराम की
रहे तीन के ना तेरह के, रोते अफसर
बबुआ करें विलाप, गँवाकर धन दो नंबर
*
दबे-दबे घर में रहें, बाहर हों उद्दंड
हैं शरीफ बस नाम के, बेपेंदी के गुंड
बेपेंदी के गुंड, गरजते पर न बरसते
पाल रहे आतंक, मुक्ति के हेतु तरसते
सीधा चले न सांप, मरोड़ो कई मरतबे
वश में रहता नहीं, उठे फण नहीं तब दबे
*
दिखा चुनावों ने दिया, किसका कैसा रूप?
कौन पहाड़ उखाड़ता, कौन खोदता कूप?
कौन खोदता कूप?, कौन किसका अपना है?
कौन सही कर रहा, गलत किसका नपना है?
कहता कवि संजीव, हुआ जो नहीं वह लिखा
कौन जयी हो? पत्रकार को नहीं था दिखा
*
हाथी, पंजा-साइकिल, केर-बेर सा संग
घर-आँगन में करें जो, घरवाले ही जंग
घरवाले ही जंग, सम्हालें कैसे सत्ता?
मतदाता सच जान, काटते उनका पत्ता
बड़े बोल कह हाय! चाटते धूला साथी
केर-बेर सा सँग, साइकिल-पंजा, हाथी
*
पटकी खाकर भी नहीं, सम्हले नकली शेर
ज्यादा सीटें मिलीं पर, हाय! हो गए ढेर
हाय! हो गए ढेर, नहीं सरकार बन सकी
मुँह ही काला हुआ, नहीं ठंडाई छन सकी
पिटे कोर्ट जा आप, कमल ने सत्ता झपटी
सम्हले नकली शेर नहीं खाकर भी पटकी
१५-३-२०१७
***
दोहा गीत:
गुलफाम
*
कद से ज्यादा बोलकर
आप मरे गुलफाम
*
घर से पढ़ने आये थे, लगी सियासत दाढ़,
भाषणबाजी-तालियाँ, ज्यों नरदे में बाढ़।
भूल गये कर्तव्य निज, याद रहे अधिकार,
देश-धर्म भूले, करें, अरि की जय-जयकार।
सेना की निंदा करें, खो बैठे ज्यों होश,
न्याय प्रक्रिया पर करें, व्यक्त अकारण रोष।
आसमान पर थूककर,
हुए व्यर्थ बदनाम
कद से ज्यादा बोलकर
आप मरे गुलफाम
*
बडबोले नेता रहे, अपनी रोटी सेक,
राजनीति भट्टी जली, छात्र हो गये केक।
सुरा-सुंदरी संग रह, भूल गए पग राह,
अंगारों की दाह पा, कलप रहे भर आह।
भारत का जयघोष कर, धोयें अपने पाप,
सेना-बैरेक में लगा, झाड़ू मेटें शाप।
न्याय रियायत ना करे
खास रहे या आम
कद से ज्यादा बोलकर
आप मरे गुलफाम
***
गीत
फागुन का रंग
फागुन का रंग हवा में है, देना मुझको कुछ दोष नहीं
संविधान विपरीत आचरण कर, क्यों मानूँ होश नहीं?
*
संसद हो या जे एन यू हो, कहने की आज़ादी है
बात और है हमने अपने घर की की बर्बादी है
नहीं पंजीरी खाने को पर दिल्ली जाकर पढ़ते हैं
एक नहीं दो दशक बाद भी आगे तनिक न बढ़ते हैं
विद्या की अर्थी निकालते आजीवन विद्यार्थी रह
अपव्यय करते शब्दों का पर कभी रीतता कोष नहीं
संविधान विपरीत आचरण कर, क्यों मानूँ होश नहीं?
*
साठ बरस सत्ता पर काबिज़, रहे चाहते फिर आना
काम न तुमको करने देंगे, रेंक रहे कहते गाना
तुम दो दूनी चार कहो, हम तीन-पाँच ही बोलेंगे
सद्भावों की होली में नफरत का विष ही घोलेंगे
नारी को अधिकार सकल दो, सुबह-शाम रिश्ते बदले
जीना मुश्किल किया नरों का, फिर भी है संतोष नहीं
संविधान विपरीत आचरण कर, क्यों मानूँ होश नहीं?
*
दुश्मन के झंडे लहरा दूँ, अपनी सेना को कोसूँ
मौलिक हक है गद्दारी कर, सत्ता के सपने पोसूँ
भीख माँग ले पुरस्कार सुख-सुविधा, धन-यश भोग लिया
वापिस देने का नाटककर, खुश हूँ तुमको सोग दिया
उन्नति का पलाश काटूँगा, रौंद उमीदों का महुआ
करूँ विदेशों की जय लेकिन भारत माँ का घोष नहीं
संविधान विपरीत आचरण कर, क्यों मानूँ होश नहीं?
*
होली पर होरा भूँजूँगा देश-प्रेम की छाती पर
आरक्षण की माँग, जला घर ठठा हँसूँ बर्बादी पर
बैंकों से लेकर उधार जा, परदेशों में बैठूँगा
दुश्मन हित जासूसी करने, सभी जगह घुस पैठूँगा
भंग रंग में डाल मटकता, किया रंग में भंग सदा
नाजायज़ को जायज़ कहकर जीता है कम जोश नहीं
संविधान विपरीत आचरण कर, क्यों मानूँ होश नहीं?
१५-३-२०१६
***
छंद सलिला:
चौदह मात्रीय मानव छंद
*
लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४, मात्रा बाँट ४-४-४-२ या ४-४-४--१-१, मूलतः २-२ चरणों में तुक साम्य किन्तु प्रसाद जी ने आँसू में तथा गुप्त जी ने साकेत में२-४ चरण में तुक साम्य रख कर इसे नया आयाम दिया। आँसू में चरणान्त में दीर्घ अक्षर रखने में विविध प्रयोग हैं. यथा- चारों चरणों में, २-४ चरण में, २-३-४ चरण, १-३-४ चरण में, १-२-४ चरण में। मुक्तक छंद में प्रयोग किये जाने पर दीर्घ अक्षर के स्थान पर दीर्घ मात्रा मात्र की साम्यता रखी जाने में हानि नहीं है. उर्दू गज़ल में तुकांत/पदांत में केवल मात्रा के साम्य को मान्य किया जाता है. मात्र बाँट में कवियों ने दो चौकल के स्थान पर एक अठकल अथवा ३ चौकल के स्थान पर २ षटकल भी रखे हैं. छंद में ३ चौकल न हों और १४ मात्राएँ हों तो उसे मानव जाती का छंद कहा जाता है जबकि ३ चौकल होने पर उपभेदों में वर्गीकृत किया जाता है.
लक्षण छंद:
चार चरण सम पद भुवना,
अंत द्विकल न शुरू रगणा
तीन चतुष्कल गुरु मात्रा,
मानव पग धर कर यात्रा
उदाहरण:
१. बलिहारी परिवर्तन की, फूहड़ नंगे नर्त्तन की
गुंडई मौज मज़ा मस्ती, शीला-चुन्नी मंचन की
२. नवता डूबे नस्ती में, जनता के कष्ट अकथ हैं
संसद बेमानी लगती, जैसे खुद को ही ठगती
३. विपदा न कोप है प्रभु का, वह लेता मात्र परीक्षा
सह ले धीरज से हँसकर, यह ही सच्ची गुरुदीक्षा
४. चुन ले तुझको क्या पाना?, किस ओर तुझे है जाना
जो बोया वह पाना है, कुछ संग न ले जाना है
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, मानव, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
१५-३-२०१४
***
दोहा
मंगलमय हो नव दवस, दे यश कीर्ति समृद्धि.
कर्म करें हर धर्ममय, हर पल हो सुख-वृद्धि..
***
हाइकु गजल:
आया वसंत/इन्द्रधनुषी हुए /दिशा-दिगंत..
शोभा अनंत/हुए मोहित, सुर/मानव संत..
प्रीत के गीत/गुनगुनाती धूप /बनालो मीत.
जलाते दिए/एक-दूजे के लिए/कामिनी-कंत..
पीताभी पर्ण/संभावित जननी/जैसे विवर्ण..
हो हरियाली/मिलेगी खुशहाली/होगे श्रीमंत..
चूमता कली/मधुकर गुंजा /लजाती लली..
सूरज हुआ /उषा पर निसार/लाली अनंत..
प्रीत की रीत/जानकार न जाने/नीत-अनीत.
क्यों कन्यादान?/'सलिल'वरदान/दें एकदंत..
१५-३-२०१०
***

गुरुवार, 14 मार्च 2024

मार्च १४, दोहा मुक्तिका, तुम, श्रंगार, सोनेट, दीपांजलि, गीत, सपना

सलिल सृजन १४ मार्च
***
सॉनेट
सपना
*
अपना सपना अपनी सपना,
जो मिलकर भी मिली नहीं है,
वह खिलकर भी खिली नहीं है,
नहीं कली का कोई नपना।
सोते-जगते स्वप्न देखिए,
आब ख्वाब की सत्य नहीं है,
ताब घटे-बढ़ नित्य नहीं है,
कब देखा क्या नहीं लेखिए।
ड्रीम साथ कब किस का देता,
आता-जाता खाली हाथों,
राग-द्वेष नहिं मन धरता है।
नहीं आपसे कुछ भी लेता,
नहीं आपको कुछ भी देता,
राम राम झटपट करता है।
***सॉनेट
दीपांजलि
*
दीपांजलि सत्कार है,
वसुधा प्रमुदित हो कहे,
रश्मि-दीप अनगिन दहे,
दिनकर का आभार है।


किरण किए शृंगार है,
पवन मिलन यादें तहे,
नहीं किसी से कुछ कहे,
ऊषा पर बलिहार है।


प्रकृति प्रणय पटकथा रच,
मौन; मंद मुस्का रही,
मानव कर नित नव सृजन।


है आत्मा की प्रीत सच,
परमात्मा यश गा रही,
चाहे हो पल-पल मिलन।
१४.३.२०२४
***

*
सॉनेट
जगत्पिता-जगजननी जय जय।
एक दूसरे के पूरक हो।
हम भी हो पाएँ यह वर दो।।
सचराचर को कर दो निर्भय।।

अजर अमर अविनाशी अक्षय।
मन मंदिर में सदा पधारो।
तन नंदी सेवा स्वीकारो।।
रखो शीश पर हाथ है विनय।।

हे अंबे! गौरी कल्याणी।
तर जाते जो भजते प्राणी।
मंगलमय कर दे माँ वाणी।।

नर्मदेश्वर शशिधर शंकर।
हे नटराज! न हो प्रलयंकर।
वैद्यनाथ कामारि कृपाकर।।
१४-३-२०२३
•••
मुक्तिका
*
निखरा निखरा निखरा मौसम
आभामय हो तो फिर क्यों गम
मिल पाएँ मुस्कान सजाएँ
बिछुड़ें तो अँखियाँ मत कर नम
विषम सियासत की राहें है
जन जीवन तो रहने दें सम
जल पलाश कोशिश करता है
कर पाए दुनिया से तम कम
संसद अब बन गई अखाड़ा
जिसे देखिए ठोंक रहा ख़म
दिल काला हो कोई न देखे
देखें देह कर रही चमचम
इंक्वायरी बम शासन फोड़े
है विपक्ष में घर घर मातम
१४-३-२०२३
***
दोहा-सलिला रंग भरी
*
लहर-लहर पर कमल दल, सुरभित-प्रवहित देख
मन-मधुकर प्रमुदित अमित, कर अविकल सुख-लेख
*
कर वट प्रति झुक नमन झट, कर-सर मिल नत-धन्य
बरगद तरु-तल मिल विहँस, करवट-करवट अन्य
*
कण-कण क्षण-क्षण प्रभु बसे, मनहर मन हर शांत
हरि-जन हरि-मन बस मगन, लग्न मिलन कर कांत
*
मल-मल कर मलमल पहन, नित प्रति तन कर स्वच्छ
पहन-पहन खुश हो 'सलिल', मन रह गया अस्वच्छ
*
रख थकित अनगिनत जन, नत शिर तज विश्वास
जनप्रतिनिधि जन-हित बिसर, स्वहित वरें हर श्वास
*
उछल-उछल कपि हँस रहा, उपवन सकल उजाड़
किटकिट-किटकिट दंत कर, तरुवर विपुल उखाड़
*
सर! गम बिन सरगम सरस, सुन धुन सतत सराह
बेगम बे-गम चुप विहँस, हर पल कहतीं वाह
*
सरहद पर सर! हद भुला, लुक-छिप गुपचुप वार
कर-कर छिप-छिप प्रगट हों, हम सैनिक हर बार
*
कलकल छलछल बह सलिल, करे मलिनता दूर
अमल-विमल जल तुहिन सम, निर्मलता भरपूर
१४-३-२०१७
***
गीत:
ऊषा को लिए बाँह में
*
ऊषा को लिए बाँह में,
संध्या को चाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
पानी के बुलबुलों सी
आशाएँ पल रहीं.
इच्छाएँ हौसलों को
दिन-रात छल रहीं.
पग थक रहे, मंजिल
कहीं पाई न राह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
तृष्णाएँ खुद ही अपने
हैं हाथ मल रहीं.
छायाएँ तज आधार को
चुपचाप ढल रहीं.
मोती को रहे खोजते
पाया न थाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
शिशु शशि शशीश शीश पर
शशिमुखी विलोकती.
रति-मति रतीश-नाश को
किस तरह रोकती?
महाकाल ही रक्षा करें
लेकर पनाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
***
दोहा मुक्तिका
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
११-३-२०१७
***
श्रृंगार गीत
तुम
*
तुम जबसे
सपनों में आयीं
बनकर नीलपरी,
तबसे
सपने रहे न अपने
कैसी विपद परी।
*
नैनों ने
नैनों में
नैनों को
लुकते देखा।
बैनों नें
बैनों में
बैनों को
घुलते लेखा।
तू जबसे
कथनों में आयी
कह कोई मुकरी
तबसे
कहनी रही न अपनी
मावट भोर गिरी।
*
बाँहों ने
बाँहों में
बाँहों को
थामे पाया।
चाहों नें
चाहों में
चाहों को
हँस अपनाया।
तू जबसे
अधरों पर छायी
तन्नक उठ-झुकरी
तबसे
अंतर रहा न अपना
एक भई नगरी।
*
रातों ने
रातों में
रातों को
छिपते देखा।
बातों नें
बातों से
बातों को
मिलते लेखा।
तू जबसे
जीवन में आयी
ले खुशियाँ सगरी
तबसे
गागर में सागर सी
जन्नत दिखे भरी।
१४-३-२०१६
***
मुक्तिका
*
हम मन ही मन प्रश्न वनों में दहते हैं.
व्यथा-कथाएँ नहीं किसी से कहते हैं.
*
दिखें जर्जरित पर झंझा-तूफानों में.
बल दें जीवन-मूल्य न हिलते-ढहते हैं.
*
जो मिलता वह पहने यहाँ मुखौटा है.
सच जानें, अनजान बने हम सहते हैं.
*
मन पर पत्थर रख चुप हमने ज़हर पिए.
ममता पाकर 'सलिल'-धार बन बहते हैं.
*
दिल को जिसने बना लिया घर बिन पूछे
'सलिल' उसी के दिल में घर कर रहते हैं.
***
दोहा
ईश्वर का वरदान है, एक मधुर मुस्कान.
वचन दृष्टि स्पर्श भी, फूँक सके नव प्राण..
१४-३-२०१०

बुधवार, 13 मार्च 2024

मानस-प्रवचन १, रामकिंकर उपाध्याय

स्मरण : युगतुलसी
मानस-प्रवचन १ 
पद्मभूषण रामकिंकर उपाध्याय जी 
*
''सुनि मुनीसु कह बचन संप्रीतौ। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम विरस सेवक सुखदाता॥

जाइ देखि आवहु नगर, सुख निधान दोउ भाई।
करहु सुफल सबके नयन, सुन्दर बदन दिखाई।। १/२१७।७

भगवान्‌ श्री रामभद्र की महती अनुकम्पा ओर श्री बसन्त कुमार जी बिड़ला, सौजन्यमयी श्री सरलाजी बिड़ला के स्नेह और आग्रह से प्रति वर्ष की परम्परा इस बार भी आज प्रारम्भ होने जा रही है। मुझे विश्वास है कि प्रति वर्ष की भाँति आप एकान्त और शान्त चित्त से मानस के इस ज्ञान-यज्ञ में भाग लेंगे। पिछले वर्ष बालकाण्ड के अहल्योद्धार-प्रसंग का समापन किया गया था और विशेष रूप से रामनवमी के संदर्भ मे भगवान्‌ राम के प्राकट्य का क्या तत्व है, इसकी चर्चा कौ गई थी। प्रवचन के आरम्भ में उद्धृत पंक्तियों के अनुसार अह्यो द्वार के पश्चात्‌ भगवान्‌ श्री राम जनकपुरी में महर्षि के पास बैठे हैँ। श्री लक्ष्मणजी के हृदय में नगर-दर्शन की उत्कण्ठा है पर वे संकोच ओर भय के कारण कह नहीं पाते। उन्होंने प्रभु की ओर देखा और प्रभु उनके अंतर्मन बात समझ लेते हैं, और वे महर्षि विश्वामित्र की ओर देखते हैं। महर्षि विश्वामित्र ने प्रभु से पूछा, क्या आप कुछ कहना चाहते हैं? भगवान्‌ श्री राम ने कहा कि गुरुदेव, लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, पर आपके भय ओर संकोच के कारण वे कह नहीं पा रहे हैँ। यदि आप, आज्ञा दें तो मैं उन्हें नगर दिखा लाऊँ? भगवान्‌ राम के उक्त वाक्य को सुनते ही महर्षि विश्वामित्र सर्वथा भावविभोर हो जाते हैं और वे श्री राम को एक उपाधि देते हैँ ओर वह उपाधि बड़े महत्व की है। महर्षि विश्वामित्र कहते हैं कि राघवेन्द्र! तुमने मुझ से जो कुछ पूछा है वह तो सर्वथा तुम्हारे उपयुक्त ही दै; क्योंकि वस्तुतः तुम तो धर्मसेतु के संरक्षक हो। यहाँ महर्षि विश्वामित्र दारा श्रीराम को धर्मसेतु के संरक्षक की उपाधि दी गई और ठीक इससे मिलती-जुलती उपाधि गुरु वशिष्ठ द्वारा चित्रकूट की भूमि में भगवान्‌ श्री राम को दी गई थी। इस पंक्ति में जहाँ भगवान्‌ श्री राम को धर्म सेतु के संरक्षक के रूप में स्मरण किया गया है वहाँ गुरु वशिष्ठ चित्रकूट में कहते हैं कि वस्तुतः तुम स्वयं मूर्तिमान धर्मसेतु हो,

'धर्म सेतु करुनायतन कस न कहु अस राम।'
लोग दुखित दिन इ दरस देखि लहहुँ विश्राम ॥\ २।२४८

वस्तुतः तुम तो धर्म के मूर्तिमान सेतु हो और इसका यत्किंचित्‌ विस्तार अरण्यकाण्ड में हुआ। सेतु पुल को कहते हैं। बहुधा हम जब पुल की कल्पना करते हैं तो नदी के ऊपर पुल है, ऐसी कल्पना करते हैं। श्री राम को ब्रह्मर्षि वशिष्ठ और महर्षि विश्वामित्र ने सेतु के रूप में स्मरण किया ओर उसका स्पष्टीकरण करते हैं सुतीक्ष्णजी। वे कहते हैं कि आप केवल नदी के सेतु नहीं, अपितु अति नागर भव सागर सेतु है। अतः, भगवान्‌ श्री राम न केवल सेतु हैं अपितु सुतीक्ष्णजी के शब्दों में वे वस्तुतः संसार-सागर के सेतु हैं। सेतु का यह प्रतीक गोस्वामीजी को. बहुत प्रिय है। यदि नदी को पार करना हो तो भी सेतु का बड़ा महत्व है। नदी को पार करने के लिए एक समर्थ व्यक्ति उसे तैरकर भी पार कर सकता है, कुछ लोग कर भी लेते हैं, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति तैरकर उस पार नहीं जा सकता। यदि तैराकी का पौरुष प्रदर्शन हो तो उसके निमित्त व्यक्ति तैरकर पार जाता हे किन्तु साधारणतः नदी पार होने के लिए कोई तैराकी का आश्रय नहीं लेगा; क्योंकि स्वाभाविक है कि यदि व्यक्ति तैरकर नदी पार करने की चेष्टा करेगा तो उसके वस्त्र भीग जाएँगे और वह्‌ कोई सामान लेकर नहीं जा सकेगा किन्तु जहाँ तक समुद्र को पार करने का प्रश्न है वहाँ तो तैराकी का कोई महत्व ही नहीं है- 'ते सठ महासिंधु बिनु तरनी। परि पार चार्हाह जड़ करनी ।॥। ७।११४।४

गोस्वामीजी ने कहा कि वह तो कोई महान मूर्ख ही होगा जो समुद्र को तरकर पार करना चाहे । ऐसी स्थिति में नदी अथवा समुद्र को पार करने के लिए व्यक्ति नौका या जहाज का आश्रय लेता है, लेकिन उसकी भी सीमा है। एक तो नौका की सामर्थ्य कितनी है, कितने यात्रियों को वह नौका ढो सकती है, उसका चालक कितना कुशल है और इतना होने पर भी सीमित संख्या में ही कोई कुशल नाविक लोगों को नदी के पार उतार सकता है। नदी अथवा समुद्र को पार करने का तीसरा माध्यम जो सर्व श्रेष्ठ माध्यम है, वह है सेतु। सेतु का अभिप्राय यह है कि जब नदी पर पुल का निर्माण कर दिया जाता है तो फिर निर्बाध गति से प्रत्येक व्यक्ति उसके माध्यम से इस पार से उस पार पहुँच सकता है और दोनों पार के व्यक्ति एक-दुसरे के पास सरलता से आ-जा सकते हैं। गोस्वामी जी इसको इस अर्थ में लेते हैं कि नौकाके द्वारा बहुत होगा तो कुछ व्यक्ति पार होंगे लेकिन जब सेतु का निर्माण हो जाता है तो एक विशेषता और आ जाती है:

'अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराह ।
चढ़ि पिपीलिकऊ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहि ॥१।१३

आप तो नाविक या मल्लाह को उतराई देकर नाव से पार उतर सकते हैं, पर नन्ही-सी चींटी यदि पार होना चाहे तो कैसे पार हो? उसे तो मल्लाह ले जाकर नाव पर नहीं बैठानेवाला है। अतः, सेतु की सबसे बड़ी विशेषता यह्‌ है कि उसके माध्यम से न केवल मनुष्य, पशु ओर पक्षी ही नहीं जो अत्यन्त क्षुद्र जन्तु है, बिलकुल नन्हीं सी चींटी भी पार हो जाती है। यह चींटी लघुता की प्रतीक है और इसका अभिप्राय यह्‌ है कि पार होने का माध्यम इतना महत् हो कि उसका लाभ केवल कुछ व्यवितयों को प्राप्त न हो अपितु नन्हें से नन्हा प्राणी भी उसके द्वारा दूरी को पार कर सके। इस दृष्टि से गोस्वामीजी सेतु को सर्वश्रेष्ठ प्रतीक मानते हैं। भगवान् श्री राम को जब यह उपाधि दी गई कि श्री राम सेतु हैं तो मैं यही कहूँगा कि भगवान राम के व्यक्तित्व की इससे बढ़कर कोई सार्थक व्याख्या नहीं हो सकती। लंका और भारत के बीच विशाल समुद्र लहरा रहा है और उस समुद्र को पार करने की समस्या है। यदि श्री राम के ईश्वरत्व पर विचार कर मानस-प्रवचन करें तो पार होने की कोई समस्या नहीं है लेकिन जहाँ एक ओर रामचरितमानस में बार-बार आग्रहपूर्वक कहा गया है कि श्री राम ईश्वर है, वहाँ उतने ही आग्रह से यह भी कहा गया है कि श्री राम ईश्वर होते हुए भी नर-लीला करते हैं, मानव-लीला करते हैँ -'चरित करत नर अनुहरत'। और उसका उद्देश्य भी यही है 'संसृति सागर सेतु'। संसार सागर पर सेतु का निर्माण करने के लिए भगवान्‌ मानवीय चरित्र का आचरण प्रकट करते हैं । भगवान्‌ श्री राम द्वारा समुद्र पार करते समय समस्या क्या है? एक तो यह कि भगवान्‌ श्री राम अकेले नहीं हैं। अगणित बन्दर इस समुद्र को पार करने के लिए उनके साधन हैं और श्री राम को सारे बन्दरों को भी पार ले जाना है। ऐसी स्थिति में भगवान्‌ श्री राम् अपने व्यक्तित्व का एक बड़ा विलक्षण पक्ष सामने रखते हैं। सेतु को केवल इसी अर्थ में मत लीजिए कि उन्होंने लंका और भारत के बीच बहुत बड़े सेतु का निर्माण किया अपितु भगवान् राम के व्यवितत्व पर इस दृष्टि से विचार करके देखिये कि जैसे नदी के दो किनारे हैं ओर दोनों किनारों की दूरी के कारण इस पार और उस पार के व्यक्ति एक-दूसरे से सरलता से नहीं मिल पाते, और कही-कहीं तो यह दूरी समद्र के समान इतनी विशाल प्रतीत होती है कि लगता है इस दूरी को तो किसी तरह से पाटा ही नहीं जा सकता। दूरी की यह समस्या समाज में सर्वदा रही है। यह व्यक्ति के जीवन में भी रहती है ओर समाज के जीवन में भी रहती है । समाज की तुलना यदि नदी से करें तो समाज के दोनों वर्ग एक-दूसरे से दूर और एक-दूसरे से मिल नहीं पाते। फिर भले उसे आप 'जन' ओर 'बुध' कह लें। रामचरितमानस की विशेषता बताते हुए गोस्वामी जी इसके लिए शब्द चुनते हैं- 'बुध विश्राम सकल जन रजनी।'

अगर समाज नदी की तरह है तो उसका एक किनारा 'जन' ओौर दूसरा किनारा 'बुध' है। एक ओर विद्वान्‌ है तो दूसरी ओर साधारणः समझवाला व्यक्ति है; एक ओर धनवान है तो दूसरी ओर निर्धन है; एक ओर बलवान है तो दूसरी ओर निर्बल व्यक्ति है। इतना ही नहीं, विचार के क्षेत्र में भी व्यक्ति-व्यक्ति के बीच दूरी पाई जाती है। एक महापुरुष की विचार-धारा है तो दूसरे महापुरुष की विचारधारा कुछ और है । भावनाओं में भी परस्पर दूरी दिखाई देती है। कभी-कभी तो एक ही परिवार में रहनेवाले व्यक्ति परस्पर भावना की दृष्टि से एक-दूसरे से दूर दिखाई देते हैं और व्यवहार में तो पग-पग पर दूरी का दर्शन होता है। ऐसी परिस्थिति में समाज में या जीवन में, बल्कि समाज और जीवन में ही नहीं हम तो यों कहेंगे कि अपने ही भीतर इतनी बड़ी दूरी है कि उस दूरी को हम पूरा नहीं कर पाते। हमारे ही मन और बुद्धि में इतनी दूरी पाई जाती है कि अगर बाहर की दूरी को छोड़कर अपने ही भीतर की दूरी पर विचार करें तो ऐसा लगने लगता है कि अरे! हम बाहर की दूरी क्या पारकरेंगे जबकि अपने भीतरवाली दूरी को ही पार नहीं कर पा रहे हैं। स्वयं अपने में ही, अपनी बुद्धि में हम जिसे सत्य समझते हैं, उसे हमारा मन स्वीकार नहीं करता । मन और बुद्धिके बीच हमारा अहंकार ऐसा लहरा रहा है कि उसे पारकर पाना सम्भव नहीं।

ऐसी परिस्थिति में आन्तर जीवन और बाह्य जीवन में दूरी को कैसे दूर किया जाए, यह्‌ बड़ी समस्या है। इस दृष्टि से भगवान्‌ राम के अवतार की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि भगवान्‌ राम किसी एक किनारे के व्यक्ति नहीं है, भगवान्‌ राम किसी एक विचारधारा के समर्थक नहीं और न वे किसी एक वर्ग के समर्थक हैं अपितु जैसे सेतु का कार्यं नदी के दोनों किनारों को एक-दूसरे से मिला देना है उसी प्रकार भगवान्‌ राम के व्यक्तित्व का अनोखापन यही है कि चाहे भावना का क्षेत्र हो, चाहे विचार का क्षेत्र हो, चाहे व्यवहार का क्षेत्र हो, जहाँ भी दूरी है वहाँ भगवान् राम का व्यक्तित्व सबके बीच सेतु बनकर मिलाने का काम कर रहा है। सेतु-निर्माण तो बाद में हुआ। पहले रामचरितमानस मे संकेत आता है कि भगवान्‌ श्री राम मंत्रिमण्डल के सामनेप्रश्न रखते हैँ कि इस विशाल समुद्र को कैसे पार किया जाए। इस पर विभीषण जो कि समय पहले ही आए थे और जिन्हें थोड़ी देर पहले मंत्रिमण्डल मे सम्मिलित किया गया था, उत्साह् में भरे हुए कहते हैं कि महाराज, मैं तो यह समझता हूँ कि समुद्र आपका कुलगुरु है ओर यदि आप उसे प्रसन्न करें तो उसके द्वारा ही किसी-न-किसी एसे उपाय का पता चलेगा जिससे सरलता से सेना पार हो जाएगी, इसलिए सर्वश्रेष्ठ मार्ग यही है :

प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि 
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥ ५।५० ६ 

लेकिन फिर वही दूरीवाली बात आ गई। समुद्र की दूरी तो बाद में आती है पहले तो व्यक्तिओं की दूरी है। भगवान्‌ राम ने तो विभीषण का यह वाक्य सुनते ही तुरन्त उनका समाधान करते हुए कहा : 

सखा कहौ तुम्ह नीक उपाई। करिअ देव जौ होई  सहाई। ५/५०/१ 

मित्र! तुमने तो बहुत सुन्दर उपाय बताया और उसके साथ एक वाक्य प्रभु ने और जोड़ दिया कि “अगर देव सहायक होगा तो सफलता मिलेगी", जिससे ऐसा लगा कि विभीषण के समान भगवान राम शान्ति-नीति के समर्थक हैं, देववाद के समर्थक हैं या नियति की प्रबलता को स्वीकार करते हैं पर उसी समय बोल पड़े लक्ष्मण। फिर लक्ष्मण ओर विभीषण के व्यक्तित्व की दूरी को क्या आप साधारण दूरी समझते हैं? भगवान् राम के सामने दो भाई हैं- एक अपना भाई ओर एक शत्रु का भाई। संयोग से लक्ष्मण भगवान राम के छोटे भाई हैं तो विभीषण उनके शत्रु रावण का छोटा भाई है किन्तु दोनों भाइ्यो में हर दृष्टि से बड़ा अन्तर है। दोनों की पद्धति ही बिल्कुल अलग है। लक्ष्मण यदि भ्रातृ प्रेम के अनुपम प्रतीक है तो विभीषण को भ्रातृ-प्रेम की दृष्टि से कभी आदर्श नहीं माना गया बल्कि गोस्वामीजी तो दोहावली रामायण में कहते हैं कि लंका से लौटने के पश्चात्‌ भगवान राम ने जब भरत का विभीषण से परिचय कराया ओर भरत प्रेम से विभीषणसे मिलने के लिए चले तो उस समय विभीषण जी ने मन में बहुत संकोच अनुभव किया। गोस्वामीजी कहते हैं : 

राम सराहे, भरत उठि मिले राम सम जानि। 
तदपि विभीषण कीसपति तुलसी गरत गलानि ॥ दोहावली, २०८

यद्यपि भगवान्‌ राम ने उनका प्रशंसापूर्ण परिचय दिया था और भरत जी ने भी उसका सम्मान किया पर यह स्पष्ट दिखाई देता है कि उनके अन्तमन मे कहीं-न-कहीं अपने भाइयों का विरोध करने के कारण ग्लानि को भावना काम कर रही है। लक्ष्मणजी भगवान् राम का किसी भी परिस्थिति में परित्याग नहीं करते जबकि विभीषण के जीवन में उस प्रकार की विचारधारा नहीं थी। इतना ही नहीं विचार अथवा भावना की दृष्टि से भी दोनों में सर्वथा दूरी है। अगर विभीषण दैववाद के समर्थक हैं तो लक्ष्मणजी के जीवन में दैव कहीं निकट फटकने भी नहीं पाता। वे तो शुद्ध पुरुषार्थवादी हैं, पुरुषार्थं के समर्थक हैं, अतः उन्होंने भगवान राम की बात का विरोध करते हुए तुरंत कहा : 

मंत्र न यह लछमन मन भावा, राम बचन सुनि अति दुख पावा ॥ 
नाथ देव कर कवन भरोसा ५।५०।२ 

जो अनिर्चित है उस पर क्या व्यक्ति को विश्वास करना चाहिए? दैव का अभिप्राय उसके भरोसे बैठ अनिश्चितता को स्वीकार कर लेना है : ''नाथ दैव कर कवन भरोसा।'' जो पुरुषार्थविहीन व्यक्ति हैं वे देव का आश्रय लेते हैं पर आपके हाथ में यह धनुष-बाण किसलिए है? पुरुषार्थं का प्रतीक आपने यह शस्त्र उठा लिया है। ऐसी स्थिति में आप दैववाद का समर्थन कर रहे हैं : 

नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिञ सिधु करिअ मन रोसा ॥ ५।५०/२ 

यहाँ दो व्यक्ति आमने-सामने हैं पर पास होते हुए भी वे कितने दूरहैं, विचार की दृष्टि से, भावना की दृष्टि से किन्तु भगवान् राम किसके पक्ष में हैं? भगवान्‌ राम किस किनारे पर हैं?  भगवान राम किनारे पर नहीं है, वे तो दोनों किनारों को जोड़नेवाले है, सेत्‌ सेतु हैं। अतः, भगवान राम की जो सेतु-वृत्ति थी वह तुरत प्रकट हो गई। हो सकता था भगवान्‌ राम लक्ष्मणजी की बात स्वीकार कर लेते ओर कह देते कि तुम बिल्कुल ठीक कहते हो, हम धनुष-बाण के द्वारा समुद्र को पार करेंगे अथवा यह कह देते कि नहीं, देव ही सब कुछ है और  विभीषण ने बिलकुल ठीक कहा है; अतः, मैं उनकी बात को स्वीकार करूँगा परन्तु भगवान राम ने दोनों को जोड़ दिया। जोड़ने का तात्पर्य यह है कि जहाँ भी दूरी है, उस दूरी के बीच कहीं कोई एकता है या नहीं, इस पर विचार कीजिए। 

हमारी दृष्टि दूरी पर तो जाती है पर हममें वह कला नहीं है कि हम यह ढूँढ सकें कि दूरी के बीच एकता का कोई तत्त्व है या नहीं? जैसे मान लीजिए कि 'बुध' है ओर 'जन' है, इसलिए यह हो सकता है कि बुध ओौर जन में समझ की दृष्टि से अन्तर हो, क्षमता का अन्तर हो पर क्या कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है कि बुध ओर जन दोनों समान हों? अगर आप ऐसे क्षेत्र की खोज करेंगे तो आपको कुछ कम क्षेत्र नहीं मिलेगा। भूख के क्षेत्र में, प्यास के क्षेत्र में, मानसिक उपलब्धि के क्षेत्र में बुध ओर जन दोनों की वृत्ति समान है। ऐसा नहीं है कि बुध सुख न पाना चाहता हो और जन सुख पाना चाहता हो। अतः, इसका अभिप्राय यह है कि दोनों का जो केन्द्र है उसे जोड़ने की कला जो जानता हो वही सच्चे अर्थो मे अपने व्यक्तित्व के द्वारा सेतुत्व का निर्माण कर सकता है। भगवान्‌ श्री राम लक्ष्मण जी और विभीषण के कथन को इस दृष्टि से नहीं देखते कि दोनों के मत अलग-अलग हैं बत्कि वे इस दृष्टि से विचार करते है कि दोनों के अन्तःकरण में मेरे प्रति समान रूप से प्रगाढ़ प्रेम है। विभीषण जो सम्मति दे रहे है उसके पीछे भगवान्‌ श्री राम के प्रति अपार प्रेम और सद्‌भाव है, उनको ऐसा लगता है कि समुद्र को पार करने का सर्वोत्कृष्ट मार्ग यही है और जो लक्ष्मण कह रहे हैं उसके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या?| उनके हदय में जितनी प्रीति, जितनी व्याकुलता है वह अद्वितीय है। यद्यपि दोनों अलग-अलग बात कह रहे हैं किंतु दोनों का लक्ष्य एक ही है। दोनों के सामने सेतु को पार करने की समस्या है पर मतभेद इस बात पर है कि उसे पार कैसे किया जाए। इसलिए भगवान् श्री राम दोनों को जोड़ देते हैं। जब उन्होंने विभीषण का समर्थन और लक्ष्मण जी ने उनका विरोध किया तो उस समय विभीषण जी का मुँह कुछ उतर गया। एक तो वे नए-नए आए थे, यह्‌ पहली सम्मति थी, मंत्रिमण्डल में अभी-अभी सम्मिलित किए गए थे और लक्ष्मण जी जैसे तेजस्वी व्यक्ति ने जितने कठोर शब्दों में उनकी आलोचना की उससे विभीषणजी का मन थोड़ा छोटा हो जाए यह्‌ स्वाभाविक ही है। इससे उनके मन मे यही आया होगा कि वे अपने छोटे भाई को छोड़कर मेरी सम्मति को क्यों महत्त्व देंगे? लेकिन विभीषण का हृदय उस समय कितना विकसित हो गया, कितना आनन्दित हौ गया जब उन्होंने देखा कि भगवान राम ने उनके मत को स्वीकार कर लिया। शायद विभीषण इस बात को सोचकर चकित हो गए कि मैं सर्वथा नया व्यक्ति, शत्रु का छोटा भाई और ऐसी परिस्थिति में भी अपने छोटे भाई की तुलना में शत्रु के भाई के मत को इतना महत्त्व देना, इतना आदर देना श्री राम के अतिरिक्त शायद अन्य किसी के लिए सम्भव नहीं, पर लक्ष्मण को भी सन्तुष्ट करना भगवान्‌ राम जानते हैँ। अगर उन्होंने  विभीषणजी का समर्थन वाणी से किया था तो लक्ष्मण जी का समर्थन अपनी हँसी से किया। कोई बात पसन्द आ जाती है तो व्यक्ति को हँसी आ ही जाती है, यह आनन्द की अभिव्यक्ति है । लक्ष्मणजी की बात सुनकर मत तो स्वीकार कर रहे हैं विभीषण का पर उसके साथ ही जुड़ा हुआ है एक वाक्य और उस वाक्य के पहले: 'सुनत बिहसि,  पहले तो लक्ष्मण जी की बात सुनकर देर तक हँसते ही रहे, आनन्द लेते रहे और उसके पञ्चात तुरत बोले : 

सुनत बिहसि बोले रघुबीरा ऐसहि करब धरहु मन धीरा ॥ ५/५०।५ 

भाई, यही करेंगे, थोड़ा धैर्य धारण करो । इसका अभिप्राय है कि भगवान्‌ श्री राम दोनों के मत का समन्वय करना जानते हैं। इसके लिए वे कष्ट उठाते हैं। उन्हें यह ज्ञात है कि विभीषण के बताए हुए मार्ग से विलम्ब होगा। भगवान्‌ श्री राम को लगता है कि तीन दिन का विलम्ब भले ही हो जाए पर दो व्यक्तियों की दूरी तो मिट जाएगी। इन दोनों में एक-दूसरे के प्रति मैत्री ओर स्नेह का उदय हो और सचमुच विभीषण के प्रति लक्ष्मण के मन में अपरिमित अपनत्व उदित हो गया। प्रारम्भ में इतना गहरा मतभेद ओर बाद में? यदि आप गीतावली रामायण पढ़ें तो उसमें वर्णन आता है कि लक्ष्मण जी को जो शक्ति लगी वह्‌ मेघनाद ने उन्हें लक्ष्य करके नहीं चलाई थी। वस्तुतः विभीषण को देखकर उसे क्रोध आ गया था और उसने सोचा कि यही व्यक्ति हमारे सारे कष्ट का कारण है, सारे रहस्य बतानेवाला है, इसलिए पहले इसे नष्ट किया जाए और बाद में इन दोनों राजकुमारों को देखूँगा। जब मेघनाद की फेंकी हुई शक्ति विभीषण की ओर चली तो उस समय कोई सामने नहीं आया । लेकिन धन्य हैं श्री लक्ष्मण। सचमुच श्री राम ने विभीषण को जितना महत्त्व दिया उससे उनके अन्तःकरण में ईर्ष्या उत्पन्न नहीं हुई। यदि किसी व्यक्ति के मत को अधिक महत्त्व दिया जाए तो कभी-कभी निकट के व्यक्तियों से भी दूरी आ जाती ह । संसार में अधिकांश व्यक्ति निकटवालों को भी दूर बनाने की कला में निपुण होते हैं। वे अपने व्यवहार से परिवार से, समाज में ओर निकटवालों में द्वेष की सृष्टि कर दूरी उत्पन्न कर देते हैं। ऐसा लगता है कि भगवान राम के आसपास जितने व्यक्ति हैं उन सबके व्यक्तित्व में इतनी बड़ी दूरी है कि शायद वे कभी मिल ही न पाएँ, उनमे कभी समता न हो पाए पर भगवान राम की विशेषता है ऐसी प्रेरणा दे देना जिससे आज लक्ष्मण के मन में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि मेरे जीवित रहते विभीषण की मृत्यु नहीं हो सकती, मैं विभीषण को नहीं मरने दूँगा उन्होंने तुरत विभीषण को पीछे ढकेल दिया और उस शक्ति को अपनी छाती पर ले लिया। भगवान् श्री राम ने जब यह्‌ समाचार सुना तो लक्ष्मण के मूर्छित शरीर को हृदय से लगाकर प्रभु, ने आँसू भरकर यही कहा कि लक्ष्मण तुमने मेरा व्रत सार्थक कर दिया : 

मोरेपन की लाज यहाँ लगि निज प्रिय प्राण दये हैं। 
लागत सांग बिभीषण ही पर सीपर आप भये हैं \ विनयपत्रिका, ६।५ 

श्री लक्ष्मण ओर विभीषण के व्यवितित्व की दूरी मिटा देना ही सेतु का कार्य है। पत्थर का पुल बनाना उतना कठिन नहीं जितना कि व्यक्तियों के बीच की दूरी को पाट देना है। भगवान्‌ राम ने ऐसा ही समन्वय किया। वे समुद्र के किनारे अनशन करने के लिए बैठ गये.और अनशन भी किया तो कैसे किया- तीन दिन तक ञ्जनशन किया: बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति ॥ ५५७ और फिर- 'बोले राम सकोप तब।' शांति आवश्यक है कि क्रोध? आपको दोनों के समर्थक मिल जाएँगे । कुछ लोग इतने उग्रवादी होते हैं कि हर समय क्रोध का ही समर्थन करते हैं ओर कुछ लोग इतने शान्तिवादी होते है कि सर्वदा निष्क्रियता की ही बात किया करते है। इन दोनों में से भगवान राम किसके समर्थक हैं? वे तो सेतुहैं और सेतु का काम किसी एक के पक्ष मे रहना नहीं है। भगवान्‌ श्री राम तीन दिन तक प्रतीक्षा करते हैं और इसका अभिप्राय है कि जीवन में अगर दोनों वृत्तियाँ हैं तो शान्ति ओर क्रोध दोनों का सदुपयोग करना चाहिए और  उसका सदुपयोग यह् है कि हम शान्ति के द्वारा दूसरे के अन्तःकरण में प्रेरणा उत्पन्न करने की चेष्टा करें। अगर शान्ति के द्वारा कार्य सम्पन्न नहीं होता तो फिर रोष की भी आवश्यकता होती है। अतः, भगवान्‌ श्री राम ने तुरत कहा-  'बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब... ॥ १५/५७ 

ये शब्द भगवान्‌ राम के चरित्र के परिचायक हैं। दूसरा व्यक्ति श्री राम पर हँस सकता है कि अन्त में आपको भी तो क्रोध ही करना पड़ा पर भगवान् राम तोड़ने के लिए नहीं, जोड़ने के लिए क्रोध कर रहे हैं। भगवान् राम का वाक्य बताता है कि उनका दर्शन बड़ा अनूठा है। व्यक्ति शान्ति चाहेगा समझौते के लिए ओर क्रोध करेगा तोड़ने के लिए किंतु भगवान्‌ राम कहते हैं कि मैं समुद्र पर क्रोध करूँगाक्योंकि : 'बोले राम सकोप तब भय बिनु होई न प्रीति ॥ ५/।५७' करनी तो प्रीति ही है पर कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो प्रीति से प्रीति नहीं करते, भय से प्रीति करते हैं। तो चलो भई, लक्ष्य तो हमारा भी प्रीति ही है, चाहे कोई भय से प्रीति करे, सद्भाव से प्रीति करे या चाहे प्रलोभन से प्रीति करे प्रीति का लक्षण है एक-दूसरे को जोड़ना। भगवान् राम उस समय लक्ष्मणजी की ओर देखते हैं और कहते हैं : 'लछमन बान सरासन आनू ।' ५/५७।१ लक्ष्मण जरा धनुष-बाण तो ले आओ।  लक्ष्मणजी बड़े प्रसन्न हुए और उनको बड़ा सन्तोष मिला कि चलो, भगवान्‌ राम ने अधिक समय नहीं केवल तीन ही दिन व्यतीत किए ओर चौथे दिन् माने । चौथे दिन के चुनाव का तात्पर्य यही है कि यदि सात दिनों का बँटवारा किया जाए तो तीन दिन एक ओर और तीन दिन दूसरी ओर होंगे। बीच का चौथा दिन ही ऐसा है जो दोनों के ठीक मध्य में रहता है। यह चौथे दिनवाली बात  बड़ी सार्थक है। भगवान्‌ श्री राम चौथे दिन ही क्रोध करते हैं और क्रोध करने के पश्चात कौन जीता-  विभीषण या लक्ष्मण? अगर भगवान्‌ श्री राम अनशन ही करते रह जाएँ तो समझ लीजिए कि विभीषण के मत पर स्थिर हो गए और यदि समुद्र को सुखा दें तो लक्ष्मण के मत की जीत हो गई किन्तु दोनों में से एक को थोड़े ही जिताना है, दोनों को जिताना है। और आगे लगा कि ये तो दोनों के समर्थक थे किन्तु बात तीसरी ही भगवान राम के मन में थी और दिखाई यह दे रहा था कि वे दोनों का समर्थन कर रहे हैं। इसका पता तब चला जब धनुष पर बाण चढ़ा दिया तो उसे सुखा देना चाहिए। लक्ष्मणजी का तो यही मत था, पर भगवान राम ने वैसा नहीं किया। धनुष पर बाण चढ़ा लिया, पर रुके हुए हैं। बस, ज्यों ही प्रभु ने धनुष पर बाण चढ़ाया : 'संधानेउ प्रभु बिसिख कराला । उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ॥ मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने ॥ ५।५७/६''¦ भगवान्‌ श्री राम कै सामने प्रश्न है कि समुद्र को तो सुखाया जा सकता है किन्तु समुद्र के जलचर भी तो विनष्ट हो जाएँगे। विनष्ट कर देने की इस प्रक्रिया से केवल मेरे उद्देश्य की पूर्ति होगी, लेकिन कितने प्राणियों का व्यर्थ हनन होगा ! ये बेचारे किंस अपराध के दोषी हैं कि इन्हें विनष्ट किया जाए। समुद्र भयभीत होकर भगवान्‌ राम के सामने आ जाता है। 

उस समय भगवान राम और समुद्र के बीच जो वार्तालाप होता है वह बड़ा सार्थक वार्तालाप है। समुद्र ने भगवान राम से कहा कि महाराज, आपके हाथ में धनुष-बाण देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है ओर विशेष रूप से जब कि आपने धनुष पर बाण चढ़ा लिया है। क्या महाराज सचमुच आपने मुझे सुखाने के लिए बाण चढ़ाया है? समुद्र रहस्य को समझ गया था । समुद्र ने कहा कि महाराज! अगर आपने मुझे सुखाने के लिए ऐसा किया है, और लोग ऐसा समझते हों तो भी मैं नहीं मानता; क्योंकि मुझे सुखाने के लिए क्या आपको भी धनुष-बाण चलाना पड़ेगा? ईश्वर सृष्टि का निर्माण संकल्प से करता है, संकल्प से ही उसकी सृष्टि का विनाश हो जाता है। अतः, आपने चाहा और मेरा निर्माण हो गया और आप चाहेंगे तो मैं सूख जाऊँगा। महाराज! यदि आप सचमुच मुझे सुखाना चाहते होते तो केवल सोचते, धनुष पर बाण न चढ़ाते। इसी से पता चल गया कि आप नाटक ही कर रहे हैं और इससे अधिक कुछ नहीं कर रहे हैं। ठीक है, आपने अच्छा ही किया। आपने अच्छे अभिनय का परिचय दिया। लेकिन प्रभु! अगर आप मुझे सुखाना चाहें तो संकल्प से सुखा दीजिए। मानवीय लीला में आप मुझे सुखाना चाहें तो बाण से सुखा दीजिए, लेकिन एक उपाच और है। गोस्वामी जी कहते हैं कि समुद्र ने इतने मर्म की बात कही कि भगवान्‌ राम बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि समुद्र ने ऐसी बात कही जो श्री राम के व्यक्तित्व क दर्शन थी, व्यक्तित्व के अनुकूल थी। समुद्र ने कहा कि महाराज! आपके गौरव की महिमा और प्रतिष्ठा तब होगी जब आप संकल्प से मुझे सुखाकर सारी सेना को पार उतार दें, और दूसरा उपाय यह है कि आप मेरे ऊपर सेतु का निर्माण करें। समुद्र ने मानो उस महामन्त्र को पकड़ लिया जो भगवान राम का व्यक्तित्व है, उनके व्यक्तित्व का दर्शन है।आप मेरे ऊपर सेतु का निर्माण करें और सेतु के निर्माण में बंदरों  का ओर मेरा सहयोग लें।

अब एक ओर तो समुद्र स्वयं चंचल है, उसकी लहरें बड़ी तीव्र हैं और यदि उसमें कोई वस्तु डाली जाये तो लहर उसे दूर फेंक देगी ओर दूसरी ओर बन्दर भी अत्यन्त चंचल हैं, अत्यन्त क्षुद्र और अत्यन्त छोटे हैं पर समुद्र कहता है कि या तो आप मेरी और बन्दरों की सहायता से सेतु का निर्माण कीजिए और उसके माध्यम से सेना पार हो जाएँ या फिर दूसरा उपाय यह्‌ है कि आप मुझे सुखाकर चले जाइए । यदि आप मुझे सुखाकर चले जाएँगे तो इससे मेरा बड़प्पन नष्ट हो जाएगा। भगवान राम ने कौन सा मार्ग चुना? उन्होंने अपने बड़प्पन का मार्ग नहीं चुना। उनका जो प्रिय मार्ग था वही समुद्र ने बता दिया। भगवान्‌ श्री राम ने तुरत कहा कि आपने तो बड़ी सुन्दर बात कही, अब आप बताएँ कि सेना कैसे पार हो? उसके पश्चात भगवान श्री राम द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण हुआ। एक तो समुद्र पर असम्भव को सम्भव करने की चेष्टा और असम्भव को भी साध्य बनाया उन बन्दरों के द्वारा जो कि हर दृष्टि से हीन माने जाते हैं।

कई बार लोग प्रश्न किया करते हैं कि भगवान्‌ राम लंका के विरुद्ध युद्ध करना चाहते थे तो उन्होंने अयोध्या से सेना क्यों नहीं बुला ली? भगवान श्री राम कोई उत्तर-दक्षिण का युद्ध थोड़े ही लड़ रहे थे। वस्तुतः, भगवान्‌ श्री राम तो यह बताना चाहते थे कि रावण शरीर की दृष्टि से जिनके सन्निकट है उनके और अपने बीच दूरी पैदा कर देता है। अपनों के बीच दूरी पैदा करना, दूसरों के बीच दूरी पैदा करना ही रावण की सबसे बड़ी सफलता है। अपने छोटे भाई विभीषण को अपने से दूर कर दिया ओर भगवान राम की प्रिया सीताजी को भी उनसे दूर करने की चेष्टा की। ऐसी स्थिति में भगवान्‌ राम तो यह बताना चाहते थे कि लंका पर विजय प्राप्त करने के लिए किसी विशिष्ट व्यक्ति की आवश्यकता नहीं। इसका अभिप्राय है कि अगर विशिष्ट व्यक्ति के जीवन मे विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा कोई बड़ा काम ले लिया जाए तो यह्‌ सफलता नहीं। भगवान राम यह्‌ दिखाना चाहते थे कि जो क्षुद्र माने जाते हैं, चंचल माने जाते हैं वे, भी महान कार्य कर सकते हैं और सचमुच भगवान श्री राम ने समुद्र पर सेतु का निर्माण कराया बन्दरों के द्वारा किन्तु उसके बाद एक बड़ा विनोद-भरा प्रसंग आ गया। जब सेतु का निर्माण हो गया तो जाम्बवान जी ने कहा कि महाराज! सेतु तो बन गया पर समुद्र विशाल है, सेतु छोटा है, समय तो लगेगा सेना को पार होने में, पर लोग उतावले हो रहे हैं पार जाने के लिए। अतः, भगवान्‌ श्री राम ने एक सेतु का स्वयं ही निर्माण किया और वे उसका निर्माण करते हैं अपने सौंदर्य के द्वारा। रामचरित मानस में बताया गया है कि भगवान राम का नाम भी सेतु है, भगवान राम का रूप भी सेतु है, भगवान्‌ राम का चरित्र ओर भगवान की कथा भी सेतु है, भगवान्‌ राम का धाम भी सेतु है। अलग-अलग प्रसंगों में भगवान राम की उन विशेषताओं की सेतु के रूप में कल्पना की गई है और इसी प्रसंग में जाम्बवान जी ने भगवान्‌ श्री राम के लिए वाक्य जोड़ा : 'नाथ नाम तव सेतु नर चह भव सागर तरहि ॥ ६।०३ आपका नाम भी तो भव-सेतु है। इसके पश्चात्‌ राम के सौंदर्य का सेतु सामने आया। क्षत्रिय राम का सौन्दर्य कैसा है?जोड़ने वाला, मिलाने वाला है। भगवान्‌ राम जब पत्थर के पुल पर जाकर खड़े हुए तो समूद्र के जितने जलचर थे वे सबके सब ऊपर आ गए, अगर प्रभु श्री लक्ष्मणजी की बात मान लेते और समुद्र को सुखा देते तो जलचर नष्ट हो जाते लेकिन भगवान राम बताना चाहते थे कि लंका के युद्ध में ये जलचर भी सहायक बन सकते हैं जो बिलकुल अनुपयोगी लगते थे पर वे जल जन्तु भी इस युद्ध अभियान में सहायक बन सकते हैं, इसलिए भगवान्‌ श्री राम एक नये दृश्य का दर्शन कराते हैं : देखन कहूं प्रभु करुना कदा। प्रगट भये सब जलचर बदा ६।३।३ < >< तिन्ह कीं ओट न देखिअ बारी) मगन भए हरि रूप निहारी॥ ६/३।८ भगवान्‌ राम ने कहा कि मित्रो! अब तो पुल ही पुल है, चाहे जिधर से पार हो जाइए कोई समस्या नहीं है। कहीं जल दिखाई नहीं दे रहा है। बन्दर थोड़ा भयभीत हुए, क्योंकि उन्होंने अपने पुरुषार्थ से जो पुल बनाया था वह बड़ा सुदृढ़ लग रहा था, किन्तु जलचरोंका पुल भी पुल हो सकता है, इस पर सन्देह होने लगा। उनके मन में आशंका थी कि अभी तो ये जल-जन्तु ऊपर आ गये हैं पर पैर रखते ही अगर ये नीचे डूब जाएँ तो हम क्या करेंगे? भगवान राम ने कहा कि अच्छा, आप लोग परीक्षा करके देखिए, तो गोस्वामी जी ने लिखा : प्रभुहि बिलोकहि टरहि न टारे। ६।३/७ यही तो व्यक्तित्व का आकर्षण है। मनुष्यों का तो कहना ही क्या, पशु-पक्षी भी भगवान राम की ओर आकृष्ट होकर आ गए। यह वर्णन बीच में आया है, और फिर जलचरों के आकर्षण का उल्लेख किया गया है। जब भगवान राम को देखते हुए इन जलचरों के ऊपर पत्थर अथवा वृक्ष डाला जाता तो उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था : प्रभुहि बिलोकहि टरहिं न टारे। मन हरिषत सब भए सुखारे॥ ६।३/७ हृदय में इतना आनन्द आ रहा है उसका अभिप्राय क्या है? अभी तक जल में डूबे रहने वाले इस समय श्री राम के सौन्दर्यं के अमृत में दूबकर धन्य हो रहे हैं। भगवान राम ने कहा : अब सेना पार हो जाए। सेतु ब॑ध भई भौर अति कपि नभ पंथ उड़ाहि। अपर जलचर मँह ऊपर चढ़ि चढ़ि जाहि।। ६/४ जब प्रत्येक व्यक्ति मनमाने मार्ग से पार कर रहा था उस समय जांबवान जी से नहीं रहा गया, उन्होंने भगवान राम से कहा कि जब इतनी सरलता से आप इतना बढ़िया पुल बना सकते थे तो आपने बन्दरों से पुल क्यों बनवाया, इतना परिश्रम क्यों कराया? भगवान्‌ राम ने तुरन्त उत्तर दिया कि यह्‌ जो सेतु मैंने बनाया है, उसे आप लोगों ने देखा कि कहाँ बनाया है? आप लोगों ने ऊपर ही देखा, पुल देखा, किन्तु यह नहीं देखा कि वह क्यों-कैसे बना? मेरे मुख को आप लोगों ने देखा लेकिन मेरे चरण को नहीं देखा। अगर आप लोगों ने पत्थर का पुल न बनाया होता तो कहाँ खड़े होकर मैं नया पुल बनाता? इसका अभिप्राय है कि ईश्वर कहता है कि पहले अपने पुरुषार्थ का पुल बनाओ, उसके पश्चात्‌ कृपा का पुल हम बना देंगे। इतना आधार तो तुम दो भाई! जो क्षमता तुम्हें मिली हुई है उसका सदुपयोग तो तुम करो, फिर तुम्हारे संकल्प की आधार-भूमि पर खड़े होकर मैं निर्माण करूँगा और तिस पर प्रभु की विशेषता क्या है? अगर प्रभु अपने चमत्कार से सारे कार्य कर दें तो मनुष्य में निष्क्रियता आ जाएगी और सारे कार्य पुरुषार्थ से ही सम्पन्न हो जाने दें तो मनुष्य में अहंकार आ जाएगा । दोनों ओर बड़ा संकट है। अगर व्यक्ति हर समय सफल-ही-सफल होता रहे तो अहंकारी बने बिना नहीं रहेगा और व्यक्ति कुछ न करे और बिना कुछ किए ही सफल होता रहे तो निष्क्रियता आ जाएगी। अतः, भगवान राम दोनों का सन्तुलन करते हैं। पहले पुरुषार्थ कराते हैं और उसके पश्चात अपनी कृपा का दर्शन कराते हैं और कृपा के दर्शन के साथ-साथ प्रत्येक बन्दर के मन में यह्‌ भावना उत्पन्न कर देना चाहते हैं कि वह महान कार्य करने वाला है।

जब भगवान्‌ राम ने पुल पार किथा तो जाम्बवान जी का ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट किया और कहा, जाम्बवान जी आपने देखा कि बन्दर तो मेरे बनाए पुल से पार हुए पर मैं तो आप लोगों के बनाए पुल से पार हुआ, इसलिए हमारा आपका नाता बराबरी का ही है। आप हमारे लिए सेतु बनायें, हम आपके लिए सेतु बनाएँ और इस प्रकार दोनों एक-दूसरे के सन्तरण के माध्यम बन सके। भगवान श्री राम ने सेतु का निर्माण करा कर सेना को पार कर दिया और इसीलिए गोस्वामी जी ने सुन्दरकाण्ड के अन्त में जो फल का दोहा लिखा उसमें वे कहते हैं : सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। सादर सुनहि ते तरहि भव सिंधु बिना जल जान। ५/६० सुन्दरकाण्ड की यह कथा जो सुने वह पार हो जाए। किसी ने कहा कि महाराज! यह तो रामायण भर में आपने बार-बार कहा कि पार हो जाए, पार हो जाए, यहाँ कोई नई विशेषता है वया? हाँ, एक विशेषता है : सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। सादर सुर्नाहि ते तरहि भव सिंधु बिना जल जान॥। ५/६० जहाज के द्वारा समुद्र पार करते तो आपने देखा होगा पर क्या बिना जहाज के भी किसी को पार उतरते देखा है? इसका सांकेतिक तत्त्व है- जहाज । गोस्वामीजी ने नाव और मल्लाह का प्रतीक बनाया है। नाव है विद्या और विद्वान्‌ है मल्लाह : केवट बुध विद्या बड़ नावा। २।२७५।४ विद्या बड़ी नौका है भौर बुध जन मल्लाह है। मगर संकेत यह है कि जब तक समुद्र को जहाज या नौका के द्वारा पार करना है तब तक बुध ओर विद्यावाला व्यक्ति ही हमें पार उतार सकता है, ऐसा प्रतीत होता है। लेकिन गोस्वामीजी विश्वास दिलाते हैं कि आप समुद्र को पार कर लेंगे पर अब आपको जहाज की आवश्यकता नहीं। मानो गोस्वामीजी संकेत करना चाहते हैं कि जब श्री राम स्वयं सेतु का निर्माण कर रहे हैं तो क्या आवश्यकता है कि हम जहाज ढूँढें, क्या आवश्यकता है कि हम नौका को या मल्लाह को ढूँढें। श्रीराम के व्यक्तित्व के सेतु के माध्यम से- चाहे वह नाम का सेतु हो, चाहे रूप का सेतु हो, चाहे चरित्र का सेतु हो- हम इस दूरी को पार कर सकते हैं। अगर गोस्वामीजी की आध्यात्मिक भाषा में कहें तो मनुष्य के अन्तःकरण में : अभिमान सागर भयंकर घोर विपुल अवगाह दुस्तर अपारम्‌। विनयपत्रिका, ५८।। देहाभिमान का समुद्र लहरा रहा है। गोस्वामीजी कहते हैं कि श्री राम का जो चरित्र है, व्यक्तित्व है उससे बढ़कर इस कार्य को करने में कोई सफल नहीं। गुरु विश्वामित्र और वरिष्ठ जनों द्वारा इन दोनों उपाधियों के दिए जाने के पीछे तात्पर्य है कि शिष्य को योग्यता का प्रमाणपत्र तो गुरु ही दे सकता है और ये दोनों बड़े कड़े परीक्षक हैं। गुरु वशिष्ठ जितने कड़े परीक्षक हैं उससे सौ गुना अधिक कड़े परीक्षक हैं विश्वामित्र जी। पर दोनों के मुँह से श्री राम के लिए एक ही उपाधि निकली। दोनों ने कहा कि श्रीराम तुम तो सेतु हो। वस्तुतः, जब दोनों ने भगवान राम को सेतु कहा तो यह गुरु के रूप में भगवान श्री राम के व्यक्तित्व की व्याख्या थी।

हम चाहें तो यों भी कह सकते हैं कि इन दोनों महापुरुषों के मन में एक ही बात क्यों आई? उसका रहस्य यह था कि ये दोनों महात्मा भी नदी के दो किनारों की तरह एक-दूसरे से इतनी दूर थे कि अगर भगवान राम सेतु के रूप में न आते तो ये दोनों मिल ही न पाते। विश्वामित्र और वशिष्ठ के संघर्ष के बारे में आपने पुराणों में पढ़ा होगा, सुना होगा। इतना बड़ा झगड़ा- दो महापुरुष, दोनों महान तपस्वी, दोनों योग्य पर इसका अभिप्राय क्या है? दोनों के बीच बड़ी भारी दूरी थी और वह दूरी इतनी बदी थी कि एक ओर तो रावण द्वारा समाज में अत्याचार हो रहा था और दूसरी ओर इतने बड़े-बड़े महापुरुष थे, जिनमें तपस्या की इतनी बड़ी शक्ति थी पर जो आपस में संघर्षशील थे। चुनाव भी भगवान श्री राम ने कैसा किया- गुरु बनाया तो एक को नहीं, दो को बनाया जो आपस में विरोधी थे। विश्वामित्र और वशिष्ठ में इतना विरोध है, पर भगवान राम से पूछा जाए कि आपके गुरु कौन हैं तो वे एक ओर गुरु वरिष्ठ के चरणों में देखते हैं और दूसरी ओर विश्वामित्र के। जब भगवान राम सीताजी से विवाह करके लौटे तो उसका सबसे बड़ा आनन्द यह था कि उक्त दोनों महात्मा भी साथ-साथ अयोध्या लौटे। इन दोनों महात्माओं का अयोध्या में मिलन इस सेतु के माध्यम से हुआ और सबसे अधिक आनन्द कब आया? विश्वामित्र जी चाहते थे कि एक बार वशिष्ठजी जीवन में मुझे ब्रह्मर्षि कह दें और वशिष्ठजी इस विषय में इतने दृढ़ और कठोर बने हुए थे कि सारा संसार कह दे किन्तु मैं नहीं कहूँगा। इतना विरोध कि अपनी तपस्या की शक्ति दिखाने के लिए विश्वामित्र ने क्रोध में आकर वशिष्ठ के पुत्र को जला दिया। जरा कल्पना कीजिए कितनी बड़ी दूरी दोनों में उत्पन्न हो गई होगी। कितनी ही दुर्घटनाएँ हुईं इस बीच जिनकी अनगिनत गाथाएँ पुराणों में हैं लेकिन आज क्याहै? विवाह के दूसरे दिन जब अयोध्या लौटकर आए तो सभा में गुर वशिष्ठ कथा सुनानेवाले आसन पर बैठे। लोगों ने सोचा कि आज गुरुदेव शायद विवाह की कथा सुनाएँगे कि कैसे जनकपुर में श्री राम-सीता का विवाह सम्पन्न हुआ किन्तु गोस्वामीजी ने कहा कि वशिष्ठजी ने आज विवाह की कथा नहीं सुनाई बल्कि : सुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बशिष्ठ बिपुल बिधि बरनी॥ १।२३५८/६ विश्वामित्रजी का चरित्र सुनाने लगे। बोले : विवाह में सारा श्रेय तो महर्षि विश्वामित्र जैसे सन्त को है। इन्हीं के द्वारा विवाह सम्पन्न हुआ और वे कितने महान तपस्वी हैं कि इतना महान कार्य किया। जो तीन अक्षर का एक शब्द नहीं कह पाता था वह कथा के आसन पर बैठकर लगा भूरि-भूरि प्रशंसा करने। सारी अयोध्या में आनन्द छा गया। लोग प्रसन्न हुए कि दो महापुरुषों में जो दूरी थी आज वह मिट गई किन्तु सबसे अधिक आनन्द आया : सुनि आनन्दु भयउ सत॒ काहू । राम लखन उर अधिक उछाहू॥ १/३५०८/८ भगवान राम ने लक्ष्मण की ओर और लक्ष्मण ने भगवान की ओर देखा। दोनों का संकेत यह था कि जैसे हम दोनों की जोड़ी है इसी तरह दोनों गुरुओं की भी जोड़ी बन गई। चलो, अब झगड़े की कोई बात नहीं रही। हमारे-तुम्हारे स्वभाव में भी तो भिन्नता है। अगर बहिरंग दुष्ट से होता तो हममें-तुममें बड़ी दूरी होती पर हम दोनों में जैसे दूरी नहीं, स्नेह है जो हम दोनों को जोड़ हुए है उसी प्रकार आज हमारे दोनों गुरु भी स्नेह-बन्धन में आबद्ध हो गए। सचमुच श्री राम॒ का सेतुत्व अनोखा है। भगवान राम तो जहाँ गए उन्होंने इस प्रकार से सेतु बनाकर सारे समाज को एक- दूसरे के निकट ला दिया। इसकी चर्चा हम अगले प्रवचन में करेंगे।

॥ श्री रामः शरणं मम ॥