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शनिवार, 18 मई 2024

मई १८, छंद रसाल, छंद सुमित्र, आँख, दोहा, यमक, जान, मुक्तक, मुक्तिका, अलंकरण

सलिल सृजन मई १८
*
- : विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर : -
- : अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२३-२४ : -
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२३-२४ हेतु प्रविष्टियाँ आमंत्रित की जा रही हैं।

वर्ष २०२३-२४ में अलंकरणों हेतु निम्नानुसार प्रविष्टियाँ (गत ५ वर्षों में प्रकाशित पुस्तक की २ प्रतियाँ, पुस्तक तथा लेखक संबंधी संक्षिप्त विवरण, संस्थान का निर्णय मान्य होने का सहमति पत्र प्रथक कागज पर तथा सहभागिता निधि ३०० रु., संयोजक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सभापति, विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१, विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वाट्सऐप ९४२५१ ८३२४४ पर आमंत्रित हैं। अचयनित प्रविष्टिकारों को सम्मान पत्र वाट्स एप से भेजें जाएँगे।

प्रविष्टि प्राप्ति हेतु अंतिम तिथि ३० जून २०२४ है। सहभागिता निधि वाट्सऐप ९४२५१८३२४४ पर भेज कर अपने नाम व वाट्स एप क्रमांक सहित स्नैपशॉट भेजिए।

अलंकरण

०१. शांतिराज हिन्दी रत्न अलंकरण, ११,००१ रु.समग्र साहित्यिक अवदान, पद्य। सौजन्य : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', जबलपुर।
०२. परम ज्योति देवी हिन्दी रत्न अलंकरण, ११,००१ रु. समग्र साहित्यिक अवदान, गद्य। सौजन्य : इं. ओम प्रकाश यती, नोएडा।

०३. शकुंतला अग्रवाल नवांकुर अलंकरण, ५५०१ रु. प्रथम कृति (प्रकाशन वर्ष २०२२ से २०२४)। सौजन्य : श्री अमरनाथ अग्रवाल जी, लखनऊ।
०४. राजधर जैन 'मानस हंस' अलंकरण, ५००१ रु., समीक्षा, मीमांसा । सौजन्य : डाॅ. अनिल जैन जी, दमोह।
०५. जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' हिंदी भूषण अलंकरण,५१०० रु., निबंध / संस्मरण / रेखाचित्र / यात्रावृत्त / पत्र, / । सौजन्य : सुश्री अस्मिता शैली जी, जबलपुर।
०६. धीरेन्द्र खरे स्मृति हिंदी भूषण अलंकरण, ५१०० रु., उपन्यास। सौजन्य : श्रीमती वसुधा वर्मा, श्री रचित खरे, श्री विभोर खरे।
०७. डॉ. दिनेश खरे स्मृति हिंदी भूषण अलंकरण, ५१००/-, महाकाव्य, सौजन्य श्रीमती निशा खरे।

०८. कमला शर्मा स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१०० रु., हिंदी गजल (मुक्तिका, गीतिका, तेवरी, सजल, पूर्णिका आदि)। सौजन्य : श्री बसंत कुमार शर्मा जी, बिलासपुर।
०९. सिद्धार्थ भट्ट स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., लघु कथा, बोध कथा, बाल कथा, दृष्टांत कथा आदि। सौजन्य : श्रीमती मीना भट्ट जी, जबलपुर।
१०. डाॅ. शिवकुमार मिश्र स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., छंद (भारतीय/अभारतीय)। सौजन्य : डाॅ. अनिल वाजपेयी जी, जबलपुर।
११. सुरेन्द्रनाथ सक्सेना स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., गीत, नवगीत। सौजन्य : श्रीमती मनीषा सहाय जी, जबलपुर।
१२. डॉ. अरविन्द गुरु स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१०० रु., कविता। सौजन्य : डॉ. मंजरी गुरु जी, रायगढ़।
१३. विजय कृष्ण शुक्ल स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१०० रु., व्यंग्य लेख। सौजन्य : डॉ. संतोष शुक्ला।
१४. शिवप्यारी देवी- बेनी प्रसाद स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१०० रु.। बाल साहित्य (गद्य,पद्य, एकांकी), सौजन्य : डॉ. मुकुल तिवारी,जबलपुर।
१५. डॉ. सोम भूषण लाल स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१०० रु., सौजन्य श्रीमती माया श्रीवास्तव, भोपाल।
१६. ....... स्मृति हिदी गौरव अलंकरण, २१००/-, आत्म कथा, जीवनी, कार्यवृत्त आदि सौजन्य डॉ. इला घोष,जबलपुर।


१७. सत्याशा साहित्य श्री अलंकरण, ११०० रु., लोक भाषा साहित्य। सौजन्य : डा. साधना वर्मा जी, जबलपुर।
१८. रायबहादुर माताप्रसाद सिन्हा साहित्य श्री अलंकरण, ११०० रु., राष्ट्रीय देशभक्ति साहित्य। सौजन्य : सुश्री आशा वर्मा जी, जबलपुर।
१९. कवि राजीव वर्मा स्मृति कला श्री अलंकरण, ११०० रु., गायन-वादन -चित्रकारी आदि। सौजन्य : आर्किटेक्ट मयंक वर्मा, जबलपुर।
२०. सुशील वर्मा स्मृति समाज श्री अलंकरण, ११०० रु., वानिकी, पर्यावरण व समाज सेवा। सौजन्य : श्रीमती सरला वर्मा भोपाल।
२१. अतुल श्रीवास्तव स्मृति साहित्य श्री अलंकरण, ११०० रु., धर्म, योग, आध्यात्म, दर्शन। सौजन्य : श्रीमती तनुजा श्रीवास्तव, रायगढ़।
२२.

साक्षात्कार, व्याकरण, पुरातत्व, पर्यटन, आत्मकथा, तकनीकी लेखन, विधि, चिकित्सा, कृषि आदि क्षेत्रों की श्रेष्ठ कृतियों पर सम्मान तथा पुस्तकोपहार प्रदान किए जाएँगे।
•••
अलंकरण स्थापना
अनुवाद, तकनीकी लेखन, विधि, चिकित्सा, आध्यात्म, हाइकु (जापानी छंद), सोनेट, रुबाई, कृषि, ग्राम विकास, जन जागरण तथा अन्य विधाओं में अपने पूज्यजन /प्रियजन की स्मृति में अलंकरण स्थापना हेतु प्रस्ताव आमंत्रित हैं। अलंकरणदाता अलंकरण निधि के साथ ११००/- (सहभागिता निधि) अपना नाम व वाट्स एप क्रमांक ९४२५१८३२४४ पर स्नैप शाॅट सहित भेजें।

टीप : उक्त अनुसार किसी अलंकरण हेतु प्रविष्टि न आने अथवा प्रविष्टि स्तरीय न होने पर वह अलंकरण अन्य विधा में दिया अथवा स्थगित किया जा सकेगा। अंतिम तिथि के पूर्व तक नए अलंकरण जोड़े जा सकेंगे।

पुस्तक प्रकाशन
कृति प्रकाशित कराने, भूमिका/समीक्षा लेखन हेतु पांडुलिपि सहित संपर्क करें। संस्था की संरक्षक सदस्यता (सहयोग निधि १ लाख रु.) ग्रहण करने पर एक १५० पृष्ठ तक की एक पांडुलिपि का तथा आजीवन सदस्यता (सहयोग निधि २५ हजार रु.) ग्रहण करने पर ६० पृष्ठ तक की एक पांडुलिपि का प्रकाशन समन्वय प्रकाशन, जबलपुर द्वारा किया जाएगा। संरक्षकों का वार्षिकोत्सव में सम्मान किया जाएगा।

पुस्तक विमोचन
कृति विमोचन हेतु कृति की ५ प्रतियाँ, सहयोग राशि २१०० रु. रचनाकार तथा किताब संबंधी जानकारी ३० जुलाई तक आमंत्रित है। विमोचित कृति की संक्षिप्त चर्चा कर, कृतिकार का सम्मान किया जाएगा।

वार्षिकोत्सव, ईकाई स्थापना दिवस, किसी साहित्यकार की षष्ठि पूर्ति, साहित्यिक कार्यशाला, संगोष्ठी अथवा अन्य सारस्वत अनुष्ठान करने हेतु इच्छुक ईकाइयाँ / सहयोगी सभापति से संपर्क करें।

नई ईकाई
संस्था की नई ईकाई आरंभ करने हेतु प्रस्ताव आमंत्रित हैं। नई ईकाई हेतु कम से कम ११ सदस्य होना अनिवार्य है। वार्षिक सदस्यता सहयोग निधि ११००/-, हर ईकाई १००/- प्रति वर्ष प्रति सदस्य केंद्र को भेजेगी। केंद्र ईकाई द्वारा वार्षिकोत्सव या अन्य कार्यक्रमों में सहभागिता हेतु केन्द्रीय पदाधिकारी भेजेगा। केन्द्रीय समिति के कार्यक्रमों में सहभागिता हेतु ईकाई से प्रतिनिधि आमंत्रित किए जाएँगे।

* सभापति- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' *
* अध्यक्ष- बसंत शर्मा *
* उपाध्यक्ष- जय प्रकाश श्रीवास्तव, मीना भट्ट *
* सचिव - छाया सक्सेना, अनिल बाजपेई, मुकुल तिवारी *
* कोषाध्यक्ष - डॉ. अरुणा पांडे *
* प्रकोष्ठ प्रभारी - अस्मिता शैली, मनीषा सहाय।
जबलपुर, १८.५.२०२४
***
मुक्तिका
हाशिए पर सफे रह रहे
क्या कहानी?; सुनें कह रहे
अश्क जंगल के गुमनाम हो
पीर पर्वत की चुप तह रहे
रास्ते राहगीरों बिना
मरुथलों की तरह दह रहे
मुंसिफ़ों की इनायत हुई
टूटता है कहर, सह रहे
आदमी- आदमी है नहीं
धर्म के सब किले ढह रहे
सिय गँवा क्षुब्ध हो राम जी
डूब सरयू में खुद बह रहे
एक चेहरा जहाँ दिख रहा
कई चेहरे वहाँ रह रहे
१८-५-२०२२
•••
मुक्तिका
गीत गाते मीत जब दिल वार के
जीत जाते प्रीत हँस हम हार के
बीत जाते यार जब पल प्यार के
याद आते फूल हरसिंगार के
बोलती है बोल बिन तोले जुबां
कोकिला दे घोल रस मनुहार के
नैन में झाँकें नयन करते गिले
नाव को ताकें सजन पतवार के
बैर से हो बैर तब सुख-शांति हो
द्वारिका जाते कदम हरिद्वार के
१८-५-२०२२
•••
सत्रह मई बहुभाषाविद धीरेन्द्र वर्मा जयंती
*
*संस्कृत, हिंदी, ब्रजभाषा,अंग्रेज़ी और फ़्रेंच के विद्वान डॉ धीरेंद्र वर्मा की जयंती पर सादर नमन*
धीरेन्द्र वर्मा का जन्म १७ मई, १८९७ को बरेली (उत्तर प्रदेश) के भूड़ मोहल्ले में हुआ था। इनके पिता का नाम खानचंद था। खानचंद एक जमींदार पिता के पुत्र होते हुए भी भारतीय संस्कृति से प्रेम रखते थे।
प्रारम्भ में धीरेन्द्र वर्मा का नामांकन वर्ष १९०८ में डी.ए.वी. कॉलेज, देहरादून में हुआ, किंतु कुछ ही दिनों बाद वे अपने पिता के पास चले आये और क्वींस कॉलेज, लखनऊ में दाखिला लिया। इसी स्कूल से सन १९१४ ई. में प्रथम श्रेणी में 'स्कूल लीविंग सर्टीफिकेट परीक्षा' उत्तिर्ण की और हिन्दी में विशेष योग्यता प्राप्त की। तदन्तर इन्होंने म्योर सेंट्रल कॉलेज, इलाहाबाद में प्रवेश किया। सन १९२१ ई. में इसी कॉलेज से इन्होंने संस्कृत से एम॰ए॰ किया। उन्होंने पेरिस विश्वविद्यालय से डी. लिट्. की उपाधि प्राप्त की थी।
धीरेंद्र वर्मा हिन्दी तथा ब्रजभाषा के कवि एवं इतिहासकार थे। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रथम हिन्दी विभागाध्यक्ष थे। धर्मवीर भारती ने उनके ही मार्गदर्शन में अपना शोधकार्य किया। जो कार्य हिन्दी समीक्षा के क्षेत्र में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया, वही कार्य हिन्दी शोध के क्षेत्र में डॉ॰ धीरेन्द्र वर्मा ने किया था। धीरेन्द्र वर्मा जहाँ एक तरफ़ हिन्दी विभाग के उत्कृष्ट व्यवस्थापक रहे, वहीं दूसरी ओर एक आदर्श प्राध्यापक भी थे। भारतीय भाषाओं से सम्बद्ध समस्त शोध कार्य के आधार पर उन्होंने १९३३ ई. में हिन्दी भाषा का प्रथम वैज्ञानिक इतिहास लिखा था। फ्रेंच भाषा में उनका ब्रजभाषा पर शोध प्रबन्ध है, जिसका अब हिन्दी अनुवाद हो चुका है। मार्च, सन् १९६९ में डॉ॰ धीरेंद्र वर्मा हिंदी विश्वकोश के प्रधान संपादक नियुक्त हुए। विश्वकोश का प्रथम खंड लगभग डेढ़ वर्षों की अल्पावधि में ही सन् १९६० में प्रकाशित हुआ।
*कृतियाँ*
१. बृजभाषा व्याकरण
२. 'अष्टछाप' प्रकाशन रामनारायण लाल, इलाहाबाद, सन १९३८
३. 'सूरसागर-सार' सूर के ८१७ उत्कृष्ट पदों का चयन एवं संपादन, प्रकाशन साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, १९५४
४. 'मेरी कालिज डायरी' १९१७ के १९२३ तक के विद्यार्थी जीवन में लिखी गयी डायरी का पुस्तक रूप है, प्रकाशन साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, १९५४
५. 'मध्यदेश' भारतीय संस्कृति संबंधी ग्रंथ है। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के तत्त्वाधान में दिये गये भाषणों का यह संशोधित रूप है। प्रकाशन बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, १९५५
६. 'ब्रजभाषा' थीसिस का हिन्दी रूपान्तर है। प्रकाशन हिन्दुस्तानी अकादमी, १९५७
७. 'हिन्दी साहित्य कोश' संपादन, प्रकाशन ज्ञानमंडल लिमिटेड, बनारस, १९५८
८. 'हिन्दी साहित्य' संपादन, प्रकाशन भारतीय हिन्दी परिषद, १९५९
९. 'कम्पनी के पत्र' संपादन, प्रकाशन इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, १९५९
१०. 'ग्रामीण हिन्दी' प्रकाशन, साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद
११. 'हिन्दी राष्ट्र' प्रकाशन, भारती भण्डार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद
१२. 'विचार धारा' निबन्ध संग्रह है, प्रकाशन साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद
१३. 'यूरोप के पत्र' यूरोप जाने के बाद लिखे गये पत्रों का महत्त्वपूर्ण संचयन है। प्रकाशन साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबा
डॉ धीरेंद्र वर्मा व्यक्ति नहीं, एक युग थे, एक संस्था थे। हिन्दी के शिक्षण और प्रशिक्षण की संभावनाएं उन्होंने उजागर की थीं। शोध और साहित्य निर्माण के नए से नए आयाम उन्होंने स्थापित किए थे।
डॉ. वर्मा ज्ञानमार्गी थे। अज्ञात सत्य का शोध करना ही उनके जीवन का चरम लक्ष्य था। ऋषियों की भांति उन्होंने लिखा है- ''खोज से संबंध रखने वाला विद्यार्थी ज्ञानमार्ग का पथिक होता है। भक्तिमार्ग तथा कर्ममार्ग से उसे दूर रहना चाहिए। संभव है आगे चलकर सत्य के अन्वेषण की तीन धाराएं आपस में मिल जाती हों, कदाचित्‌ मिल जाती हैं, किंतु इसकी ज्ञानमार्गी पथिक को चिंता नहीं होनी चाहिए।''
ऋषियों जैसा पवित्र और यशस्वी जीवन जी कर वह २३ अप्रैल, १९७३ को प्रयाग में स्वर्गवासी हो गए।
***
कविता क्या है?
नेह नर्मदा सी है कविता, हहर-हहरकर बहती रहती
गेह वर्मदा सी है कविता घहर-घहर सच तहती रहती
कविता साक्षी देश-काल की, कविता मानव की जय गाथा
लोकमंगला जन हितैषिणी कविता दहती - सहती रहती
*
कविता क्यों हो?
भाप न असंतोष की मन में
हो एकत्र और फिर फूटे
अमन-चैन मानव के मन का
मौन - अबोला पैन मत लूटे
कविता वाल्व सेफ्टी का है
विप्लव को रोका करती है
अनाचार टोंका करती है
वक्त पड़े भौंका करती है
इसीलिये कविता करना ही
योद्धा बन बिन लड़, लड़ना है
बिन कुम्हार भावी गढ़ना है
कदम दर कदम हँस बढ़ना है
*
कविता किस तरह?
कविता करना बहुत सरल है
भाव नर्मदा डूब-नहाओ
रस-गंगा से प्रीत बढ़ाओ
शब्द सुमन चुन शारद माँ के
चरणों में बिन देर चढ़ाओ
अलंकार की अगरु-धूप ले
मिथक अग्नि का दीप जलाओ
छंद आरती-श्लोक-मंत्र पढ़
भाषा माँ की जय-जय गाओ
कविता करो नहीं, होने दो
तुकबंदी के कुछ दोने लो
भरो कथ्य-सच-लय पंजीरी
खाकर प्राण अमर होने दो।
*
क्षणिका
और अंत में
कविता मुझे पसंद, न कहना
वरना सजा मिलेगी मिस्टर
नहीं समझते क्यों
समझो है
कविता जज साहब की सिस्टर
***
द्विपदी
*
बिन संतोष न चैन है, बिन अर्चना न शांति
बिन छाया मुकुलित नहीं, जीवन मिले न कांति
*
बुला थका आ राम पर, अब तक मिले न राम
चाह रहा मिलता नहीं, क्यों मन को आराम
गीत
*
गीत कुंज में सलिल प्रवहता,
पता न गजल गली का जाने
मीत साधना करें कुंज में
प्रीत निलय है सृजन पुंज में
रीत पुनीत प्रणीत बन रही
नव फैशन कैसे पहचाने?
नेह नर्मदा कलकल लहरें
गजल शिला पर तनिक न ठहरें
माटी से मिल पंकज सिरजें
मिटतीं जग की तृषा बुझाने
तितली-भँवरे रुकें न ठहरें
गीत ध्वजाएँ नभ पर फहरें
छप्पय दोहे संग सवैये
आल्हा बम्बुलिया की ताने
***
मुक्तक
भावना की भावना है शुद्ध शुभ सद्भाव है
भाव ना कुछ, अमोली बहुमूल्य है बेभाव है
साथ हैं अभियान संगम ज्योति हिंदी की जले
प्रकाशित सब जग करे बस यही मन में चाव है
गीत
*
नेह नरमदा घाट नहाते
दो पंछी रच नई कहानी
*
लहर लहर लहराती आती
घुल-मिल कथा नवल कह जाती
चट्टानों पर शीश पटककर
मछली के संग राई गाती
राई- नोंन उतारे झटपट
सास मेंढकी चतुर सयानी
*
रेला आता हहर-हहरकर
मन सिहराता घहर-घहरकर
नहीं रेत पर पाँव ठहरते
नाव निहारे सिहर-सिहरकर
छूट हाथ से दूर बह चली
हो पतवार 'सलिल' अनजानी
***
नवगीत:
.
धरती काँपी,
नभ थर्राया
महाकाल का नर्तन
.
विलग हुए भूखंड तपिश साँसों की
सही न जाती
भुज भेंटे कंपित हो भूतल
भू की फटती छाती
कहाँ भू-सुता मातृ-गोद में
जा जो पीर मिटा दे
नहीं रहे नृप जो निज पीड़ा
सहकर धीर धरा दें
योगिनियाँ बनकर
इमारतें करें
चेतना-कर्तन
धरती काँपी,
नभ थर्राया
महाकाल का नर्तन
.
पवन व्यथित नभ आर्तनाद कर
आँसू धार बहायें
देख मौत का तांडव चुप
पशु-पक्षी धैर्य धरायें
ध्वंस पीठिका निर्माणों की,
बना जयी होना है
ममता, संता, सक्षमता के
बीज अगिन बोना है
श्वास-आस-विश्वास ले बढ़े
हास, न बचे विखंडन
१८.५.२०२०
***
कोरोना- बेमौत मरते मजूरों के नाम
*
द्रौपदी के चीर जैसे रास्ते कटते नहीं
कट रहे उम्मीद के सिर कुर्सियाँ मदहोश हैं
*
पाँव पहँचे लिये भूखे पेट की जब अर्थियाँ
कर दिया मरघट ने तालाबंद अब जाएँ कहाँ
*
वाकई दीदार अच्छे दिनों का अब हो रहा
कुर्सियों की जय बची अखबारबाजी आज कल
*
छातियाँ छत्तीस इंची और भी चौड़ी करो
मरेंगे मजदूर पूँजीपति नवाजे जाएँगे
*
कर्ज बाँटो भीख दो जिंदा नहीं गैरत रहे
काम छीनो हाथ से मौका मिला चूको नहीं
*
निकम्मी सरकार है मरकर यही हम कह गए
चीखती है असलियत टी वी पटे जयकार से
***
संजीव
१५-५-२०२०
***
हास्य कुण्डलिया
नई बहुरिया आ गई, नई नई हर बात
परफ्यूमे भगवान को, प्रेयर कर नित प्रात
प्रेयर कर नित प्रात, फास्ट भी ब्रेक कराती
ब्रेक फास्ट दे लंच न दे, फिरती इठलाती
न्यून वसन लख, आँख शर्म से हरि की झुक गई
मटक रही बेचीर, द्रौपदी फैशन कर नई
बाल पृष्ठ पर आ गए, हम सफेद ले बाल
बच्चों के सिर सोहते, देखो काले बाल
देखो काले बाल, कहीं हैं श्वेत-श्याम संग
दिखे कहीं बेबाल, न गंजा कह उतरे रंग
कहे सलिल बेनूर, परेशां अपनी विगें सम्हाल
घूमें रँगे सियार, डाई कर अपने असली बाल
पाक कला के दिवस पर, हर हरकत नापाक
करे पाक चटनी बना, काम कीजिए पाक
काम कीजिए पाक, नहीं होती है सीधी
कुत्ते की दुम रहे, काट दो फिर भी टेढ़ी
कहता कवि संजीव, जाएँ सरहद पर महिला
कविता बम फेंके, भागे दुश्मन दिल दहला
***
छंद कार्यशाला
दोहा - कुंडलिया
दोहा - आशा शैली
रोला - संजीव
*
जीव जन्तु को दे रहा, जो जीवन की आस।
कण-कण व्यापक राम है, रख मनवा विश्वास। ।
रख मनवा विश्वास, मारता वही श्रमिक को
धनपति बना रहा है, वह ही कुटिल भ्रमित को
आशा पर आकाश टँगा, देखे बेबस जीव
हैं दुधमुँहे अनाथ, नाथ मूक संजीव
१८-५-२०२०
***
मुक्तिका
*
धीरे-धीरे समय सूत को, कात रहा है बुनकर दिनकर
साँझ सुंदरी राह हेरती कब लाएगा धोती बुनकर
.
मैया रजनी की कैयां में, चंदा खेले हुमस-किलककर
तारे साथी धमाचौकड़ी मचा रहे हैं हुलस-पुलककर
.
बहिन चाँदनी सुने कहानी, धरती दादी कहे लीन हो
पता नहीं कब भोर हो गई?, टेरे मौसी उषा लपककर
.
बहकी-महकी मंद पवन सँग, कली मोगरे की श्वेताभित
गौरैया की चहचह सुनकर, गुटरूँगूँ कर रहा कबूतर
.
सदा सुहागन रहो असीसे, बरगद बब्बा करतल ध्वनि कर
छोड़ न कल पर काम आज का, वरो सफलता जग उठ बढ़ कर
हरदोई
८-५-२०१६
***
यमकीय मुक्तक :
जान में जान है जान यह जानकर, जान की जान सांसत में पड़ गयी
जानकी जान जाए न सच जानकर, जानकी झूठ बोली न, चुप रह गयी
जान कर भी सके जान सच को नहीं, जान ने जान कर भी बताया नहीं
जान का मान हो, मान दे जान को, जान ले जान तो जान खुश हो गयी
***
दोहा सलिला:
दोहे के रंग आँख के संग
*
आँख न दिल का खोल दे, कहीं अजाने राज
काला चश्मा आँख पर, रखता जग इस व्याज
*
नाम नयनसुख- आँख का, अँधा मगर समाज
आँख न खुलती इसलिए, है अनीति का राज
*
आँख सुहाती आँख को, फूटी आँख न- सत्य
आना सच है आँख का, जाना मगर असत्य
*
खोल रही ऑंखें उषा, दुपहर तरेरे आँख
संध्या झपके मूँदती, निशा समेटे पाँख
*
श्याम-श्वेत में समन्वय, आँख बिठाती खूब
जीव-जगत सम संग रह, हँसते ज्यों भू-धूप
*
आँखों का काजल चुरा, आँखें कहें: 'जनाब!
दिल के बदले दिल लिया,पूरा हुआ हिसाब'
*
आँख मार आँखें करें, दिल पर सबल प्रहार
आँख न मिल झुक बच गयी, चेहरा लाल अनार
*
आँख मिलाकर आँख ने, किया प्रेम संवाद
आँख दिखाकर आँख ने, वर्ज किया परिवाद
*
आँखों में ऑंखें गड़ीं, मन में जगी उमंग
आँखें इठला कर कहें, 'करिए मुझे न तंग'
*
दो-दो आँखें चार लख, हुए गुलाबी गाल
पलक लपककर गिर बनी, अंतर्मन की ढाल
*
आँख मुँदी तो मच गया, पल में हाहाकार
आँख खुली होने लगा, जीवन का सत्कार
*
कहे अनकहा बिन कहे, आँख नहीं लाचार
आँख न नफरत चाहती, आँख लुटाती प्यार
*
सरहद पर आँखें गड़ा, बैठे वीर जवान
अरि की आँखों में चुभें, पल-पल सीना तान
*
आँख पुतलिया है सुता, सुत है पलक समान
क्यों आँखों को खटकता, दोनों का सम मान
*
आँख फोड़कर भी नहीं, कर पाया लाचार
मन की आँखों ने किया, पल में तीक्ष्ण प्रहार
*
अपनों-सपनों का हुईं, आँखें जब आवास
कौन किराया माँगता, किससे कब सायास
*
अधर सुनें आँखें कहें, कान देखते दृश्य
दसों दिशा में है बसा, लेकिन प्रेम अदृश्य
*
आँख बोलती आँख से, 'री! मत आँख नटेर'
आँख सिखाती है सबक, 'देर बने अंधेर'
*
ताक-झाँककर आँक ली, आँखों ने तस्वीर
आँख फेर ली आँख ने, फूट गई तकदीर
*
आँख मिचौली खेलती, मूँद आँख को आँख
आँख मूँद मत देवता, कहे सुहागन आँख
१८.५.२०१५
***
छंद सलिला:
रसाल / सुमित्र छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति दस-चौदह, पदारंभ-पदांत लघु-गुरु-लघु.
लक्षण छंद:
रसाल चौदह--दस/ यति, रख जगण पद आद्यंत
बने सुमि/त्र ही स/दा, 'सलिल' बने कवि सुसंत
उदाहरण:
१. सुदेश बने देश / ख़ुशी आम को हो अशेष
सभी समान हों न / चंद आदमी हों विशेष
जिन्हें चुना 'सलिल' व/ही देश बनायें महान
निहाल हो सके स/मय, देश का सुयश बखान
२. बबूल का शूल न/हीं, मनुज हो सके गुलाब
गुनाह छिप सके न/हीं, पुलिस करे बेनकाब
सियासत न मलिन र/हे, मतदाता दें जवाब
भला-बुरा कौन-क/हाँ, जीत-हार हो हिसाब
३. सुछंद लय प्रवाह / हो, कथ्य अलंकार भाव
नये प्रतीक-बिम्ब / से, श्रोता में जगे चाव
बहे ,रसधार अमि/त, कल्पना मौलिक प्रगाढ़
'सलिल' शब्द ललित र/हें, कालजयी हो प्रभाव
***
मुक्तक सलिला
*
मेरे मन में कौन बताये कितना दिव्य प्रकाश है?
नयन मूँदकर जब-जब देखा, ज्योति भरा आकाश है.
चित्र गुप्त साकार दिखे शत, कण-कण ज्योतित दीप दिखा-
गत-आगत के गहन तिमिरमें, सत-शिव-सुंदर आज दिपा।
*
हार गया तो क्या गम? मन को शांत रखूँ
जीत चख चुका, अब थोड़ी सी हार चखूँ
फूल-शूल जो जब पाऊँ, स्वीकार सकूँ
प्यास बुझाकर भावी 'सलिल' निहार सकूँ
*
भटका दिन भर थक गया, अब न भा रही भीड़
साँझ कहे अब लौट चल, राह हेरता नीड़
*
समय की बहती नदी पर, रक्त के हस्ताक्षर
किये जिसने कह रहा है, हाय खुद को साक्षर
ढाई आखर पढ़ न पाया, स्याह कर दी प्रकृति ही-
नभ धरा तरु नेह से, रहते न कहना निरक्षर
*
खों रहे क्या कुछ भविष्य में, जो चाहेंगे पा जायेंगे
नेह नर्मदा नयन तुम्हारे, जीवन -जय गायेंगे
*
दीखता है साफ़-साफ़, समय नहीं करे माफ़
जो जैसा स्वीकारूँ, धूप-छाँव हाफ़-हाफ़
गिर-उठ-चल मुस्काऊँ, कुछ नवीन रच जाऊँ-
समय हँसे देख-देख, अधरों पर मधुर लाफ.
*
लाख आवरण ओढ़ रहे हो, मैं नज़रों से देख पा रहा
क्या-क्या मन में भाव छिपाये?, कितना तुमको कौन भा रहा?
पतझर काँटे धूल साथ ले, सावन-फागुन की अगवानी-
करता रहा मौन रहकर नित, गीत बाँटकर प्रीत पा रहा.
*
मौन भले दिखता पर मौन नहीं होता मन.
तन सीमित मन असीम, नित सपने बोता मन.
बेमन स्वीकार या नकार नहीं भाता पर-
सच है खुद अपना ही सदा नहीं होता मन.
*
वोट चोट करता 'सलिल', देख-देखकर खोट
जो कल थे इतरा रहे, आज रहे हैं लोट
जिस कर ने पायी ध्वजा, सम्हल बढ़ाये पैर
नहीं किसी का सगा हो, समय न करता बैर
*
तेरे नयनों की रामायण, बाँच रही मैं रहकर मौन
मेरे नयनों की गीता को, पढ़ पायेगा बोलो कौन?
नियति न खुलकर सम्मुख आती, नहीं सदा अज्ञात रहे-
हो सामर्थ्य नयन में झाँके बिना नयन कुछ बात कहे.
१८.५.२०१४
*

गुरुवार, 16 मई 2024

मई १६, चित्रगुप्त, भोजपुरी, पॉयम, कोरोना, छंद विमोह, दोहा, मुक्तक, गीत, आँख,

सलिल सृजन मई १६
*
चित्रगुप्त वंदना भोजपुरी
*
करत रहल बा चित्रगुप्त प्रभु!, सगरो जै-जैकार।
मति; मेहनत अरु मेल-जोल बर; आए सरन तोहार।।
जगवा में केहू नईखे हे, तोहरे बिना सहाई।
डोल रहल बा दा न जगाई, काहे भगिया हमार।।
छोड़ी चरनिया तोहरो, बारह भाई कहाँ हम जाई।
कृपा करल बा दूनो माई, फेरी दा न दिनवा हमार।।
कलम-दावत-कृपाण सजाइब, चूनर लाल चढ़ाई।
ओंकार केर जै गुंजाई, काहे न सुनल पुकार।।
श्रीफल कदली फल स्वीकारब, भगवन भोग मिठाई।
सर पर हाथ धरल दोऊ माई, किरपा दृष्टि निहार।।
***
दोहा सलिला
अनिल अनल भू नभ सलिल, अजय उच्च रख माथ।
राम नाथ सीता सहित, रखिए सिर पर हाथ।।
राम नाथ अब अवध में, थामे हैं धनु-बाण।
अब तक दयानिधान थे, अब हरते हैं प्राण।।
राम नाथ भी थे विवश, सके न सिय को रोक।
समय बली विपरीत था, कोई सका न टोक।।
आ! वारा तुझ पर ह्रदय, शारद मातु पुनीत।
आवारा थे शब्द कर, वंदन हुए सुगीत।।
ललिता लय लालित्य ले, नमन करे हो लीन।
मीनाकारी स्वरों की, सुमधुर जैसे बीन।।
सँग नारायण शरद जी, जड़कर नीलम रत्न।
खरे-खरे दोहे कहें, मुक्तक-गीत सुयत्न।।
राम; केश सिय के लिए, सजा रहे हैं फूल।
राम-केश हँस बाँधतीं, सीता सब दुःख भूल।।
कंकर में शंकर बसे, शिमला शर्मा मौन।
सूर्य तपे शिव जी कहें, हिम ला देगा कौन?
चंदा दो चंदा कहे, गई चाँदनी भाग।
नीता-शीला अब न वह, चंद्रकला अनुराग।।
मारीशस से मिल गले, भारत माता झूम।
प्रेमलता महका रही, भुज भर माथा चूम।।
मँज री मति! गुरु निकट जा, माँजेंगे गुरु खूब।
अर्पित कर मन-मंजरी, भाव-भक्ति में डूब।।
अनामिका मति साधिका, रम्य राधिका भ्रांत।
सुमित अमित परिमित सतत, करे न मन को भ्रांत।।
वह बोली आदाब पर, यह समझा आ दाब।
आगे बढ़ते ही पड़ा, थप्पड़ एक जनाब।।
१६-५-२०२२
***
Poem
I
*
I don't care to those
Who don't care to me
I prefer to play with them
Who prefer to play with me.
Mountain for mountains
For seas I also am a sea
Being nowhere I'm everywhere
Want to meet?, Try to see
Forget I and You
Remember only Us
No place for no
Always welcome yes.
15-5-2022
***
कोरोना गीत
सूरज! आओ भेंट तुम्हें हैं रेल कटे मजदूर
भूखे पेट अँतड़ियाँ ऐंठी कितना सहते?
रोजी-रोटी गँवा उधारी कितनी गहते
बिन भाड़ा झोपड़ पट्टी में जगह न मिलती
घर से दूर अभाव आग में कितना दहते?
विवश चले पैदल भारत के बेटे हो मजबूर
खाकी लट्ठ बरसते फिर भी बढ़ते जाते
नेताओं की निष्ठुरता चुप पढ़ते जाते
कृषक-श्रमिक संघों को सूँघा साँप अचानक
शासन के अखबार कसीदे पढ़ते जाते
इंसानों को भून रहा बदहाली का तंदूर
उजड़ीं माँगें टूटे मंगलसूत्र चूड़ियाँ टूटीं
बिना लुटेरे अबलाएँ असहाय गई हैं लूटीं
कौन सहारा दे किसको, है दोष सभी का साझा
पैसेवाले ठठा रहे, निर्धन तकदीरें फूटीं
तुम तो तनिक बहा लो आँसू हे दिनकर अक्रूर
१६-५-२०२०***
द्विपदी
दोस्ती की दरार छोटी पर
साँप शक का वहीं मिला लंबा।
१६-५-२०१९
***
छंद बहर का मूल है १३
*
संरचना- २१२ २१२, सूत्र- रर.
वार्णिक छंद- ६ वर्णीय गायत्री जातीय विमोह छंद.
मात्रिक छंद- १० मात्रिक देशिक जातीय छंद
*
सत्य बोलो सभी
झूठ छोडो कभी
*
रीतती रात भी
जीतता प्रात ही
*
ख्वाब हो ख्वाब ही
आँख खोलो तभी
*
खाद-पानी मिले
फूल हो सौरभी
*
मुश्किलों आ मिलो
मात ले लो अभी
१३-४-२०१७
९.४५ पूर्वाह्न
***
दोहा
चित्र गुप्त जिसका वही, लेता जब आकार
ब्रम्हा-विष्णु-महेश तब, होते हैं साकार
*
माँ ममता का गाँव है, शुभाशीष की छाँव.
कैसी भी सन्तान हो, माँ-चरणों में ठाँव..
*
ॐ जपे नीरव अगर, कट जाएँ सब कष्ट
मौन रखे यदि शोर तो, होते दूर अनिष्ट
*
स्नेह सरोवर सुखाकर करते जो नाशाद
वे शादी कर किस तरह, हो पायेंगे शाद?
*
मुक्तक
तुझको अपना पता लगाना है?
खुद से खुद को अगर मिलाना है
मूँद कर आँख बैठ जाओ भी
दूर जाना करीब आना है
*
***
द्विपदी
ठिठक कर जो रुक गयीं तुम
आ गया भूकम्प झट से.
*
दाग न दामन पर लगा है
बोल सियासत ख़ाक करी है
*
मौन से बातचीत अच्छी है
भाप प्रेशर कुकर से निकले तो
*
तीन अंगुलिया उठतीं खुद पर
एक किसी पर अगर धरी है
*
सिर्फ कहना सही ही काफी नहीं है
बात कहने का सलीका है जरूरी
*
अजय हैं न जय कर सके कोई हमको
विजय को पराजय को सम देखते हैं
*
किस्से दिल में न रखें किससे कहें यह सोचें
गर न किस्से कहे तो ख्वाब भी मुरझाएंगे
*
सखापन 'सलिल' का दिखे श्याम खुद पर
अँजुरी में सूर्स्त दिखे देख फिर-फिर
*
दुष्ट से दुष्ट मिले कष्ट दे संतुष्ट हुए
दोनों जब साथ गिरे हँसी हसीं कहके 'मुए'
*
जो गिर-उठकर बढ़ा मंजिल मिली है
किताबों में मिला हमको लिखित है
*
घुँघरू पायल के इस कदर बजाए जाएँ
नींद उड़ जाए औ' महबूब दौड़ते आयें
*
रन करते जब वीर तालियाँ दुनिया देख बजाती है
रन न बनें तो हाय प्रेमिका भी आती है पास नहीं
*
रंज मत कर बिसारे, जिसने सुधि-अनुबंध
वही इस काबिल न था कि पा सके मन-रंजना
*
रूप देखकर नजर झुका लें कितनी वह तहजीब भली थी
रूप मर गया बेहूदों ने आँख फाड़कर उसे तका है
१६-५-२०१५
दोहा का रंग आँखों के संग
*
आँख अबोले बोलती, आँख समझती बात.
आँख राज सब खोलत, कैसी बीती रात?
*
आँख आँख से मिल झुके, उठे लड़े झुक मौन.
क्या अनकहनी कह गई, कहे-बताये कौन?.
*
आँख आँख में बस हुलस, आँख चुराती आँख.
आँख आँख को चुभ रही, आँख दिखाती आँख..
*
आँख बने दर्पण कभी, आँख आँख का बिम्ब.
आँख अदेखे देखती, आँखों का प्रतिबिम्ब..
*
गहरी नीली आँख क्यों, उषा गाल सम लाल?
नेह नर्मदा नहाकर, नत-उन्नत बेहाल..
*
देह विदेहित जब हुई, मिला आँख को चैन.
आँख आँख ने फेर ली, आँख हुई बेचैन..
*
आँख दिखाकर आँख को, आँख हुई नाराज़.
आँख मूँदकर आँख है, मौन कहो किस व्याज?
*
पानी आया आँख में, बेमौसम बरसात.
आँसू पोछे आँख चुप, बैरन लगती रात..
*
अंगारे बरसा रही आँख, धरा है तप्त.
किसकी आँखों पर हुई, आँख कहो अनुरक्त?.
*
आँख चुभ गई आँख को, आँख आँख में लीन.
आँख आँख को पा धनी, आँख आँख बिन दीन..
*
कही कहानी आँख की, मिला आँख से आँख.
आँख दिखाकर आँख को, बढ़ी आँख की साख..
*
आँख-आँख में डूबकर, बसी आँख में मौन.
आँख-आँख से लड़ पड़ी, कहो जयी है कौन?
*
आँख फूटती तो नहीं, आँख कर सके बात.
तारा बन जा आँख का, 'सलिल' मिली सौगात..
*
कौन किरकिरी आँख की, उसकी ऑंखें फोड़.
मिटा तुरत आतंक दो, नहीं शांति का तोड़..
*
आँख झुकाकर लाज से, गयी सानिया पाक.
आँख झपक बिजली गिरा, करे कलेजा चाक..
*
आँख न खटके आँख में, करो न आँखें लाल.
काँटा कोई न आँख का, तुम से करे सवाल..
*
आँख न खुलकर खुल रही, 'सलिल' आँख है बंद.
आँख अबोले बोलती, सुनो सृजन के छंद..
१६-५-२०१५
***

बुधवार, 15 मई 2024

मई १५, चित्रगुप्त, कायस्थ, गोत्र, अल्ल, तितली, छंद वस्तुवदनक, छंद सारस, लघुकथा,शेर, गीत

सलिल सृजन मई १५
*
लघुकथा:
प्यार ही प्यार
*
'बिट्टो! उठ, सपर के कलेवा कर ले. मुझे काम पे जाना है. स्कूल समय पे चली जइयों।'
कहते हुए उसने बिटिया को जमीन पर बिछे टाट से खड़ा किया और कोयले का टुकड़ा लेकर दाँत साफ़ करने भेज दिया।
झट से अल्युमिनियम की कटोरी में चाय उड़ेली और रात की बची बासी रोटी के साथ मुँह धोकर आयी बेटी को खिलाने लगी। ठुमकती-मचलती बेटी को खिलते-खिलते उसने भी दी कौर गटके और टिक्कड़ सेंकने में जुट गयी। साथ ही साथ बोल रही थी गिनती जिसे दुहरा रही थी बिटिया।
सड़क किनारे नलके से भर लायी पानी की कसेंड़ी ढाँककर, बाल्टी के पानी से अपने साथ-साथ बेटी को नहलाकर स्कूल के कपडे पहनाये और आवाज लगाई 'मुनिया के बापू! जे पोटली ले लो, मजूरी खों जात-जात मोदी खों स्कूल छोड़ दइयो' मैं बासन माँजबे को निकर रई.' उसमे चहरे की चमक बिना कहे ही कह रही थी कि उसके चारों तरफ बिखरा है प्यार ही प्यार।
१५-५-२०१६
***
छंद सलिला:
वस्तुवदनक छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, पदांत चौकल-द्विकल
लक्षण छंद:
वस्तुवदनक कला चौबिस चुनकर रचते कवि
पदांत चौकल-द्विकल हो तो शांत हो मन-छवि
उदाहरण:
१. प्राची पर लाली झलकी, कोयल कूकी / पनघट / पर
रविदर्शन कर उड़े परिंदे, चहक-चहक/कर नभ / पर
कलकल-कलकल उतर नर्मदा, शिव-मस्तक / से भू/पर
पाप-शाप से मुक्त कर रही, हर्षित ऋषि / मुनि सुर / नर
२. मोदक लाईं मैया, पानी सुत / के मुख / में
आया- बोला: 'भूखा हूँ, मैया! सचमुच में'
''खाना खाया अभी, अभी भूखा कैसे?
मुझे ज्ञात है पेटू, राज छिपा मोदक में''
३. 'तुम रोओगे कंधे पर रखकर सिर?
सोचो सुत धृतराष्ट्र!, गिरेंगे सुत-सिर कटकर''
बात पितामह की न सुनी, खोया हर अवसर
फिर भी दोष भाग्य को दे, अंधा रो-रोकर
***
सारस / छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति १२-१२, चरणादि विषमक़ल तथा गुरु, चरणांत लघु लघु गुरु (सगण) सूत्र- 'शांति रखो शांति रखो शांति रखो शांति रखो'
विशेष: साम्य- उर्दू बहर 'मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन'
लक्षण छंद:
सारस मात्रा गुरु हो, आदि विषम ध्यान रखें
बारह-बारह यति गति, अन्त सगण जान रखें
उदाहरण:
१. सूर्य कहे शीघ्र उठें, भोर हुई सेज तजें
दीप जला दान करें, राम-सिया नित्य भजें
शीश झुका आन बचा, मौन रहें राह चलें
साँझ हुई काल कहे, शोक भुला आओ ढलें
२. पाँव उठा गाँव चलें, छाँव मिले ठाँव करें
आँख मुँदे स्वप्न पलें, बैर भुला मेल करें
धूप कड़ी झेल सकें, मेह मिले खेल करें
ढोल बजा नाच सकें, बाँध भुजा पीर हरें
३. क्रोध न हो द्वेष न हो, बैर न हो भ्रान्ति तजें
चाह करें वाह करें, आह भरें शांति भजें
नेह रखें प्रेम करें, भीत न हो कांति वरें
आन रखें मान रखें, शोर न हो क्रांति करें
१५-५-२०१४
***
एक प्रश्न-एक उत्तर: चित्रगुप्त जयंती क्यों?...
योगेश श्रीवास्तव 2:45pm May 14
आपके द्वारा भेजी जानकारी पाकर अच्छा लगा . थैंक्स. अब यह बताएं कि चित्रगुप्त जयंती मनाने का क्या कारण है? इस सम्बन्ध में भी कोई प्रसंग है?. थैंक्स.
योगेश जी!
वन्दे मातरम.
चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम ने उनका जन्म प्रमाण पत्र बनाया।
कायस्थों से द्वेष रखनेवाले ब्राम्हणों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती। नव उत्पत्ति प्रकृति (स्त्री) तत्व से होती है.
'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता। चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह तत्व निराकार है। हम निराकार तत्वों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं।
कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है। 'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है। सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) के रूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं। यही तत्व (ऊर्जा) सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है। सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं। हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा, पालक विष्णु और नाशक शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं। आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं।
वैदिक काल से कायस्थ जन हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं। वे जानते और मानते रहे कि सभी तत्वों में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... यहाँ तक कि अल्लाह और ईसा में भी... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा। कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया।
निराकार चित्रगुप्त जी संबंधी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा, कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व, कोई जयंती, कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं, सब चित्रगुप्त जी के ही एक विशिष्ट रूप के लिए हैं। उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते, यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया। यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वेद पूर्व आदि काल से है।
वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा के आधार पर यह जयंती मनाई जाती है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं। आंशिक सत्य के कई रूप होते हैं। इनमें सामाजिक सत्य भी है। वर्तमान में चित्रगुप्त संबंधी प्रगति कथा, मंदिर, मूर्ति, व्रत, चालीसा, आरती तथा जयंती को सामाजिक या पौराणिक सत्य कहा जा सकता है किन्तु यह आध्यात्मिक या वैज्ञानिक सत्य नहीं है।
***
'गोत्र' तथा 'अल्ल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न अखिल भारतीय कायस्थ महासभा तथा राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते रहे हैं।
स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था। इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ। ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए।इसी कारण एक गोत्र वर्तमान में विभिन्न जातियों (जन्मना) में गोत्र मिलता है। ऋषि के पास विविध जातियों (वर्णानुसार) के शिष्य अध्ययन करने पहुँचते थे। महाभारत काल में ड्रोन, परशुराम आदि के शिष्य विविध जातियों, व्यवसायों, पदों के रहे। आजकल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रॉबर्टसन कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए। आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं।शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे। अतः, सामान्यत: उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था। कुछ अपवाद भी रहे हैं।
एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं। 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से संबंधित होता है। कायस्थों को राजनैतिक कारणों से निरंतर पलायन करना पड़ा। नए स्थानों पर उन्हें उनकी योग्यता के कारण आजीविका साधन तो मिल गए किन्तु स्थानीय समाज ने इन नवागंतुकों के साथ विवाह संब्न्धिओं में रूचि नाहने ली, फलत: कायस्थों को पूर्व परिचित परिवारों (दूर के संबंधियों) में विवाह करने पड़े। इस करम एक गोत्र में विवाह न करने का नियम प्रचलन में न रह सका, तब एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित माना जाने लगा। आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते। सामाजिक ढाँचा नष्ट हो जाने के कारण अंतर्जातीय विवाहों का प्रचलन बढ़ रहा है।
हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं। हमारी अल्ल 'उमरे' है। मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति (श्री रामकुमार वर्मा आत्मज स्व. जंगबहादुर वर्मा, छिंदवाड़ा) मिला है। मेरे फूफा जी स्व, जगन्नाथ प्रसाद वर्मा की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है। उनके पूर्वजों में से कोई बैरकपुर (बंगाल) के भद्र परिवार से होंगे जो किसी कारण से नागपुर जा बसे थे।
१५-५-२०११
***
अंतिम गीत
लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
ओ मेरी सर्वान्गिनी! मुझको याद वचन वह 'साथ रहेंगे'
तुम जातीं क्यों आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
दो अपूर्ण मिल पूर्ण हुए हम सुमन-सुरभि, दीपक-बाती बन.
अपने अंतर्मन को खोकर क्यों रह जाऊँ मैं केवल तन?
शिवा रहित शिव, शव बन जीना, मुझको अंगीकार नहीं है-
प्राणवर्तिका रहित दीप बन जीवन यह स्वीकार नहीं है.
तुमको खो सुधियों की समिधा संग मेरे भी प्राण जलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
नियति नटी की कठपुतली हम, उसने हमको सदा नचाया.
सच कहता हूँ साथ तुम्हारा पाने मैंने शीश झुकाया.
तुम्हीं नहीं होगी तो बोलो जीवन क्यों मैं स्वीकारूँगा?-
मौन रहो कुछ मत बोलो मैं पल में खुद को भी वारूँगा.
महाकाल के दो नयनों में तुम-मैं बनकर अश्रु पलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
हमने जीवन की बगिया में मिलकर मुकुलित कुसुम खिलाये.
खाया, फेंका, कुछ उधार दे, कुछ कर्जे भी विहँस चुकाये.
अब न पावना-देना बाकी, मात्र ध्येय है साथ तुम्हारा-
सिया रहित श्री राम न, श्री बिन श्रीपति को मैंने स्वीकारा.
साथ चलें हम, आगे-पीछे होकर हाथ न 'सलिल' मलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
***
तितलियाँ : कुछ अश'आर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया?
कहा तितली ने मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले..
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हुए खुद भी रो पडीं..
*
तितलियों से बाग की रौनक बढ़ी.
भ्रमर तो बेदाम के गुलाम हैं..
*
'आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
१५-५-२०१०
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मंगलवार, 14 मई 2024

मई १४, बाल गीत, लघुकथा, कुंवर सिंह, मुक्तक, बुन्देली मुक्तिका, दोहा, सवैया, कुण्डलिया

सलिल सृजन मई १४
कुण्डलिया
कुण्डलिया हिंदी के कालजयी और लोकप्रिय छंदों में अग्रगण्य है। एक दोहा (दो पंक्तियाँ, १३-११ पर यति, विषम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरणान्त गुरु-लघु या लघु-लघु-लघु) तथा एक रोला (चार पंक्तियाँ, ११-१३ पर यति, विषम चरणान्त गुरु-लघु या लघु-लघु-लघु, सम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरण के अंत में २ गुरु, लघु-लघु-गुरु या ४ लघु) मिलकर षट्पदिक (छ: पंक्ति) कुण्डलिनी छंद को आकार देते हैं। दोहा और रोला की ही तरह कुण्डलिनी भी अर्ध सम मात्रिक छंद है। दोहा का अंतिम या चौथा चरण, रोला का प्रथम चरण बनाकर दोहराया जाता है। दोहा का प्रारंभिक शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश रोला का अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश होता है। प्रारंभिक और अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश की समान आवृत्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो जहाँ से आरम्भ किया वही लौट आये, इस तरह शब्दों के एक वर्तुल या वृत्त की प्रतीति होती है। सर्प जब कुंडली मारकर बैठता है तो उसकी पूँछ का सिरा जहाँ होता है वहीं से वह फन उठाकर चतुर्दिक देखता है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: बाहर१. कुण्डलिनी छंद ६ पंक्तियों का छंद है जिसमें एक दोहा और एक रोला छंद होते हैं।
२. दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है।
३. दोहा का आरंभिक शब्द, शब्दांश, शब्द समूह या पूरा चरण रोला के अंत में प्रयुक्त होता है।
४. दोहा तथा रोला अर्ध सम मात्रिक छंद हैं। इनके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
अ. दोहा में २ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में १३+११=२४ मात्राएँ होती हैं. दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे) चरण में १३ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ११ मात्राएँ होती हैं।
आ. दोहा के विषम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
इ. दोहा के विषम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
ई. दोहा के सम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
उदाहरण:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर।।
उ. दोहा के लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर २३ प्रकार होते हैं।
५. रोला भी अर्ध सम मात्रिक छंद है अर्थात इसके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
क. रोला में ४ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में ११+१३=२४ मात्राएँ होती हैं। दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें) चरण में ११ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे, छठवें, आठवें) चरण में १३ मात्राएँ होती हैं।
का. रोला के विषम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
कि. रोला के सम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
की. रोला के सम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
उदाहरण: सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय।।
६. कुण्डलिनी:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है, है वहीं, सच मानो अंधेर।।
सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
करें देश हित कार्य, सियासत भूल हर समय।।
*
कुण्डलिया छन्द का विधान उदाहरण सहित
दोहा:
समय-समय की बात है
१११ १११ २ २१ २ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
समय-समय का फेर।
१११ १११ २ २१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
जहाँ देर है, है वहीं
१२ २१ २ १२ २ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
सच मानो अंधेर
११ २२ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
रोला:
सच मानो अंधेर (दोहा के अंतिम चरण का दोहराव)
११ २२ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
मचा संसद में हुल्लड़
१२ २११ २ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु [प्रभाव गुरु गुरु] के साथ यति
हर सांसद को भाँग
११ २११ २ २१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
पिला दो भर-भर कुल्हड़
१२ २ ११ ११ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु (प्रभाव गुरु गुरु) के साथ यति
भाँग चढ़े मतभेद
२१ १२ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
दूर हो, करें न संशय
२१ २ १२ १ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु के साथ यति
करें देश हित कार्य
करें देश-हित कार्य = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
सियासत भूल हर समय
१२११ २१ ११ १११ = १३ मात्रा / अंत में लघु लघु लघु के साथ यति
उदाहरण -
०१. कुण्डलिया है जादुई, छन्द श्रेष्ठ श्रीमान।
दोहा रोला का मिलन, इसकी है पहिचान।।
इसकी है पहिचान, मानते साहित सर्जक।
आदि-अंत सम-शब्द, साथ बनता ये सार्थक।।
लल्ला चाहे और, चाहती इसको ललिया।
सब का है सिरमौर छन्द, प्यारे, कुण्डलिया।। - नवीन चतुर्वेदी
०२. भारत मेरी जान है, इस पर मुझको नाज़।
नहीं रहा बिल्कुल मगर, यह कल जैसा आज।।
यह कल जैसा आज, गुमी सोने की चिड़िया।
बहता था घी-दूध, आज सूखी हर नदिया।।
करदी भ्रष्टाचार- तंत्र ने, इसकी दुर्गत।
पहले जैसा आज, कहाँ है? मेरा भारत।। - राजेंद्र स्वर्णकार
०३. भारत माता की सुनो, महिमा अपरम्पार ।
इसके आँचल से बहे, गंग जमुन की धार ।।
गंग जमुन की धार, अचल नगराज हिमाला ।
मंदिर मस्जिद संग, खड़े गुरुद्वार शिवाला ।।
विश्वविजेता जान, सकल जन जन की ताकत ।
अभिनंदन कर आज, धन्य है अनुपम भारत ।। - महेंद्र वर्मा
०४. भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल।
फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल।।
तज भेदों के, शूल / अनवरत, रहें सृजनरत।
मिलें अँगुलिका, बनें / मुष्टिका, दुश्मन गारत।।
तरसें लेनें. जन्म / देवता, विमल विनयरत।
'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत।।
(यहाँ अंतिम पंक्ति में ११ -१३ का विभाजन 'नित' ले मध्य में है अर्थात 'सलिल' पखारे पग नि/त पूजे, माता भारत में यति एक शब्द के मध्य में है यह एक काव्य दोष है और इसे नहीं होना चाहिए। 'सलिल' पखारे चरण करने पर यति और शब्द एक स्थान पर होते हैं, अंतिम चरण 'पूज नित माता भारत' करने से दोष का परिमार्जन होता है।)
०५. कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान।
इसका लोहा मानते, कोटि-कोटि विद्वान।।
कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर।
तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर।।
जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर।
'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर।।
('सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर' यहाँ 'बेहतर' पढ़ने पर अंतिम पंक्ति में २४ के स्थान पर २५ मात्राएँ हो रही हैं। उर्दूवाले 'बेहतर' या 'बिहतर' पढ़कर यह दोष दूर हुआ मानते हैं किन्तु हिंदी में इसकी अनुमति नहीं है। यहाँ एक दोष और है, ११ वीं-१२ वीं मात्रा है 'बे' है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। 'सलिल' न बेहतर मानव से' करने पर अक्षर-विभाजन से बच सकते हैं पर 'मानव' को 'मा' और 'नव' में तोड़ना होगा, यह भी निर्दोष नहीं है। 'मानव से अच्छा न, 'सलिल' कोई कंप्यूटर' करने पर पंक्ति दोषमुक्त होती है।)
०६. सुंदरियाँ घातक 'सलिल', पल में लें दिल जीत।
घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत।।
जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर।
बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर।।
असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ।
नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ।।
(इस कुण्डलिनी की हर पंक्ति में २४ मात्राएँ हैं। इसलिए पढ़ने पर यह निर्दोष प्रतीत हो सकती है। किंतु यति स्थान की शुद्धता के लिये अंतिम ३ पंक्तियों को सुधारना होगा।
'अवढरदानी बिछुड़ / हो गये थे प्रलयंकर', 'रीझें सुर पर असुर / ससुर तजकर किन्नरियाँ', 'नीर-क्षीर बन करें / पूर्ण जीवन सुंदरियाँ' करने पर छंद दोष मुक्त हो सकता है।)
०७. गुन के गाहक सहस नर, बिन गन लहै न कोय।
जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब लगै अपावन।।
कह 'गिरधर कविराय', सुनो हे ठाकुर! मन के।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के।। - गिरधर
कुण्डलिनी छंद का सर्वाधिक और निपुणता से प्रयोग करनेवाले गिरधर कवि ने यहाँ आरम्भ के अक्षर, शब्द या शब्द समूह का प्रयोग अंत में ज्यों का त्यों न कर, प्रथम चरण के शब्दों को आगे-पीछे कर प्रयोग किया है। ऐसा करने के लिये भाषा और छंद पर अधिकार चाहिए।
०८. हे माँ! हेमा है कुशल, खाकर थोड़ी चोट
बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट
थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
अभिनेता हैं खास, आम जन हुए पराये
सहकर पीड़ा-दर्द, जनता करती है क्षमा?
समझें व्यथा-कथा, आम जन का कुछ हेमा
यहाँ प्रथम चरण का एक शब्द अंत में है किन्तु वह प्रथम शब्द नहीं है।
०९. दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग।
जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग।।
साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना।
करें देश-निर्माण, पंथ ही केवल वरना।।
कहे 'सलिल' कवि करें, योग्यता को मत ओझल।
आरक्षण कर ख़त्म, योग्यता ही हो संबल।।
यहाँ आरम्भ के शब्द 'दल' का समतुकांती शब्द 'संबल' अंत में है। प्रयोग मान्य हो या न हो, विचार करें।
१०. हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।
जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।।
वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- ना दाल गलेगी।।
कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।
ऊँचाई दिख सके, सदा ही नीचाई से।।
यहाँ प्रथम शब्द 'है' तथा अंत में प्रयुक्त शब्द 'से' दोनों गुरु हैं। प्रथम दृष्टया भिन्न प्रतीत होने पर भी दोनों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान होने से छंद निर्दोष है।
सवैया
*
सरस सवैया रच पढ़ें
गण की आवृत्ति सात हों, दो गुरु रहें पदांत।
सरस सवैया नित पढो, 'सलिल' न तनिक रसांत।।
बाइस से छब्बीस वर्णों के (सामान्य वृत्तो से बड़े और दंडक छंदों से छोटे) छंदों को सवैया कहा जाता है। सवैया वार्णिक छंद हैं। विविध गणों में से किसी एक गण की सात बार आवृत्तियाँ तथा अंत में दो दीर्घ अक्षरों का प्रयोग कर सवैये की रचना की जाती है। यह एक वर्णिक छन्द है। सवैया को वार्णिक मुक्तक अर्थात वर्ण संख्या के आधार पर रचित मुक्तक भी कहा जाता है। इसका कारन यह है की सवैया में गुरु को लघु पढ़ने की छूट है। जानकी नाथ सिंह ने अपने शोध निबन्ध 'द कंट्रीब्युशन ऑफ़ हिंदी पोयेट्स टु प्राजोडी के चौथे अध्याय में सवैया को वार्णिक सम वृत्त मानने का कारण हिंदी में लय में गाते समय 'गुरु' का 'लघु' की तरह उच्चारण किये जाने की प्रवृत्ति को बताया है। हिंदी में 'ए' के लघु उच्चारण हेतु कोई वर्ण या संकेत चिन्ह नहीं है। रीति काल और भक्ति काल में कवित्त और सवैया बहुत लोकप्रिय रहे हैं. कवितावलि में तुलसी ने इन्हीं दो छंदों का अधिक प्रयोग किया है। कवित्त की ही तरह सवैया भी लय-आधारित छंद है।
विविध गणों के प्रयोग के आधार पर इस छन्द के कई प्रकार (भेद) हैं। यगण, तगण तथा रगण पर आधारित सवैये की गति धीमी होती है जबकि भगण, जगण तथा सगण पर आधारित सवैया तेज गति युक्त होता है। ले के साथ कथ्य के भावपूर्ण शब्द-चित्र अंकित होते हैं। श्रृंगार तथा भक्ति परक वर्ण में विभव, अनुभव, आलंबन, उद्दीपन, संचारी भाव, नायक-नायिका भेद आदि के शब्द-चित्रण में तुलसी, रसखान, घनानंद, आलम आदि ने भावोद्वेग की उत्तम अभिव्यक्ति के लिए सवैया को ही उपयुक्त पाया। भूषण ने वीर रस के लिए सवैये का प्रयोग किया किन्तु वह अपेक्षाकृत फीका रहा।
प्रकार-
सवैया के मुख्य १४ प्रकार हैं।
१. मदिरा, २. मत्तगयन्द, ३. सुमुखि, ४. दुर्मिल, ५. किरीट, ६. गंगोदक, ७. मुक्तहरा, ८. वाम, ९. अरसात, १०. सुन्दरी, ११. अरविन्द, १२. मानिनी, १३. महाभुजंगप्रयात, १४. सुखी सवैया।
मत्तगयंद (मालती) सवैया
इस वर्णिक छंद के चार चरण होते हैं। हर चरण में सात भगण (S I I) के पश्चात् अंत में दो गुरु (SS) वर्ण होते हैं।
उदाहरण:
१.
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैंसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत-खात फिरें अँगना, पग पैंजनिया, कटी पीरि कछौटी।।
वा छवि को रसखान विलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों ली गयो माखन-रोटी।।
२.
यौवन रूप त्रिया तन गोधन, भोग विनश्वर है जग भाई।
ज्यों चपला चमके नभ में, जिमि मंदर देखत जात बिलाई।।
देव खगादि नरेन्द्र हरी मरते न बचावत कोई सहाई।
ज्यों मृग को हरि दौड़ दले, वन-रक्षक ताहि न कोई लखाई।।
३.
मोर पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गले पहिरौंगी।
ओढ़ी पीताम्बर लै लकुटी, वन गोधन गजधन संग फिरौंगी।।
भाव तो याहि कहो रसखान जो, तेरे कहे सब स्वांग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।।
दुर्मिल (चन्द्रकला) सवैया
इस वर्णिक छंद के चार चरणों में से प्रत्येक में आठ सगण (I I S) और अंत में दो गुरु मिलाकर कुल २५ वर्ण होते हैं.
उदाहरण:
बरसा-बरसा कर प्रेम सुधा, वसुधा न सँवार सकी जिनको।
तरसा-तरसा कर वारि पिता, सु-रसा न सुधार सकी जिनको।।
सविता-कर सी कविता छवि ले, जनता न पुकार सकी जिनको।
नव तार सितार बजा करके, नरता न दुलार सकी जिनको।।
उपजाति सवैया (जिसमें दो भिन्न सवैया एक साथ प्रयुक्त हुए हों) तुलसी की देन है। सर्वप्रथम तुलसी ने 'कवितावली' में तथा बाद में रसखान व केशवदास ने इसका प्रयोग किया।
मत्तगयन्द - सुन्दरी
प्रथम पद मत्तगयन्द (७ भगण + २ गुरु) - "या लटुकी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुरको तजि डारौ"। तीसरा पद सुन्दरी (७ सगन + १ गुरु) - "रसखानि कबों इन आँखिनते, ब्रजके बन बाग़ तड़ाग निहारौ"।
मदिरा - दुर्मिल
तुलसी ने एक पद मदिरा का रखकर शेष दुर्मिल के पद रखे हैं। केशव ने भी इसका अनुसरण किया है। पहला मदिरा का पद (७ भगण + एक गुरु) - "ठाढ़े हैं नौ द्रम डार गहे, धनु काँधे धरे कर सायक लै"। दूसरा दुर्मिल का पद (८ सगण) - "बिकटी भृकुटी बड़री अँखियाँ, अनमोल कपोलन की छवि है"।
मत्तगयन्द-वाम और वाम-सुन्दरी की उपजातियाँ तुलसी (कवितावली) में तथा केशव (रसिकप्रिया) में सुप्राप्य है। कवियों ने भाव-चित्रण में अधिक सौन्दर्य तथा चमत्कार उत्पन्न करने हेतु ऐसे प्रयोग किये हैं।
आधुनिक कवियों में भारतेंदु हरिश्चन्द्र, लक्ष्मण सिंह, नाथूराम शंकर आदि ने इनका सुन्दर प्रयोग किया है। जगदीश गुप्त ने इस छन्द में आधुनिक लक्षणा शक्ति का समावेश किया है।
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अठ सलल सवैया
११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११
जय हिंद कहें, सब संग रहें, हँस हाथ गहें, मिल जीत वरें हम
अरि जूझ थकें, हथियार धरें, अरमान यही, कबहूँ न डरें हम
मत-भेद भले, मन-भेद नहीं, हम एक रहे, सच नेक रहें हम
अरि मार सकें, रण जीत तरें, हँस स्वर्ग वरें, मर न मरें हम
१२.३.२०१९
*
बातों ही बातों में, रातों ही रातों में, लूटेंगे-भागेंगे, व्यापारी घातें दे आज
वादों ही वादों में, राजा जी चेलों में, सत्ता को बाँटेंगे, लोगों को मातें दे आज
यादें ही यादें हैं, कुर्सी है प्यादे हैं, मौका पा लादेंगे, प्यारे जो लोगों को आज
धोखा ही धोखा है, चौका ही चौका है, छक्का भी मारेंगे, लूटेंगे-बाँटेंगे आज
२१.२.२०१९
*
मत्त गयंद सवैया
आज कहें कल भूल रहे जुमला बतला छलते जनता को
बाप-चचा चित चुप्प पड़े नित कोस रहे अपनी ममता को
केर व बेर हुए सँग-साथ तपाक मिले तजते समता को
चाह मिले कुरसी फिर से ठगते जनको भज स्वाराथता को
२.२.२०१९
कमलेश्वरी सवैया प्रति पद 7 (यगण) +लघु
न हल्ला मचाएँ, धुआँ भी न फैला, करें गंदगी भी न मैं आप।
न पूरे तलैया, न तालाब राहों, नदी को न मैली करें आप।।
न तोड़ें घरौंदा, न काटें वनों को, न खोदें पहाड़ी सरे आम-
न रूठे धरा ये, न गुस्सा करें मेघ, इन्सान न पाए कहीं शाप।।
*
कन्हैया! कन्हैया!! बजा बाँसुरी, रूठ राधा न जाए, बजा बाँसुरी माधव!
मना राधिका नाज़ लेना उठा, रास लेना रचा तू, चला आ दिखा लाघव.
चलो ग्वाल-बालों!, नहीं बात टालो, करें रासलीला, नहीं चूको, करें गायन.
सुना फ़ाग-रासें, लला रंग डालें, लली भाग जाएँ करो बाँसुरी वादन.
६.११.२०१७
*
जगो रे!, उठो रे!!, खिलो फ़ूल जैसे, सुगंधें बिखेरो, सवेरे-सवेरे चलो.
न सोना, न खोना, नहीं मीत रोना, न हाथों धरो हाथ, मौके न खोना, चलो.
नदी सा बहो रे!, न मौजे तहो रे! उठा शंख-सीपी, न भागो, गहो रे चलो.
तुम्हीं को पुकारें, तुम्हीं को निहारें, भुला मन्ज़िले दें न, जीतो सितारे चलो.
६.११.२०१७
*
कहाँ वो छिपेगी?, कहीं तो मिलेगी, कभी तो मिलेगी, हसीना लुभाए जो।
छलावा-भुलावा?, नहीं वो दिखावा, अदाएँ हजारों, दिखाती-सुहाती जो।।
गुलाबी-गुलाबी, शराबी-शराबी, नशीली-नशीली सूरा सी पिलाती हो।
न भूला उसे मैं, न भूली मुझे वो, भले बाँह में ले, गले ना लगाती हो।।
५.११.२०१७
*
न पौधे लगाएँ, न पानी पिलाएँ, न पीड़ा मिटाएँ, करें वोट की माँग।
गरीबी मिटी क्या?, अशिक्षा हटी क्या?, कुरीती तजी क्या?, धरे संत का स्वाँग।।
न भूषा, न भाषा, निराशा-हताशा, न बाकी सुआशा, न छोड़ें अड़ी टाँग।
न लेना, न देना, चबाओ चबेना, भगा दो- भुला दो, पिला दो इन्हें भाँग।।
५.११.२०१७
***
बाल गीत
पानी दो, अब पानी दो
मौला धरती धानी दो, पानी दो...
*
तप-तप धरती सूख गयी
बहा पसीना, भूख गई.
बहुत सयानी है दुनिया
प्रभु! थोड़ी नादानी दो, पानी दो...
*
टप-टप-टप बूँदें बरसें
छप-छपाक-छप मन हर्षे
टर्र-टर्र बोले दादुर
मेघा-बिजुरी दानी दो, पानी दो...
*
रोको कारें, आ नीचे
नहा-नाच हम-तुम भीगे
ता-ता-थैया खेलेंगे
सखी एक भूटानी दो, पानी दो...
*
सड़कों पर बहता पानी
याद आ रही क्या नानी?
जहाँ-तहाँ लुक-छिपते क्यों?
कर थोड़ी मनमानी लो, पानी दो...
*
छलकी बादल की गागर
नचे झाड़ ज्यों नटनागर
हर पत्ती गोपी-ग्वालन
करें रास रसखानी दो, पानी दो...
***
लघुकथा
कानून के रखवाले
*
'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।'
वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है?"
अन्य श्रोता ने पूछा 'क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा?'
"यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?" चौथा व्यक्ति बोल पड़ा।
प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।
१४-५-२०१६
***
काव्यांजलि:
अमर शहीद कुंवर सिंह
*
भारत माता पराधीन लख,दुःख था जिनको भारी
वीर कुंवर सिंह नृपति कर रहे थे गुप-चुप तैयारी
अंग्रेजों को धूल चटायी जब-जब वे टकराये
जगदीशपुर की प्रजा धन्य थी परमवीर नृप पाये
समय न रहता कभी एक सा काले बादल छाये
अंग्रेजी सैनिक की गोली लगी घाव कई खाये
धार रक्त की बही न लेकिन वे पीड़ा से हारे
तुरत उठा करवाल हाथ को काट हँसे मतवारे
हाथ बहा गंगा मैया में 'सलिल' हो गया लाल
शुभाशीष दे मैया खद ही ज्यों हो गयी निहाल
वीर शिवा सम दुश्मन को वे जमकर रहे छकाते
छापामार युद्ध कर दुश्मन का दिल थे दहलाते
नहीं चिकित्सा हुई घाव की जमकर चढ़ा बुखार
भागमभाग कर रहे अनथक तनिक न हिम्मत हार
छब्बीस अप्रैल अट्ठारह सौ अट्ठावन दिन काला
महाकाल ने चुपके-चुपके अपना डेरा डाला
महावीर की अगवानी कर ले जाने यम आये
नील गगन से देवों ने बन बूंद पुष्प बरसाये
हाहाकार मचा जनता में दुश्मन हर्षाया था
अग्निदेव ने लीली काया पर मन भर आया था
लाल-लाल लपटें ज्वाला की कहती अमर रवानी
युग-युग पीढ़ी दर पीढ़ी दुहराकर अमर कहानी
सिमट जायेंगे निज सीमा में आंग्ल सैन्य दल भक्षक
देश विश्व का नायक होगा मानवता का रक्षक
शीश झुककर कुंवर सिंह की कीर्ति कथा गाएगी
भारत माता सुने-हँसेगी, आँखें भर आएँगी
***
मुक्तक सलिला :
.
हमसे छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं
दूर जाते भी नहीं, पास बुलाते भी नहीं
इन हसीनों के फरेबों से खुदा भी हारा-
गले लगते भी नहीं और लगाते भी नहीं
*
पीठ फेरेंगे मगर मुड़ के फिर निहारेंगे
फेर नजरें यें हसीं दिल पे दिल को वारेंगे
जीत लेने को किला दिल का हौसला देखो-
ये न हिचकेंगे 'सलिल' तुमपे दिल भी हारेंगे
*
उड़ती जुल्फों में गिरफ्तार कभी मत होना
बहकी अलकों को पुरस्कार कभी मत होना
थाह पाओगे नहीं अश्क की गहराई की-
हुस्न कातिल है, गुनाहगार कभी मत होना
*
***
सामयिक गीति रचना
देव बचाओ
*
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
पाला-पोसा, लिखा-पढ़ाया
जिसने वह समाज पछताये
दूध पिलाकर जिनको पाला
उनसे विषधर भी शर्माये
रुपया इनकी जान हो गया
मोह जान का इन्हें न व्यापे
करना इनका न्याय विधाता
वर्षों रोगी हो पछताये
रिश्ते-नाते
इन्हें न भाते
इनकी अकल ठिकाने लाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
बैद-हकीम न शेष रहे अब
नीम-हकीम डिगरियांधारी
नब्ज़ देखना सीख न पाये
यंत्र-परीक्षण आफत भारी
बीमारी पहचान न पायें
मँहगी औषधि खूब खिलाएं
कैंची-पट्टी छोड़ पेट में
सर्जन जी ठेंगा दिखलायें
हुआ कमीशन
ज्यादा प्यारा
हे हरि! इनका लोभ घटाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
इसके बदले उसे बिठाया
पर्चे कराया कर, नकल करी है
झूठी डिग्री ले मरीज को
मारें, विपदा बहुत बड़ी है
मरने पर भी कर इलाज
पैसे मांगे, ये लाश न देते
निष्ठुर निर्मम निर्मोही हैं
नाव पाप की खून में खेते
देख आइना
खुद शर्मायें
पीर हारें वह राह दिखाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
***
***
नवगीत:
*
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
कौन किसी का
कभी हुआ है?
किसको फलता
सदा जुआ है?
वही गिरा
आखिर में भीतर
जिसने खोदा
अंध कुआ है
बिन देखे जो
कूद रहा निश्चित
है गिर पड़ना
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
चोर-चोर
मौसेरे भाई
व्यापारी
अधिकारी
जनप्रतिनिधि
करते जनगण से
छिप-मिलकर
गद्दारी
लोकतंत्र को
लूट रहे जो
माफ़ नहीं करना.
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
नाग-साँप
जिसको भी
चुनिए चट
डंस लेता है
सहसबाहु
लूटे बिचौलिया
न्याय न
देता है
ज़िंदा रहने
खातिर हँसकर
सीखो मर मरना
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
***
नवगीत:
*
कुदरत का
अपना हिसाब है
.
कब, क्या, कहाँ,
किस तरह होता?
किसको कौन बताये?
नहीं किसी से
कोई पूछे
और न टांग अड़ाये
नफरत का
गायब नकाब है
कुदरत का
अपना हिसाब है
.
जब जो जहाँ
घटे या जुड़ता
क्रम नित नया बनाये
अटके-भटके,
गिरे-उठे-बढ़
मंजिल पग पा जाए
मेहनत का
उड़ता उकाब है
.
भोजन जीव
जीव का होता
भोज्य न शिकवा करता
मारे-खाये
नहीं जोड़ या
रिश्वत लेकर धरता
पाप न कुछ
सब कुछ
सबाब है.
१४-५-२०१५
***
एक गीति रचना:
करो सामना
*
जब-जब कंपित भू हुई
हिली आस्था-नीव
आर्तनाद सुनते रहे
बेबस करुणासींव
न हारो करो सामना
पूर्ण हो तभी कामना
ध्वस्त हुए वे ही भवन
जो अशक्त-कमजोर
तोड़-बनायें फिर उन्हें
करें परिश्रम घोर
सुरक्षित रहे जिंदगी
प्रेम से करो बन्दगी
संरचना भूगर्भ की
प्लेट दानवाकार
ऊपर-नीचे चढ़-उतर
पैदा करें दरार
रगड़-टक्कर होती है
धरा धीरज खोती है
वर्तुल ऊर्जा के प्रबल
करें सतत आघात
तरु झुक बचते, पर भवन
अकड़ पा रहे मात
करें गिर घायल सबको
याद कर सको न रब को
बस्ती उजड़ मसान बन
हुईं प्रेत का वास
बसती पीड़ा श्वास में
त्रास ग्रस्त है आस
न लेकिन हारेंगे हम
मिटा देंगे सारे गम
कुर्सी, सिल, दीवार पर
बैंड बनायें तीन
ईंट-जोड़ मजबूत हो
कोने रहें न क्षीण
लचीली छड़ें लगाओ
बीम-कोलम बनवाओ
दीवारों में फंसायें
चौखट काफी दूर
ईंट-जुड़ाई तब टिके
जब सींचें भरपूर
रैक-अलमारी लायें
न पल्ले बिना लगायें
शीश किनारों से लगा
नहीं सोइए आप
दीवारें गिर दबा दें
आप न पायें भाँप
न घबरा भीड़ लगायें
सजग हो जान बचायें
मेज-पलंग नीचे छिपें
प्रथम बचाएं शीश
बच्चों को लें ढांक ज्यों
हुए सहायक ईश
वृद्ध को साथ लाइए
ईश-आशीष पाइए
१३-५-२०१५
***
अभिनव प्रयोग:
गीत
वात्सल्य का कंबल
*
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
अब मिले सरदार सा सरदार भारत को
अ-सरदारों से नहीं अब देश गारत हो
असरदारों की जरूरत आज ज़्यादा है
करे फुलफिल किया वोटर से जो वादा है
एनिमी को पटकनी दे, फ्रेंड को फ्लॉवर
समर में भी यूँ लगे, चल रहा है शॉवर
हग करें क़ृष्णा से गंगा नर्मदा चंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
मनी फॉरेन में जमा यू टर्न ले आये
लाहौर से ढाका ये कंट्री एक हो जाए
दहशतों को जीत ले इस्लाम, हो इस्लाह
हेट के मन में भरो लव, शाह के भी शाह
कमाई से खर्च कम हो, हो न सिर पर कर्ज
यूथ-प्रायरटी न हो मस्ती, मिटे यह मर्ज
एबिलिटी ही हो हमारा,ओनली संबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
कलरफुल लाइफ हो, वाइफ पीसफुल हे नाथ!
राजमार्गों से मिलाये हाथ हँस फुटपाथ
रिच-पुअर को क्लोद्स पूरे गॉड! पहनाना
चर्च-मस्जिद को गले, मंदिर के लगवाना
फ़िक्र नेचर की बने नेचर, न भूलें अर्थ
भूल मंगल अर्थ का जाएँ न मंगल व्यर्थ
करें लेबर पर भरोसा, छोड़ दें गैंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
१४-५-२०१४
(इस्लाम = शांति की चाह, इस्लाह = सुधार)
***
बुन्देली मुक्तिका
*
१.
मन खों रखियो हर दम बस में.
पानी बहै न रस में नस में.
कसर न करियो स्रम करबे में.
खा खें तोड़ न दइयो कसमें.
जी से मिलबे खों जी तरसे
जी भर जी सें करियो रसमें.
गरदिस में जो संग निभाएं
संग उनई खों धरियों जस में.
कहूँ न ऐसो मजा मिलैगो
जैसो मजा मिलै बतरस में.
===
***
दोहा गाथा : ६
दोहा दिल में झांकता...
*
दोहा दिल में झांकता, कहता दिल की बात.
बेदिल को दिलवर बना, जगा रहा ज़ज्बात.
अरुण उषा के गाल पर, मलता रहा गुलाल.
बादल अवसर चूक कर, करता रहा मलाल.
मनु तनहा पूजा करे, सरस्वती की नित्य.
रंग रूप रस शब्द का, है संसार अनित्य.
कवि कविता से खेलता, ले कविता की आड़.
जैसे माली तोड़ दे, ख़ुद बगिया की बाड.
छंद भाव रस लय रहित, दोहा हो बेजान.
अपने सपने बिन जिए, ज्यों जीवन नादान.
अमां मियां! दी टिप्पणी, दोहे में ही आज.
दोहा-संसद के बनो, जल्दी ही सरताज.
अद्भुत है शैलेश का, दोहा के प्रति नेह.
अनिल अनल भू नभ सलिल, बिन हो देह विदेह.
निरख-निरख छवि कान्ह की, उमडे स्नेह-ममत्व.
हर्ष सहित सब सुर लखें, मानव में देवत्व.
याद रखें दोहा में अनिवार्य है:
१. दो पंक्तियाँ, २. चार चरण .
३. पहले एवं तीसरे चरण में १३-१३ मात्राएँ.
४. दूसरे एवं चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ.
५. दूसरे एवं चौथे चरण के अंत में लघु गुरु होना अनिवार्य.
६. पहले तथा तीसरे चरण के आरम्भ में जगण = जभान = १२१ का प्रयोग एक शब्द में वर्जित है किंतु दो शब्दों में जगण हो तो वर्जित नहीं है.
७. दूसरे तथा चौथे चरण के अंत में तगण = ताराज = २२१, जगण = जभान = १२१ या नगण = नसल = १११ होना चाहिए. शेष गण अंत में गुरु या दीर्घ मात्रा = २ होने के कारण दूसरे व चौथे चरण के अंत में नहीं रखे जा सकते .
उक्त तथा अपनी पसंद के अन्य दोहों में इन नियमों के पालन की जांच करिए, शंका होने पर चर्चा करें.
दोहा 'सत्' की साधना, करें शब्द-सुत नित्य.
दोहा 'शिव' आराधना, 'सुंदर' सतत अनित्य.
कविता से छल कवि करे, क्षम्य नहीं अपराध.
ख़ुद को ख़ुद ही मारता, जैसे कोई व्याध.
तप न करे जो वह तपन, कैसे पाये सिद्धि?
तप न सके यदि सूर्ये तो, कैसे होगी वृद्धि?
उक्त दोहा में 'तप' शब्द के दो भिन्न अर्थ तथा उसमें निहित अलंकार उसके विषय में लीजिए।
अजित अमित औत्सुक्य ही, -- पहला चरण, १३ मात्राएँ
१ १ १ १ १ १ २ २ १ २ = १३
भरे ज्ञान - भंडार. -- दूसरा चरण, ११ मात्राएँ
१ २ २ १ २ २ १ = ११
मधु-मति की रस सिक्तता, -- तीसरा चरण, १३ मात्राएँ
१ १ १ १ २ १ १ २ १ २ = १३
दे आनंद अपार. -- चौथा चरण, ११ मात्राएँ
२ २ २ १ १ २ १ = ११ मात्राएँ.
दो पंक्तियाँ (पद) तथा चार चरण सभी को ज्ञात हैं. पहली तथा तीसरी आधी पंक्ति (चरण) दूसरी तथा चौथी आधी पंक्ति (चरण) से अधिक लम्बी हैं क्योकि पहले एवं तीसरे चरण में १३-१३ मात्राएँ हैं जबकि दूसरे एवं चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ हैं. मात्रा से दूर रहनेवाले विविध चरणों को बोलने में लगने वाले समय, उतार-चढाव तथा लय का ध्यान रखें.
दूसरे एवं चौथे चरण के अंत पर ध्यान दें. किसी भी दोहे की पंक्ति के अंत में दीर्घ, गुरु या बड़ी मात्रा नहीं है. दोहे की पंक्तियों का अंत सम (दूसरे, चौथे) चरण से होता है. इनके अंत में लघु या छोटी मात्रा तथा उसके पहले गुरु या बड़ी मात्रा होती ही है. अन्तिम शब्द क्रमशः भंडार तथा अपार हैं. ध्यान दें की ये दोनों शब्द गजल के पहले शे'र की तरह सम तुकांत हैं दोहे के दोनों पदों की सम तुकांतता अनिवार्य है. भंडार तथा अपार का अन्तिम अक्षर 'र' लघु है जबकि उससे ठीक पहले 'डा' एवं 'पा' हैं जो गुरु हैं. अन्य दोहो में इसकी जांच करिए तो अभ्यास हो जाएगा.
ऊपर बताये गए नियम (' पहले तथा तीसरे चरण के आरम्भ में जगण = जभान = १२१ का प्रयोग एक शब्द में वर्जित है किंतु दो शब्दों में जगण हो तो वर्जित नहीं है.') की भी इसी प्रकार जांच कीजिये. इस नियम के अनुसार पहले तथा तीसरे चरण के प्रारम्भ में पहले शब्द में लघु गुरु लघु (१+२+१+४) मात्राएँ नहीं होना चाहिए. उक्त दोहों में इस नियम को भी परखें. किसी दोहे में दोहाकार की भूल से ऐसा हो तो दोहा पढ़ते समय लय भंग होती है. दो शब्दों के बीच का विराम इन्हें संतुलित करता है.
अन्तिम नियम दूसरे तथा चौथे चरण के अंत में तगण = ताराज = २२१, जगण = जभान = १२१ या नगण = नसल = १११ होना चाहिए. शेष गणों के अंत में गुरु या दीर्घ मात्रा = २ होने के कारण दूसरे व चौथे चरण के अंत में प्रयोग नहीं होते. एक बार फ़िर गण-सूत्र देखें- 'य मा ता रा ज भा न स ल गा'
गण का नाम विस्तार
यगण यमाता १+२+२
मगण मातारा २+२+२
तगण ताराज २+२+१
रगण राजभा २+१+२
जगण जभान १+२+१
भगण भानस २+१+१
नगण नसल १+१+१
सगण सलगा १+१+२
उक्त गण तालिका में केवल तगण व जगण के अंत में गुरु+लघु है. नगण में तीनों लघु है. इसका प्रयोग कम ही किया जाता है. नगण = न स ल में न+स को मिलकर गुरु मात्रा मानने पर सम पदों के अंत में गुरु लघु की शर्त पूरी होती है.
सारतः यह याद रखें कि दोहा ध्वनि पर आधारित सबसे अधिक पुराना छंद है. ध्वनि के ही आधार पर हिन्दी-उर्दू के अन्य छंद कालांतर में विकसित हुए. ग़ज़ल की बहर भी लय-खंड ही है. लय या मात्रा का अभ्यास हो तो किसी भी विधा के किसी भी छंद में रचना निर्दोष होगी.
किस्सा आलम-शेख का...
सिद्धहस्त दोहाकार आलम जन्म से ब्राम्हण थे लेकिन एक बार एक दोहे का पहला पद लिखने के बाद अटक गए. बहुत कोशिश की पर दूसरा पद नहीं बन पाया, पहला पद भूल न जाएँ सोचकर उन्होंने कागज़ की एक पर्ची पर पहला पद लिखकर पगडी में खोंस लिया. घर आकर पगडी उतारी और सो गए. कुछ देर बाद शेख नामक रंगरेजिन आयी तो परिवारजनों ने आलम की पगडी मैली देख कर उसे धोने के लिए दे दी.
शेख ने कपड़े धोते समय पगडी में रखी पर्ची देखी, अधूरा दोहा पढ़ा और मुस्कुराई. उसने धुले हुए कपड़े आलम के घर वापिस पहुंचाने के पहले अधूरे दोहे को पूरा किया और पर्ची पहले की तरह पगडी में रख दी. कुछ दिन बाद आलम को अधूरे दोहे की याद आयी. पगडी धुली देखी तो सिर पीट लिया कि दोहा तो गया मगर खोजा तो न केवल पर्ची मिल गयी बल्कि दोहा भी पूरा हो गया था. आलम दोहा पूरा देख के खुश तो हुए पर यह चिंता भी हुई कि दोहा पूरा किसने किया? अपने कौल के अनुसार उन्हें दोहा पूरा करनेवाले की एक इच्छा पूरी करना थी. परिवारजनों में से कोई दोहा रचना जानता नहीं था. इससे अनुमान लगाया कि दोहा रंगरेज के घर में किसी ने पूरा किया है, किसने किया?, कैसे पता चले?. उन्हें परेशां देखकर दोस्तों ने पतासाजी का जिम्मा लिया और कुछ दिन बाद भेद दिया कि रंगरेजिन शेख शेरो-सुखन का शौक रखती है, हो न हो यह कारनामा उसी का है.
आलम ने अपनी छोटी बहिन और भौजाई का सहारा लिया ताकि सच्चाई मालूम कर अपना वचन पूरा कर सकें. आखिरकार सच सामने आ ही गया मगर परेशानी और बढ़ गयी. बार-बार पूछने पर शेख ने दोहा पूरा करने की बात तो कुबूल कर ली पर अपनी इच्छा बताने को तैयार न हो. आलम की भाभी ने देखा कि आलम का ज़िक्र होते ही शेख संकुचा जाती थी. उन्होंने अंदाज़ लगाया कि कुछ न कुछ रहस्य ज़ुरूर है, कोशिश रंग लाई. भाभी ने शेख से कबुलवा लिया कि वह आलम को चाहती है. मुश्किल यह कि आलम ब्राम्हण और शेख मुसलमान... सबने शेख से कोई दूसरी इच्छा बताने को कहा, पर वह राजी न हुई. आलम भी अपनी बात से पीछे हटाने को तैयार न था. यह पेचीदा गुत्थी सुलझती ही न थी. तब आलम ने एक बड़ा फैसला लिया और मजहब बदल कर शेख से शादी कर ली. दो दिलों को जोड़ने वाला वह अमर दोहा अन्यथा अगली गोष्ठी में वह दोहा आपको बताया जाएगा.
दोहा-चर्चा का करें, चलिए यहीं विराम.
दोहे लिखिए-लाइए, खूब पाइए नाम.
१४-५-२०१३
***
एक दोहा
माँ ममता का गाँव है, शुभाशीष की छाँव.
कैसी भी सन्तान हो, माँ-चरणों में ठाँव..
१४-५-२०१२
*