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मंगलवार, 24 मार्च 2009

काव्य नर्मदा

किसने मेरी नींदें चुराईं

प्रदीप पाठक

किसने मेरी नींदें चुराईं,
किसने मुझे व्यथा सुनाई,
वो लोरी के बहाने आई -
लो फ़िर मौत दबे पाओं आई.

शिकार पर तो हम गए थे उसके,
साकार हुए थे सपने, हताश हुए थे जिसके,
वो ग़ज़ल में शेर के बहाने
आई,लो फ़िर मौत दबे पाओं आई.

हरे जख्मों को दफना दिया था हमने,
बर्बादी में भी सुकून दिखा दिया था हमने,
वो आंगन में मुस्कराहट के बहाने आई,
लो फ़िर मौत दबे पाओं आई.

समंदर के मांझियों ने किनारा दिखा दिया था,
सूरज ने भी चंदा को छुपा दिया था,
वो सावन में बरखा के बहाने आई,
लो फ़िर मौत दबे पाओं आई.

बेटे के कद को पिता ने ऊँचा पाया,
माँ ने भी उठ कर तिलक चंदन लगाया,
वो जवानी में नाकामी के बहाने आई,
लो फ़िर मौत दबे पाओं आई.

कब तक यूँ सेहेमता रहूँगा मैं,
कब तक रोज़ मरता रहूँगा मैं,
जाने कब ज़िन्दगी मेरे गर्व को सहारा देगी,
न जाने कब मौत को हरा सकूँगा मैं

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