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शुक्रवार, 20 मार्च 2009

दोहे डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र, देहरादून

नदियों के इस देश में, अपना यही वजूद।
पहले डूबा टेहरी, अब डूबा हरसूद।

चाहे वह हो सीकरी, चाहे वह हो ताज।
खाली घर में गूँजती, है भरी आवाज।

मन का रिश्ता भूलकर, तन का रिश्ता जोड़।
इस परदेसी शहर में, गंवई बातें छोड़।

पवन बसन्ती रात-दिन, मारे सूखी मार।
फिर भी लौटाए नहीं, मन जो लिया उधार।

सुधियों में फागुन गया, दुविधा गया सनेह।
भीगे मन की छाँव में, सगुन मनाती देह.

रूपाजीवी-साधू में, सदा रही तकरार।
कान्चीमठ से है खफा, इसीलिये सरकार।

आँगन में ही नीम था, किन्तु न समझा मोल।
रोगी था मधुमेह का, मरा खुली तब पोल।

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