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रविवार, 8 मार्च 2009

kaaljayee कविता

खूनी हस्‍ताक्षर

कवि: गोपाल प्रसाद व्यास

वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का, आ सके देश के काम नहीं।

वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें जीवन, न रवानी है!
जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है!

उस दिन लोगों ने सही-सही, खून की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में, मॉंगी उनसे कुरबानी थी।

बोले, स्‍वतंत्रता की खातिर, बलिदान तुम्‍हें करना होगा।
तुम बहुत जी चुके जग में, लेकिन आगे मरना होगा।

आज़ादी के चरणें में जो, जयमाल चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्‍हारे शीशों के, फूलों से गूँथी जाएगी।

आजादी का संग्राम कहीं, पैसे पर खेला जाता है?
यह शीश कटाने का सौदा, नंगे सर झेला जाता है"

यूँ कहते-कहते वक्‍ता की, ऑंखें में खून उतर आया!
मुख रक्‍त-वर्ण हो दमक उठा, दमकी उनकी रक्तिम काया!

आजानु-बाहु ऊँची करके, वे बोले,"रक्‍त मुझे देना।
इसके बदले भारत की, आज़ादी तुम मुझसे लेना।"

हो गई उथल-पुथल, सीने में दिल न समाते थे।
स्‍वर इनकलाब के नारों के, कोसों तक छाए जाते थे।

"हम देंगे-देंगे खून", शब्‍द बस यही सुनाई देते थे।
रण में जाने को युवक खड़े, तैयार दिखाई देते थे।

बोले सुभाष," इस तरह नहीं, बातों से मतलब सरता है।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं, आकर हस्‍ताक्षर करता है?

इसको भरनेवाले जन को, सर्वस्‍व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन, माता को अर्पण करना है।

पर यह साधारण पत्र नहीं, आज़ादी का परवाना है।
इस पर तुमको अपने तन का, कुछ उज्‍जवल रक्‍त गिराना है!

वह आगे आए जिसके तन में, भारतीय ख़ूँ बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को, हिंदुस्‍तानी कहता हो!

वह आगे आए, जो इस पर, खूनी हस्‍ताक्षर करता हो!
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए, जो इसको हँसकर लेता हो!"

सारी जनता हुंकार उठी- हम आते हैं, हम आते हैं!
माता के चरणों में यह लो, हम अपना रक्‍त चढ़ाते हैं!

साहस से बढ़े युबक उस दिन, देखा, बढ़ते ही आते थे!
चाकू-छुरी कटारियों से, वे अपना रक्‍त गिराते थे!

फिर उस रक्‍त की स्‍याही में, वे अपनी कलम डुबाते थे!
आज़ादी के परवाने पर, हस्‍ताक्षर करते जाते थे!

उस दिन तारों ना देखा था, हिंदुस्‍तानी विश्‍वास नया।
जब लिखा था महा रणवीरों ने, ख़ूँ से अपना इतिहास नया।

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शक्ति और क्षमा !

कवि: रामधारी सिंह "दिनकर"

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ सुयोधन तुमसे, कहो कहाँ कब हारा?

क्षमाशील हो ripu -सक्षम, तुम हुये विनीत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको, कायर समझा उतना ही

क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल है
उसका क्या जो दंतहीन, विषरहित विनीत सरल है

तीन दिवस तक पंथ मांगते, रघुपति सिंधु किनारे
बैठे पढते रहे छन्द, अनुनय के प्यारे प्यारे

उत्तर में जब एक नाद भी, उठा नही सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की, आग राम के शर से

सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि, करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता गृहण की, बंधा मूढ़ बन्धन में

सच पूछो तो शर में ही, बसती है दीप्ति विनय की
संधिवचन सम्पूज्य उसीका, जिसमे शक्ति विजय की

सहनशीलता, क्षमा, दया को, तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके, पीछे जब जगमग है !

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