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गुरुवार, 21 मई 2009

काव्य-किरण: आचार्य संजीव 'सलिल'

नवगीत

सारे जग को
जान रहे हम,
लेकिन खुद को
जान न पाए...

जब भी मुड़कर
पीछे देखा.
गलत मिला
कर्मों का लेखा.
एक नहीं
सौ बार अजाने
लाँघी थी निज
लछमन रेखा.

माया-ममता,
मोह-लोभ में,
फँस पछताए-
जन्म गँवाए...

पाँच ज्ञान की,
पाँच कर्म की,
दस इन्द्रिय
तज राह धर्म की.
दशकन्धर तन
के बल ऐंठी-
दशरथ मन में
पीर मर्म की.

श्रवण कुमार
सत्य का वध कर,
खुद हैं- खुद से
आँख चुराए...

जो कैकेयी
जान बचाए.
स्वार्थ त्याग
सर्वार्थ सिखाये.
जनगण-हित
वन भेज राम को-
अपयश गरल
स्वयम पी जाये.

उस सा पौरुष
जिसे विधाता-
दे वह 'सलिल'
अमर हो जाये...

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5 टिप्‍पणियां:

vishwas gupta ने कहा…

अच्छा गीत है ........... सराहनीय

mayank ने कहा…

man ko bhaya.

babli ने कहा…

बहुत बहुत शुक्रिया मेरे ब्लॉग पर आने के लिए! मेरे दूसरे ब्लोगों पर भी आपका स्वागत है!
आपका ब्लॉग बहुत ही बढ़िया लगा! बहुत ही सुंदर कविता लिखा है आपने!

अर्चना श्रीवास्तव, रायपुर ने कहा…

भाव प्रवण नव गीत, प्रान्जल भाषा, सम्यक बिम्ब विधान.

pramod jain ने कहा…

geet man ko bhaya. aap achchha likhte hain, lay ekdam sahee.