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सोमवार, 18 मई 2009

-: काव्य किरण :-



नव गीत


आचार्य संजीव 'सलिल'

टूटा नीड़,

व्यथित है पाखी।

मूक कबीरा

कहे न साखी।



संबंधों के

अनुबंधों में

सिसक रही

है

बेबस राखी।



नहीं नेह को

मिले

ठांव क्यों?...



पूरब पर

पश्चिम

का साया।

बौरे गाँव

ऊँट ज्यों आया।



लाल बुझक्कड़

बूझ रहे है,

शेख चिल्लियों

का कहवाया।



कूक मूक क्यों?

मुखर काँव क्यों??...



बरगद सबकी

चिंता करता।

हँसी उड़ाती-

पतंग, न चिढ़ता।



कट-गिरती तो

आँसू पोंछे,

चेतन हो जाता

तज जड़ता।

पग-पग पर है

चाँव-चाँव क्यों?...



दीप-ज्योति के

तले अँधेरा,

तम से

जन्मे

सदा सवेरा।



माटी से-

मीनार

गढें हम।

माटी ने फिर

हमको टेरा।



घाट कहीं क्यों?

कहीं नाव क्यों??...

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