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सोमवार, 15 जून 2009

कविता: शोभना चौरे

कविता

शोभना चौरे

तार तार रिश्तों को

आज महसूस किया|

मैंने बार-बार सीने की कोशिश में

अपने हाथों में सुई भी चुभोई|

किन्तु रिश्तों की चादर

और अधिक जर्जर होती गई

क्या उसे फेंक दूँ?

या संदूक में रख दूँ?

सोचती रही भावना शून्य क्या सच है ?

कितनी ही बार का भावना शून्य व्यवहार

मानस पटल पर अंकित हो गया

चादर तार तार जरूर थी पर उसके रंग गहरे थे |

और उन रंगों ने मुझे फ़िर

भावना की गर्माहट दी

और मैं पुनः उन रंगों को पुकारने लगी |

उन पर होने लगी फ़िर से आकर्षित

उस चादर को फ़िर से सहेजा ,

और उसमें खुश्बू भी ढूंढने लगी

और उस खुशबू ने मुझे

ममता का अहसास दे दिया

और मैंने चादर को फ़िर सहलाकर

सहेजकर रख दिया|

रिशतों की महक को महकने के लिए |



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1 टिप्पणी:

sanjiv 'salil' ने कहा…

shobhana ji!

achchhee rachna.