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गुरुवार, 9 जुलाई 2009

गजल मनु बेतखल्लुस

क्या अपने हाथ से निकली नज़र नहीं आती ?
ये नस्ल, कुछ तुझे बदली नज़र नहीं आती ?

किसी भी फूल पे तितली नज़र नहीं आती
हवा चमन की क्या बदली नज़र नहीं आती ?

ख्याल जलते हैं सेहरा की तपती रेतों पर
वो तेरी ज़ुल्फ़ की बदली नज़र नहीं आती

हज़ारों ख्वाब लिपटते हैं निगाहों से मगर
ये तबियत है कि बहली नज़र नहीं आती

न रात, रात के जैसी सियाह दिखती है
सहर भी, सहर सी उजली नज़र नहीं आती

हमारी हार सियासत की मेहरबानी सही
ये तेरी जीत भी, असली नज़र नहीं आती

कहाँ गए वो, निशाने को नाज़ था जिनपे
कि अब तो आँख क्या, मछली नज़र नहीं आती

न जाने गुजरी हो क्या, उस जवां भिखारिन पर
कई दिनों से वो पगली, नज़र नहीं आती


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4 टिप्‍पणियां:

शोभना चौरे ने कहा…

bhut umda gjal.

Divya Narmada ने कहा…

मनु जी! आपके अंदाजे-बयां औरों से अलग है.
मैं तो आपका मुरीद हूँ.

pramod jain ने कहा…

nice one

dr. sadhana varma ने कहा…

umda gazal.