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बुधवार, 7 अप्रैल 2010

स्तुति: : हर-हर गंगे... संजीव 'सलिल'

स्तुति: : हर-हर गंगे...

संजीव 'सलिल'

हर-हर गंगे...,हर-हर गंगे...
*
सदियों से तुम सतत प्रवाहित
परिवर्तन की बनीं गवाही.
तुममें जीवन-शक्ति अनूठी
उसने पाई, जिसने चाही.
शतगुण जेठी रेवा का सुत-
मैया! तुमको नमन कर रहा -
'सलिल'-साधना सफल करो माँ
हर-हर गंगे...,हर-हर गंगे...
*
लहर-लहर में लहराती है
भागीरथ की कथा सुहानी.
पलीं पीढ़ियाँ कह, सुन, लिख-पढ़-
गंगा-सुत की व्यथा पुरानी.
हिमगिरि से सागर तक प्रवहित-
तार रहीं माँ भव-सागर से.
तर पायें तव कृपा-कोर पा.
हर-हर गंगे...,हर-हर गंगे...
*
पाप-ताप धो-धोकर माता!
हमने मैला नीर किया है.
उफ़ न कर रहीं धार सूखती.
हम शर्मिन्दा दर्द दिया है.
'सलिल' अमल-निर्मल हो फिर से
शुद्ध-बुद्ध हो नमन कर सकें-
विमल भक्ति दो, अचल शक्ति दो
हर-हर गंगे...,हर-हर गंगे...
**************
नेपाल यात्रा पर जाते समय २१.६.२००९ को वाराणसी में गंगा स्नान पश्चात् रची गयी.
http://divyanarmada.blogspot.com

7 टिप्‍पणियां:

ahutee@gmail.com ने कहा…

सुन्दर स्तुति! साधुवाद सलिल जी !
कमल

achal verma, ekavita ने कहा…

सलिल जी ,
मैं तो गद-गद हो गया, इस स्तुतिगान को पढ़कर और कुछ मैं अपनी और से जोड़ दूं,तो बुरा नहीं मानेगे आप |
"तुम केवल पावन प्रवाह ही नहीं,
हमारी माता भी हो,
जो हैं तेरे तीर बसे उन
सब की भाग्य विधाता भी हो,
बहते रस की धार,
बहाती जाती हो तुम वैभव भी,
अमृत कासा नीर, हमारे
इतिहासों की ज्ञाता भी हो|
हर से आई, हरि से आई,
हरियाली फैलाती आई|
हर हर गंगे, आशीष तुम्हारा
सदा-सदा ही सुखदाई||"

Your's ,

Achal Verma

कमल ने कहा…

आ० अचल जी ,
जो कुछ भी आपने जोड़ा वह भी अति मन-मुग्धकारी है | आप की सुन्दर भावाभिव्यक्ति के
लिये साधुवाद !
कमल

mcdewedy@gmail.com ने कहा…

सुन्दर गंगा-स्तुति है सलिल जी. बधाई.
महेश चन्द्र द्विवेदी

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

माननीय अचल जी, कमलजी, आहुति जी, आप सब का आभार. आपको समर्पित एक पद-

*
हो शशीश-शीश की शोभा,
देती हो आशीष 'अचल'.
'सलिल'-विनय आँचल में फिर से
देखे अगणित खिले 'कमल'.
सिय-रघुराई विचरें तट पर-
'आहुति' देकर निज सुख की
सता फिर से जन-उन्मुख हो
हर-हर गंगे...हर-हर गंगे...
*

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

आत्मीय महेश जी!
वन्दे मातरम.
गंगा-स्तुति में आप अपने पर्यायवाची शब्द 'शशीश' में अन्तर्निहित हैं इसी लिए आपको पृथक आभार...'हो महेश-मस्तक की शोभा' के स्थान पर शशीश-शीश को चुनने का कारण केवल अनुप्रास का मोह है. पाठक अपनी रुची के अनुकूल चयन कर सकते हैं. आप सभी का पुनः आभार.

pratibha_saksena@yahoo.com ने कहा…

आ.सलिल जी एवं अचल जी ,
गंगा के प्रति अति भावमय उद्गार!
मन प्रसन्न हो गया . गंगा के सान्निध्य की स्मृतियाँ फिर वही सुख दे गईँ.
इस रमणीयता और पावनता पर मेरी भावनाएं भी व्यक्त हुई हैं लेकिन वह गद्य में है .
बहुत अच्छा लगा .
दोनों का आभार.
सादर, प्रतिभा.