कुल पेज दृश्य

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

भोजपुरीदोहा सलिला : संजीव 'सलिल'

भोजपुरीदोहा सलिला :

संजीव 'सलिल'

दोहा का रचना विधान:

दोहा में दो पद (पंक्तियाँ) तथा हर पंक्ति में २ चरण होते हैं. विषम (प्रथम व तृतीय) चरण में १३-१३
मात्राएँ तथा सम (२रे व ४ थे) चरण में ११-११
मात्राएँ, इस तरह हर पद में २४-२४ कुल ४८ मात्राएँ होती हैं. दोनों पदों या
सम चरणों के अंत में गुरु-लघु मात्र होना अनिवार्य है. विषम चरण के आरम्भ
में एक ही शब्द जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित है. विषम चरण के अंत में सगण,
रगण या नगण तथा सम चरणों के अंत में जगण या तगण हो तो दोहे में लय दोष
स्वतः मिट जाता है. अ, इ, , ऋ लघु (१) तथा शेष सभी गुरु (२) मात्राएँ
गिनी जाती हैं


दोहा के रंग, भोजपुरी के संग:


कइसन होखो कहानी, नहीं साँच को आँच.
कंकर संकर सम पूजहिं, ठोकर खाइल कांच..

कोई किसी भी प्रकार से झूठा-सच्चा या घटा-बढाकर कहे सत्य को हांनि नहीं पहुँच सकता. श्रद्धा-विश्वास के कारण ही कंकर भी शंकर सदृश्य पूजित होता है जबकि झूठी
चमक-दमक धारण करने वाला काँच पल में टूटकर ठोकरों का पात्र बनता है.

*
कतने घाटल के पियल, पानी- बुझल न प्यास.
नेह नरमदा घाट चल, रहल न बाकी आस..

जीवन भर जग में यहाँ-वहाँ भटकते रहकर घाट-घाट का पानी पीकर भी तृप्ति नहीं मिली किन्तु स्नेह रूपी आनंद देनेवाली पुण्य सलिला (नदी) के घाट पर ऐसी तृप्ति मिली की
और कोई चाह शेष न रही.

*
गुन अवगुन कम- अधिक बा, ऊँच न कोई नीच.
मिहनत श्रम शतदल कमल, मोह-वासना कीच..

अलग-अलग इंसानों में गुण-अवगुण कम-अधिक होने से वे ऊँचे या नीचे नहीं हो जाते. प्रकृति ने सबको एक सम़ान बनाया है. मेंहनत कमल के समान श्रेष्ठ है जबकि मोह और वासना कीचड के समान त्याग देने योग्य
है. भावार्थ यह की मेहनत करने वाला श्रेष्ठ है जबकि मोह-वासना में फंसकर
भोग-विलास करनेवाला निम्न है.

*
नेह-प्रेम पैदा कइल, सहज-सरल बेवहार.
साँझा सुख-दुःख बँट गइल, हर दिन बा तिवहार..

सरलता तथा स्नेह से भरपूर व्यवहार से ही स्नेह-प्रेम उत्पन्न होता है. जिस परिवार में सुख तथा दुःख को मिल बाँटकर सहन किया जाता है वहाँ हर दिन त्यौहार की तरह खुशियों से भरा होता है..
*
खूबी-खामी से बनल, जिनगी के पिहचान.
धूप-छाँव सम छनिक बा, मान अउर अपमान..

ईश्वर ने दुनिया में किसी को पूर्ण नहीं बनाया है. हर इन्सान की ज़िन्दगी की पहचान उसकी अच्छाइयों और बुराइयों से ही होती है. जीवन में मान और अपमान धुप और
छाँव की तरह आते-जाते हैं. सज्जन व्यक्ति इससे प्रभावित नहीं होते.

*
सहरन में जिनगी भयल, कुंठा-दुःख-संत्रास.
केई से मत कहब दुःख, सुन करिहैं उपहास..

शहरों में आम आदमी की ज़िन्दगी में कुंठा, दुःख और संत्रास की पर्याय बन का रह गयी है किन्तु अपना अपना दुःख किसी से न कहें, लोग सुनके हँसी उड़ायेंगे, दुःख
बाँटने कोई नहीं आएगा.

*
(इसी आशय का एक दोहा महाकवि रहीम का भी है:

रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही रखियो गोय.
सुन हँस लैहें लोग सब, बाँट न लैहें कोय..)
*
फुनवा के आगे पड़ल, चीठी के रंग फीक.
सायर सिंह सपूत तो, चलल तोड़ हर लीक..

समय का फेर देखिये कि किसी समय सन्देश और समाचार पहुँचाने में सबसे अधिक भूमिका निभानेवाली चिट्ठी का महत्व दूरभाष के कारण कम हो गया किन्तु शायर, शेर और
सुपुत्र हमेशा ही बने-बनाये रास्ते को तोड़कर चलते हैं.

*
बेर-बेर छटनी क द स, हरदम लूट-खसोट.
दुर्गत भयल मजूर के, लगल चोट पर चोट..

दुनिया का दस्तूर है कि बलवान आदमी निर्बल के साथ बुरा व्यव्हार करते हैं. ठेकेदार बार-बार मजदूरों को लगता-निकलता है, उसके मुनीम कम मजदूरी देकर मजदूरों को
लूटते हैं. इससे मजदूरों की उसी प्रकार दशा ख़राब हो जाती है जैसे चोट लगी
हुई जगह पर बार-बार चोट लगने से होती है.

*
दम नइखे दम के भरम, बिटवा भयल जवान.
एक कमा दू खर्च के, ऊँची भरल उडान..

किसी व्यक्ति में ताकत न हो लेकिन उसे अपने ताकतवर होने का भ्रम हो तो वह किसी से भी लड़ कर अपनी दुर्गति करा लेता है. इसी प्रकार जवान लड़के अपनी कमाई का ध्यान न रखकर हैसियत से अधिक खर्च कर
परेशान हो जाते हैं..

*

रूप धधा के मोर जस, नचली सहरी नार.
गोड़ देख ली छा गइल, घिरना- भागा यार..

*
बाग़-बगीचा जाइ के, खाइल पाकल आम.
साझे के सेनुरिहवा, मीठ लगल बिन दाम..
*
अजबे चम्मक आँखि में, जे पानी हिलकोर.
कनवा राजकुमार के, कथा कहsसु जे लोर..
*
कहतानी नीमन कsथा, जाई बइठि मचान.
ऊभ-चूभ कउआ हंकन, हीरामन कहतान..
*
कँकहि फेरि कज्जर लगा, शीशा देखल बेर.
आपन आँचर सँवारत, पल-पल लगल अबेर..
*
पनघट के रंग अलग बा, आपनपन के ठौर.
निंबुआ अमुआ से मिले, फगुआ अमुआ बौर..
*
खेत हु
रहा खेत क्यों, 'सलिल' सून खलिहान?
सुन सिसकी चौपाल के, पनघट के पहचान..
*
आपन गलती के मढ़े, दूसर पर इल्जाम.
मतलब के दरकार बा, भारी-भरकम नाम..
*
परसउती के दरद के, मर्म न बूझै बाँझ.
दुपहरिया के जलन के, कइसे समझे साँझ?.
*
कौन
के न चिन्हाsइल, मति में परि गै भाँग.
बिना बात के बात खुद, खिचहैं आपन टाँग..
*
अउरत अइसन छ
हँतरी, हुलिया देत बिगाड़.
मरद बनाइल नामरद, करिके तिल के ताड़..
*
भोजपुरी खातिर 'सलिल', जान लड़इहै कौन?
अइसन खाँटी मनख कम, जे करि रइहैं मौन..
*

खाली चौका देखि कै, दिहले चूहा भाग.
चौंकि परा चूल्हा निरख, आपन मुँह में आग..
*
'सलिल' रखे संसार में, सभका खातिर प्रेम.
हर पियास हर किसी की, हर की चाहे छेम..
*
कउनौ  बाधा-विघिन के, आगे मान न हार.
श्रद्धा आ सहयोग के, दम पे उतरल पार..
*
कब आगे का होइ? ई, जो ले जान- सुजान.
समझ-बूझ जेकर नहीं, कहिये है नादान..
*
शशि जी के अनुरोध पर दोहा पर चर्चा के लिये फ़ोरम में दोहे लगाये हैं. इन्हें पढ़कर पाठक इनके अर्थ टिप्पणियों में बताएँ तथा
मात्रा गिनें तो अभ्यास हो सकेगा और वे खुद भी दोहा लिख सकेंगे. मेरा
उद्देश्य खुद लिखना मात्र नहीं अपितु अनेक सिद्ध दोहाकार तैयार करना है. आप
अर्थ बताएँगे तो मैं समझ सकूँगा कि मैंने जिस अर्थ में लिखा वह पाठक तक
पहुँचा या नहीं. संचालक सहयोग कर कोई प्रकाशक खोज सकें तो भोजपुरी में
'दोहा सतसई' प्रकाशित हो. मैं ७०० दोहे रचने का प्रयास करता हूँ. एक
सामूहिक संकलन भी हो हर दोहाकार के १०-१० या १००-१०० दोहे लेकर भी
सतसई बन सकती है. आप सबकी राय क्या है? भोजपुरी के हर साहित्य
प्रेमी के हाथ में श्रेष्ठ साहित्यिक पुस्तक देने से ही भाषा का विकास
होगा. इसी तरह भोजपुरी में ग़ज़ल, गीतिका, हाइकु, गीत आदि के संकलन हों.
मैं हर संभव सहयोग हेतु तत्पर हूँ.

एक काम और हो...भोजपुरी के साहित्यिक गीतों, दोहों का गायन कर यहाँ लगाया
जाये तथा सी.डी. बनें. जब उत्तम गीत नहीं मिलेंगे तो लोग बाजारू ही सुन रहे
हैं. आप सबने पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया दी है... अब यहाँ भी अपना मत
उदारता और शीघ्रता से व्यक्त करें. दोहा रचने संबंधी प्रश्न और कठिनाइयाँ
अवश्य सामने लायें.


.
**********************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

Tags: 'सलिल', आचार्य,
कविता,
छंद,
दोहा,
भाषा,
भोजपुरी,
लोक,
संजीव,
सामयिक

कोई टिप्पणी नहीं: