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मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

गीतिका: झुलस रहा गाँव ... ---आचार्य संजीव 'सलिल'


नवगीत :
झुलस रहा गाँव 
संजीव 'सलिल'
*
झुलस रहा गाँव  
घाम में झुलस रहा...
*
राजनीति बैर की उगा रही फसल.
मेहनती युवाओं की खो गयी नसल..
माटी मोल बिक रहा बजार में असल.
शान से सजा हुआ है माल में नक़ल..

गाँव शहर से कहो
कहाँ अलग रहा?
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
एक दूसरे की लगे जेब काटने.
रेवड़ियाँ चीन्ह-चीन्ह लगे बाँटने.
चोर-चोर के लगा है एब ढाँकने.
हाथ नाग से मिला लिया है साँप ने..

'सलिल' भले से भला ही
क्यों विलग रहा?.....
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
********************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

9 टिप्‍पणियां:

आनन्‍द पाण्‍डेय ने कहा…

beautiful picture sir

rachna bhi mind blowing

M VERMA ने कहा…

झुलस रहा गाँव
इतनी तपिश है तो झुलसेगा ही
सधी हुई रचना और जीवंत चित्र के लिये आभार

मनोज कुमार ने कहा…

एक बेहतरीन नवगीत!

rashmi ravija ने कहा…

सुन्दर नवगीत....गाँव सचमुच झुलस रहा है...और मेहनती नवयुवकों की नस्ल खो रही है..

दिलीप ने कहा…

samajik paridrishya ko dikhati rachna..sadar pranaam...

Rajendra Swarnkar ने कहा…

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'जी ,
प्रणाम !
बहुत बढ़िया नव गीत है । वर्तमान की विद्रूपताएं साक्षात खड़ी दृष्टिगत हो रही है , जिन पर एक समर्थ रचनाकार की चिंताएं परिलक्षित हो रही हैं । साधुवाद !
… लेकिन आचार्यजी ,
प्रथम बंध " राजनीति बैर की … … … माल में नक़ल " में

'शान से सजा माल में नक़ल' पंक्ति पहली तीन पंक्तियों से छोटी नहीं लग रही ?
मात्रा भी कम है , लय भी भंग प्रतीत हो रही है । अवश्य ही कंपोजिंग की त्रुटि होगी । अथवा मैं कम समझ पा रहा हूं ?

गुणी सामने हो तो शंका समाधान में संकोच नहीं करना चाइए यही सोच कर अति विनम्रता से बात रखी है …।
- राजेन्द्र स्वर्णकार

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा रचना!

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा रचना!

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने कहा…

टंकण में हुई त्रुटि हेतु खेद है. सुधार कर दिया है. आपको सजगता हेतु धन्यवाद.