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मंगलवार, 11 मई 2010

मुक्तिका: कुछ हवा दो.... --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

संजीव 'सलिल'

कुछ हवा दो अधजली चिंगारियाँ फिर बुझ न जाएँ.
शोले जो दहके वतन के वास्ते फिर बुझ न जाएँ..

खुद परस्ती की सियासत बहुत कर ली, रोक दो.
लहकी हैं चिंगारियाँ फूँको कि वे फिर बुझ न जाएँ..

प्यार की, मनुहार की, इकरार की, अभिसार की
मशालें ले फूँक दो दहशत, कहीं फिर बुझ न जाएँ..

ज़हर से उतरे ज़हर, काँटे से काँटा दो निकाल.
लपट से ऊँची लपट करना 'सलिल' फिर बुझ न जाएँ...

सब्र की हद हो गयी है, ज़ब्र की भी हद 'सलिल'
चिताएँ उनकी जलाओ इस तरह फिर बुझ न जाएँ..

6 टिप्‍पणियां:

krishna ... ने कहा…

....... - it's beautiful yaar.............

Kloé Jackson - ने कहा…

wat is that wroting?

Vijay Kumar Sappatti - ने कहा…

sahi hai ji ..shaandar ,,,,aur jaandar ....

James Pizon - ने कहा…

i saw again

Divya Narmada ने कहा…

Kloé Jackson!
brother it is HINDI, national language of INDIA.

अरुणेश मिश्र ने कहा…

प्रशंसनीय ।