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बुधवार, 26 मई 2010

मुक्तिका: मन का इकतारा.... --संजीव 'सलिल'

 : मुक्तिका :
मन का इकतारा
संजीव 'सलिल'
*
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*
मन का इकतारा तुम ही तुम कहता है.
जैसे नेह नर्मदा में जल बहता है..
*
सब में रब या रब में सब को जब देखा.
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है..
*
जिसको कोई गैर न कोई अपना है.
हँस सबको वह, उसको सब जग सहता है..
*
मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है..
*
जिसने जोड़ा वह तो खाली हाथ गया.
जिसने बाँटा वह ही थोड़ा गहता है..
*
जिसको पाया सुख की करते पहुनाई.
उसको देखा बैठ अकेले दहता है..
*
सच का सूत न समय कात पाया लेकिन
सच की चादर 'सलिल' कबीरा तहता है.
****
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

7 टिप्‍पणियां:

M VERMA ने कहा…

M VERMA :

सब मे रब या रब में सब को जब देखा
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है

समभाव शायद इसी को कहते हैं
बहुत सुन्दर

Udan Tashtari ने कहा…

Udan Tashtari :

अति सुन्दर!!

अमिताभ मीत ने कहा…

अमिताभ मीत :

वाह ! बहुत बढ़िया !!

Achal Verma ने कहा…

achal verma, ekavita

आचार्य सलिल ,

बहुत ही सुन्दर , बहुत ही श्रेष्ठ रचना .
मेरे विचार भी आपसे बहुत मिलते जुलते हैं , पर आपकी भाषा में प्रवाह है
और हर एक पंक्ति सशक्त है.



Your's ,

Achal Verma

शार्दुला ने कहा…

shar_j_n, ekavita

आदरणीय आचार्य जी,
परम सुन्दर भाव!
सादर शार्दुला

प्रताप ने कहा…

pratapsingh1971@gmail.com

आदरणीय आचार्य जी

क्या कहने हैं आपके ! बहुत ही सुन्दर !


मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है.. ......... क्या बात है !

सादर
प्रताप

Divya Narmada ने कहा…

अचल प्रताप आपका है शार्दुला जी!
'सलिल' चरण प्रतिभा के छूने बहता है..
*
उत्साहवर्धन हेतु आभारी हूँ.