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सोमवार, 31 मई 2010

मुक्तिका: प्यार-मुहब्बत नित कीजै.. --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
संजीव 'सलिल'
*












*
अंज़ाम भले मरना ही हो हँस प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
रस-निधि पाकर रस-लीन हुए, रस-खान बने जी भर भीजै.

जो गिरता वह ही उठता है, जो गिरे न उठना क्या जाने?
उठकर औरों को उठा, न उठने को कोई कन्धा लीजै..

हो वफ़ा दफा दो दिन में तो भी इसमें कोई हर्ज़ नहीं
यादों का खोल दरीचा, जीवन भर न याद का घट छीजै..

दिल दिलवर या कि ज़माना ही, खुश या नाराज़ हो फ़िक्र न कर.
खुश रह तू अपनी दुनिया में, इस तरह कि जग तुझ पर रीझै..

कब आया कोई संग, गया कब साथ- न यह मीजान लगा.
जितने पल जिसका संग मिला, जी भर खुशियाँ दे-ले जीजै..

अमृत या ज़हर कहो कुछ भी पीनेवाले पी जायेंगे.
आनंद मिले पी बार-बार, ऐसे-इतना पी- मत खीजै.. 

नित रास रचा- दे धूम मचा, ब्रज से यूं.एस. ए.-यूं. के. तक.
हो खलिश न दिल में तनिक 'सलिल' मधुशाला में छककर पीजै..

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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

3 टिप्‍पणियां:

achal verma ekavita ने कहा…

गुरुवर, सलिल जी ,
कविता तो बहुत सुन्दर लगी , पर कुछ शब्द क्लिष्ट लगे
मीजान

खलिश

Achal Verma ने कहा…

ये "यु" के ऊपर का विन्दु क्या ठीक है ?
बुरा मानने की बात नहीं , कविता का पूरा लाभ उसे ठीक ठीक समझने पर ही मिल सकता है |
मुझ अनभिज्ञ पर कृपा बनाए रखियेगा |
Your's ,

Achal Verma

Divya Narmada ने कहा…

परम आदरणीय खलिश जी!, माननीय अचल जी!
सादर वन्दे मातरम.
आप दोनों ने मुझ बालक की धृष्टता को न केवल सहन किया अपितु सराहकर उत्साहवर्धन भी किया, आभारी हूँ. जैसे बच्चा पिता को चलते देखकर कोशिश कर गिर-उठ कभी न कभी चलना सीख जाता है, वैसे ही आपकी रचनाओं को पढ़कर मेरी भी कोशिश जारी है शायद कभी कुछ पढ़ने लायक लिख सकूँ. ऐसी ही कृपा बनाये रखिये.
मीजान = हिसाब, जोड़-घटाना.
यू पर बिंदी लग जाना मेरी टंकण-त्रुटि है. क्षमा प्रार्थी हूँ.
रसनिधि, रसलीन तथा रसखान हिन्दी के मूर्धन्य तथा कालजयी कवि हैं.