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मंगलवार, 8 जून 2010

काव्य दोष या समझ का अंतर? ...

काव्य दोष या समझ का अंतर? ...

ई कविता पर एक प्रसंग में महाकवि तुलसी के काव्य को लेकर हुई चर्चा दिव्य नर्मदा के पाठकों के लिए प्रस्तुत है.
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आनंद कृष्ण: मैं आप सबके सामने गोस्वामी तुलसीदास का एक दोहा प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमें "क्रम-विपर्यय" का दोष है-
 
सचिव, बैद, गुरु तीनि जो, प्रिय बोलहिं भय आस.
राज, धर्म, तन तीनि कर होहि बेगही नास.
 
इसका अर्थ स्पष्ट है की यदि सचिव (मंत्री), वैद्य (चिकित्सक) और गुरु: ये तीन व्यक्ति किसी भय के कारण अप्रिय नहीं बोलते हैं तो राज्य, धर्म और शरीर इन तीनों का शीघ्रता से नाश होता है.
 
पहली पंक्ति में क्रम है- सचिव, बैद और गुरु........... अगली पंक्ति में इनसे सम्बंधित क्षेत्रों का क्रम गड़बड़ा गया है- सचिव के लिए राज, बैद के लिए "तन" होना था पर "धर्म" आया है और गुरु के लिए "धर्म होना था किन्तु "तन" आया है......... ये दोष है...
 
इस दोष का ज़िक्र करने का अर्थ गोस्वामी तुलसीदास की शान में गुस्ताखी करना  नहीं समझा जाए सादर -आनंदकृष्ण, जबलपुर , मोबाइल : ०९४२५८००८१८   http://hindi-nikash.blogspot.कॉम    ******
परमपूज्य आनंदकृष्ण जी ,
आपके जैसे विद्वान तुलसीदास के जमाने में भी थे , जिन्होंने तुलसीदास की पूरी कृति को ही निरस्त कर दिया था । लेकिन दुर्भाग्य से उन पंडितों में से किसी का नाम आज किसी को याद नहीं है । याद रह गए तो सिर्फ तुलसीदास । वैसे छंद विधान में शब्दों को इतना आगे-पीछे रखने की छूट कवि को दी जाती है । अन्यथा ये कहावत ही न बन पाती कि जहां न पहुंचे रवि , वहां पहुंचे कवि । - ओमप्रकाश तिवारी    *****

परम आदरणीय तिवारी जी,
आनंद जी ने स्वयं स्पष्ट किया है कि उनका इरादा तुलसी दास जी क़ी शान में गुस्ताखी करने का कतई नहीं था. उनकी रचना से उदहारण देकर उन्होंने कुछ बुरा भी नहीं किया. 'क्रम विपर्यय' दोष क़ी चर्चा छंद शास्त्रों मैं पहले से है, हम अपनी श्रद्धा के आगे इतना विवश क्यों हो जाते हैं कि सच्ची बात अखरने लगती है. अगर तुलसी दास जी को भूल कर उस दोष पर विचार करें जो उस रचना मैं किसी कारण वश रह गया, तो भविष्य की कविता और सुन्दर हो सकती है. आशा है मेरे निवेदन को अन्यथा न लेंगे.      कृपाकांक्षी,  मदन मोहन 'अरविन्द'   *****

सचिव, बैद, गुरु तीनि जो, प्रिय बोलहिं भय आस.
राज, धर्म, तन तीनि कर होहि बेगहि नास.
यहाँ ऊपरी तौर पर 'क्रम विपर्यय दोष' है किन्तु गहराई से सोचें तो नहीं भी है. बैद भय के कारण प्रिय बोलेगा तो स्वास्थ्य बिगड़ेगा और रोगी के लिए धार्मिक अनुष्ठान वर्जित होने से धर्म की हानि होगी. इसी तरह गुरु भयवश प्रिय कहेगा तो ज्ञान नहीं मिल सकेगा और अज्ञान के कारण शरीर नष्ट होगा.

ऐसा ही एक और प्रसंग है: 'शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जग वंदन' में निरर्थक शब्द-प्रयोग का दोष दिखता है चूंकि 'सुवन' शब्द का कोई अर्थ समझ में नहीं आता, सामान्य शब्द कोशों और अरविन्द कुमार के हिन्दी थिसारस में 'सुवन' शब्द ही नहीं है. बिहार में पंडितों की एक सभा में इस पर चर्चा कर सर्व सम्मति से संशोधन किया गया 'शंकर स्वयं केसरी नंदन' चूंकि हनुमान रूद्र के अवतार मान्य हैं यह ठीक भी लगता है किन्तु वास्तव में इसकी आवश्यकता ही नहीं है. 'सुवन' =
सूर्य, चन्द्रमा, पुत्र, पुष्प, सुमन, देवता, पंडित, अच्छे मनवाला (पृष्ठ १२८२, बृहत् हिन्दी कोष, संपादक: कलिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव).

एक और; 'ढोल गंवार शूद्र पशु नारी' का उल्लेख कर तुलसी को नारी निंदक कहनेवाले यह भूल जाते हैं कि 'जय-जय गिरिवर राज किशोरी, जय महेश मुख चन्द्र चकोरी, जय गजवदन षडानन माता, जगत जननि दामिनी दुति गाता' में तुलसी नारी को 'जगत जननि' कहकर उसकी मान वन्दना करते हैं. यहाँ 'पशु नारी' का अर्थ 'पशु और नारी' नहीं 'पशुवत नारी' अर्थात पशु की तरह अमर्यादित आचरण करनेवाली नारी है.

यह मेरी बाल बुद्धि की सोच है. यदि मैं गलत हूँ तो विद्वज्जन क्षमा करते हुए मार्दर्शन करेंगे. 
  --संजीव 'सलिल'   *********

काव्य में दायें और बायें की लयात्मक दृष्टी से छूट होती है यह केवल दोष दृष्टि है.   -- मृदुल कीर्ति  ********

यह बहस का मुद्दा ही नहीं है.... ब्लोग्ग पर सतही बहस करनेवाले और जल्दी उत्तेजित होनेवाले बहुत हैं... आप इससे दूर ही रहें...  आपके बताये अर्थ सही हैं.    ---पूर्णिमा वर्मन.    *****


आप पाठक भी अपनी बात कहें...


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2 टिप्‍पणियां:

hem pandey ने कहा…

कवि को इतनी छूट लेने की इजाजत होनी चाहिए.

dr. ram sharma ने कहा…

dr.ram: with plagarism
but he is the greatest