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बुधवार, 4 अगस्त 2010

एक गीत: हक संजीव 'सलिल'



एक गीत:
हक
संजीव 'सलिल'
*









*
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.
न मन मिल पायें तो क्यों बन्धनों को ढोयें हम नाहक..

न मैं नाज़ुक कि अपने पग पे आगे बढ़ नहीं सकता.
न तुम बेबस कि जो खुद ही गगन तक चढ़ नहीं सकता.

भले टेढ़ा जमाना हो, रुका है कब कहो चातक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.

न दिल कमजोर है इतना कि सच को सह नहीं पाये.
विरह की आग हो कितनी प्रबल यह दह नहीं पाये..

अलग हों रास्ते अपने मगर हों सच के हम वाहक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.

जियो तुम सिर उठाकर, कहो- 'गलती को मिटाया है.'
जिऊँ मैं सिर उठाकर कहूँ- 'मस्तक ना झुकाया है.'

उसूलों का करें सौदा कहो क्यों?, राह यह घातक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.

भटक जाए, न गम होगा, तलाशेगा 'सलिल' मंजिल.
खलिश किंचित न होगी, मिल ही जायेगा कभी साहिल..

बहुत छोटी सी दुनिया है, मिलेंगे फिर कभी औचक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.

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1 टिप्पणी:

गुड्डोदादी: ने कहा…

गुड्डोदादी:

बिटवा नन्हे

आशीर्वाद

आपके इस गीत को कई बार पढ़ा और रूलाई आ गई कहाँ से ढूंढ कर लाये है यह गीत की पंक्तिओं को