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बुधवार, 22 सितंबर 2010

मुक्तिका: क्यों?..... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
                                                         
क्यों?.....

संजीव 'सलिल'
*
मुक्त से मुक्ति ही क्यों छिपी रह गई?
भक्त की भक्ति ही क्यों बिकी रह गई?

छोड़ तन ने दिया, मन ने धारण किया.
त्यक्त की चाह पर क्यों बसी रह गई?

चाहे लंका में थी, चाहे वन में रही.
याद मन में तेरी क्यों धँसी रह गई?

शेष कौरव नहीं, शेष यादव नहीं..
राधिका फाँस सी क्यों फँसी रह गई?

ज़िंदगी जान पाई न पूरा जिसे
मौत भी क्यों अजानी बनी रह गई?

खोज दाना रही मूस चौके में पर
खोज पाई न क्यों खोजती रह गई?

एक ढाँचा गिरा, एक साँचा गिरा.
बावरी फिर भी क्यों बावरी रह गई?

दुनिया चाहे जिसे सीखना आज भी.
हिंद में गैर क्यों हिन्दवी रह गई?

बंद मुट्ठी पिता, है हकीकत यही
शीश पर कुछ न क्यों छाँव ही रह गई?

जिंदगी में तुम्हारी कमी रह गई
माँ बिना व्यर्थ क्यों बन्दगी रह गई?

बह रहा है 'सलिल' बिन रुके, बिन थके.
बोल इंसान क्यों गन्दगी रह गई?

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6 टिप्‍पणियां:

yograj prabhakar ने कहा…

बेहतरीन शेअर कहे हैं अपने आचार्य जी !

हर शेअर एक अलग रंग लिए हुए मगर हर लिहाज़ से मुकम्मिल !

वाह वाह!

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

धन्यवाद, प्रभाकर जी.

कोशिश है कि कुछ अछूते पहलुओं को सामने ला सकूँ.

Naveen C Chaturvedi ने कहा…

अरे वाह सलिल जी,

अब तो आप भी मूड में आ गये|

ये हुई ना फनकारों वाली बात|

Ganesh Jee 'Bagi' ने कहा…

भूतकाल, वर्तमान काल को समेटे और भविष्य की तरफ इशारा करती यह ग़ज़ल बिलकुल अलग कलेवर मे है, मैं तो यही कहूँगा कि हर हर महादेव, अदभुत संयोग है हम सब के लिये, बहुत बहुत बधाई आचार्य जी, आप से हम सब को अभी बहुत सीखना है |

दिव्य नर्मदा divya narmada ने कहा…

भाई ये मुक्तिकाएँ कुछ कह भी पाती हैं या नहीं? अभी तो मैं ही सीखने की कोशिश कर रहा हूँ.

yograj prabhakar ने कहा…

मूड नहीं नवीन भाई जी - आचार्य जी "रंगत" में आ गए है !